Bhagwan Ram: जौं चाहसि उजियार

Bhagwan Ram: सत्ता और समाज के बीच संतुलन के राम एक उदाहरण हैं। इसीलिए राजधर्म की सबसे आदर्श अवस्था रामराज्य मानी गई है। राम के अपने जीवन चरित्र से सर्वश्रेष्ठता के अनुकरणीय उदाहरण मिलते हैं।

Written By :  Ratibhan Tripathi
Update:2024-10-31 10:29 IST

Bhagwan Ram: सत्ता और समाज के बीच संतुलन के राम एक उदाहरण हैं इसीलिए राजधर्म की सबसे आदर्श अवस्था रामराज्य मानी गई है। राम के अपने जीवन चरित्र से सर्वश्रेष्ठता के अनुकरणीय उदाहरण मिलते हैं। हर युग हर काल खण्ड में राम से श्रेष्ठ कोई साबित नहीं हुआ है और इसीलिए राम समाज के लिए बारंबार अपरिहार्य हैं। राम को अपनाने वाले तो धन्य होते ही हैं लेकिन राम ने उनकी भी उपेक्षा नहीं की जो उनके प्रतिपक्ष में रहे हैं। राम आदर्शों के ही नहीं, राजनीति के भी शलाका पुरुष हैं। वह लोकतंत्र के परम उपासक और प्रबल समर्थक रहे हैं।

राम को जानना समझना अति कठिन है फिर भी लौकिक दृष्टि से पूछें कि आखिर राम हैं क्या! तो अनेकानेक प्रश्न उभरेंगे, अनेकानेक उत्तर मिलेंगे। राम अध्यात्म, चिंतन, भक्ति, शक्ति और पुरुषार्थ के प्राणतत्व हैं। राम राजा हैं, लेकिन लोकतंत्र के सजग रक्षक हैं। तभी तो वो कहते हैं - "जौ अनीति कछु भाखौं भाई। तौ मोहिं बरजेहु भय बिसराई।।" (श्रीरामचरितमानस)। राम शक्तिपुंज हैं लेकिन दीन दुखियों के रक्षा कवच हैं। इसीलिए एक दुखी प्राणी की पुकार इस विश्वास के साथ आती है - "मो सम दीन न दीनहित तुम्ह समान रघुबीर।" राम राजकुमार हैं लेकिन तपसी भेष में वन-वन भटकते हैं। राम अभिजात्य हैं किन्तु सबको गले लगाते हैं।

राम राजा हैं किन्तु साम्राज्यवादी नहीं हैं। लंका विजय के बाद भी लंका पर शासन नहीं करते हैं। राम क्षेत्रवादी नहीं, समस्त लोक उन्हें प्रिय है। राम विस्तारवादी नहीं, निषादराज गुह्य भी उनका पड़ोसी राजा निष्कंटक राज्य करता है। राम जातिवादी नहीं, वह चित्रकूट के कोल-किरातों से भी अपनापन दिखाते हैं। राम अहंकारी नहीं, वह समुद्र को भी क्षमादान देते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो राम भारतीय संस्कृति और मनीषा की आत्मा हैं। राम अलौकिक हैं, इसलिए पहले माता कौशल्या को ईश्वरीय रूप का दर्शन कराते हैं। राम लौकिक हैं इसीलिए युगानुकूल मानवीय मर्यादा का पालन करते हैं। राम सत्यप्रिय हैं, वह पिता का वचन झूठा नहीं होने देते हैं। राम अनुशासनप्रिय हैं, वह माता कैकेई की भावना का सम्मान करते हैं। राम भावप्रिय हैं, वह शबरी के जूठे बेर खाते हैं। राम न्यायप्रिय हैं, वह सुग्रीव को अपनाते हैं। राम समदर्शी हैं, वह किसी से भेदभाव नहीं रखते हैं। राम ईश्वर हैं, यह उनके संपूर्ण आचरण से स्पष्ट है। राम आदि हैं। राम अंत हैं। राम अनंत हैं।

सर्वविदित है कि रामकथा के पहले गायक वाल्मीकि ने उन्हें- "रामो विग्रहवान् धर्मः" कहा है। अर्थात राम धर्म हैं और धर्म ही राम। तब इसके आगे कहने को बचता क्या है। जब राम स्वयं धर्म हैं या धर्म का अवतार हैं तो धर्म की और कौन सी व्याख्या प्रासंगिक हो सकती है। रामकथा में प्रसंग है कि ऋषि विश्वामित्र ने यज्ञ करना चाहा तो राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के लिए महाराज दशरथ के पास जाकर उनकी सेना नहीं मांगी। केवल राम को मांगा। महाराज दशरथ चकित हुए। तब विश्वामित्र उन्हें समझाते हैं- यौवनं धन संपत्ति: प्रभुमविवेकत्, एकैकमप्यन्थाय किमुयत्र चतुष्टयम्।” अर्थात यौवन, धन, संपत्ति व प्रभुत्व, इन चारों में से किसी एक के भी आ जाने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता हैं और जब चारों एक साथ हों तो तब तो कहना ही कठिन। किन्तु हे राजन, आपके पुत्र के पास ये चारों हैं फिर भी वह अतिविनम्र है। इसीलिए मैं आपके पुत्र राम को ले जाना चाहता हूं।

महर्षि वाल्मीकि जब किसी चरित्र पर लिखने को आतुर हुए थे तो उनका वह पात्र कौन हो सकता है? चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः” जीवन में चरित्र से युक्त कौन है जिसकी सभी प्राणियों के कल्याण में रुचि हो। जो देखने में सुखद और प्रियदर्शी हो। तब देवर्षि नारद ने राम का नाम सुझाया था। कहा था कि आप जिसमें यह सारे सद्गुण ढूंढ़ रहे हैं, वह केवल और केवल राम में ही हैं। राम से आदर्श और श्रेष्ठ चरित्र किसी और का नहीं है। राम साक्षात् धर्म हैं। राम जो कहते हैं जो करते हैं, वह धर्म हो जाता है। मन, वचन और कर्म से राम जो भी करते हैं, उससे धर्म की व्याख्या होती है।

राम सर्वाधिक लोकप्रिय राजा हैं। राम भ्रातृप्रेम के प्रतीक हैं। एक तरफ वह भरत उदात्त ज्ञान देते हैं तो दूसरी तरफ लक्ष्मण से वियोग में रोते भी हैं। राम संवेदनशील पति हैं जो पत्नी के लिए लाख जतन करते हैं। राम विरही भी दिखते हैं तो साधारण मनुष्य की तरह वन वन भटकते फिरते हैं। राम विनयशील हैं तो प्रचंड पराक्रमी शत्रु भी। राम जब मनुष्य दिखते हैं तो केवट के मन की बात समझ लेते हैं किन्तु जब ईश्वर दिखते हैं तो अहिल्या, जटायु और बालि को भवसागर से पार भी उतारते हैं। साबित है कि राम नर भी हैं और नारायण भी।

अपने इन्हीं समस्त गुणों के चलते वह लोक की आत्मा में समाए हुए हैं। वह नरोत्तम ही नहीं, धीरोदात नायक भी हैं।

राम ने लंका तो जीत ली लेकिन लक्ष्मण के प्रश्न पर स्वयं कहते हैं कि - "यद्यपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।" वह विभीषण को लंका सौंप देते हैं और अपनी मातृभूमि को ही सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। राम मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते। रक्ष संस्कृति की राजधानी लंका को यथावत रहने देते हैं। उस पर देव और मानव संस्कृति का आवरण नहीं डालते हैं। राम सत्य और धर्म की स्थापना तो करते हैं लेकिन प्रतिपक्षी की मनोदशा का भी ध्यान रखते हैं। उसके अहंकार को तो मिट्टी में मिला देते हैं लेकिन उसकी संस्कृति का समूल नाश नहीं करते हैं। यानी राम दूसरी विचारधारा का भी सम्मान करते हैं।

राम से बड़ा यायावर तो इस धरती पर कोई हुआ ही नहीं लेकिन वह अपनी यायावरी से बहुत कुछ सीखते सिखाते हैं, किसी को अनायास आतंकित नहीं करते हैं। वह प्रतिपक्षी का मन बदलना चाहते हैं किन्तु वास्तविकता के साथ, न कि मन में कुछ छिपाकर। राम ने शत्रु से भी कुछ छिपाया नहीं है। लंकापति के गुप्तचरों को अपना पूरा शिविर दिखाया

ऐसा इसलिए कि उनके पास "सौरज धीरज बल रथ चाका। धर्म शील दृढ़ ध्वजा पताका" जैसे अस्त्र-शस्त्र थे। धर्म की स्थापना के लिए राम पाखंड का उपयोग नहीं करते हैं। सत्य की प्रतिष्ठा के लिए राम झूठ का अवलंबन नहीं करते हैं। राम की वैश्विक स्थापना के लिए उनका आचरण ही आकाशदीप है, आज के सोशल मीडिया की जर्जर नौका पर सवार नायक नहीं हैं राम।

‌ लंका विजय के बाद वानर भालुओं को भी राम वास्तविक सम्मान देते हैं, उसका दिखावा नहीं करते हैं। दिखावा एक छलावा है, राम यह बखूबी जानते हैं इसीलिए कहते हैं -"निर्मल मन जन सो मोहिं पावा। मोहिं कपट छल छिद्र न भावा।" सहयोगियों, सहकारियों और सहधर्मियों के लिए मन में कपट नहीं रखते हैं राम।

राम को मानने, उनके आचरण को जीवन में उतारने का दावा करने वाले लोकनायकों को राम से सीखने की जरूरत है, न कि छल-कपट से भरे प्रदर्शन करने की। राम लोक के लिए उदात्त महानायक हैं, जाति-वर्ग के नेता नहीं। विजय पर भी राम में अहंकार का लेशमात्र नहीं लेकिन अब के नायक अहंकार में आकंठ डूबे हैं या नहीं, यह आत्मावलोकन उन्हें स्वयं करना चाहिए। "दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काउहिं ब्यापा।।" जैसा अनुपम उदाहरण बनने के लिए राम का आचरण जीवन में उतारना होगा, झूठ-मूठ के लिए मन नहीं बहलाने से कुछ नहीं होगा। मन का दीप प्रज्ज्वलित कीजिए तभी भीतर का अंधेरा छंटेगा और फिर समस्त चराचर जगत जगमगा उठेगा। तुलसी बाबा की बात इस दौर में कितनी प्रासंगिक है -

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।

तुलसी भीतर बाहिरेहुं जौं चाहसि उजियार।।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)

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