क्या धरा है कुलनाम में?
एक इतालवी संवैधानिक न्यायालय ने निर्दिष्ट किया है कि संतान अपने नाम में माता और पिता दोनों का उपनाम अपना सकते हैं।
Surname: संतान किसके नाम से पहचानी जाये? जनक या जननी के? अभी तक यह वैधानिक रुप से निश्चित नहीं है। गत सप्ताह एक इतालवी संवैधानिक न्यायालय ने निर्दिष्ट किया है कि संतान अपने नाम में माता और पिता दोनों का उपनाम अपना सकते हैं। कारण है कि केवल पिता का उपनाम लगाना लैंगिक विषमता का अपराधी होगा। ऐसा शिशु की सही पहचान के लिये हानिकारक भी है। रोम सरकार की परिवार विषयों की काबीना मंत्री श्रीमती एलीना बोनेत्ती ने अदालती फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इसको शीघ्र वैधानिक रुप दिया जायेगा।
भारत के लिहाज से लैंगिक समता हेतु ऐसा संसदीय अधिनियम नर-नारी की गैरबराबरी खत्म करने में सहायक होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ, जिसके निर्णय मानने से भारत सरकार बाध्य है, ने 1979 में एक करार स्वीकारा था कि पति और पत्नी दोनों को समान हक होगा कि वे अपनी पंसद का पारिवारिक उपनाम लगाये। अपनी रुचि का पेशा और व्यवसाय चुनें। फ्रांस पहला समतावादी गणराज्य बना जिसने अपनी नागरिक संहिता की धारा 311-21 में संशोधन कर निर्दिष्ट किया था कि संतान को हक है कि वह पिता और माता का उपनाम एक साथ जोड़कर लगा सकता है। यही निर्णय अन्य यूरोपीय राष्ट्रों ने गत दो दशकों में अपनाया है। भारत प्रगतिशील, आगेदेखू गणराज्य है। अत: मोदी शासन को भी संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशानुसार माकूल विधेयक अपनाना चाहिये।
नर-नारी का भेद खत्म हो
सारे भारत भर में पनप रहा नर-नारी का भेद खत्म हो। सप्तकान्ति की रचना में राममनोहर लोहिया की यही अवधारणा थी। यह सोशलिस्ट पुरोधा कई बार आश्रमवासी ऋषि सेविका जाबाला का आदर्श पेश करते है। किन्तु पांचाली के बाद उसी ने बहुपति प्रथा विकल्प को अपनाया था। जाबाला ने नारी सशक्तिकरण किया था। एक बार शिक्षा आरंभ करने के पूर्व उसके पुत्र सत्यकाम ने मां जाबाला से पूछा था कि उसका गोत्र (उपनाम \) कौन सा है? जब आश्रम में शिक्षक ऋषि गौतम ने पूछा तो सत्यकाम का उत्तर था : ''हे भगवन् ! किस गोत्र वाला मैं हूँ यह मैं नहीं जानता। मैंने अपनी माता से गोत्र पूछा था।
उसने मुझे कहा- ''मैं बहुत स्थानों में काम करती हुई नौकरानी थी। यौवन में तू मुझे प्राप्त हुआ था। अत: मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।'' सत्यकाम से गौतम ने कहा : ''अब्राह्मण-अज्ञानी ऐसे उत्तर नहीं दे सकता है। इस कारण तू ब्राह्मण है। समिधा ले आ, मैं तुझे उपनयन में लाऊँगा। तू सत्य से चलायमान कदापि नहीं हुआ।''
यहां ''टाइम्स आफ इंडिया'', नयी दिल्ली, के अपने सहकर्मी का नमूना पेश करता हूं। वह अकोला में जन्मे, 85-वर्षीय तमिल शैव विप्र स्वामीनाथन एस. (शाहनाज) अंकलेसरिया अय्यर के नाम से मशहूर आर्थिक पत्रकार हैं। वस्तुत: यही होना चाहिये। प्रत्येक पुरुष को अपनी पत्नी का नाम अपने विस्तृत नाम का भाग बनाना चाहिये।
प्रचलन का इतिहास रुचिकर और जानने योग्य
उपनाम के प्रचलन का इतिहास बहुत रुचिकर और जानने योग्य है। शिशु के नामकरण संस्कार से इसका रिश्ता है। इसमें लाभ अनन्य हैं। महिलाओं के प्रति भेदभाव, वैधानिक साक्ष्य, समाजिक मर्यादा आदि दृढ हो जाती हैं। केरल की प्रथा थी। नंबूदिरिपाद ब्राह्मण वहां उच्चतम कोटि के होते है। सारी संपत्ति ज्येष्ठ पुत्र को ही मिला करती थी। मार्क्सवादी नेता ईएम शंकरन नंबूदिरिपाद ने सब तोड़ कर समानता ला दी, लेकिन केरल में मातृप्रधान समाज के कारण संतान का नाम मामा के उपनाम पर ही पड़ा करता था।
भारत में बापू के राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में उपनाम को काट देने का अभियान चला था। जाति सूचक उपनाम खासकर काटे जाते थे। हालांकि जब इतिहास में सदियों पूर्व यह उपनाम रखे जाते थे तब उनकी पहचान की युगीय उपयोगिता थी। जैसे कश्मीरघाटी में नहर के किनारे रहने वाला परिवार नेहरु कहलाया। भला हो प्रधानमंत्री बनने के बाद भी जवाहरलाल नेहरु ने इसे बरकरार रखा। मगर पंसारी के धंधे में लगा गुजराती आज भी अपने को गांधी कहता है। पारसी जब ईरान में इस्लामी आतंक से बचने के लिये दक्षिण गुजरात आये थे तो गल्ला बेचते थे। गांधी उपनाम की वर्तनी बदल कर घाण्डी कहलाये। विवाह के बाद इसकी मात्रा बदल कर इंदिरा गांधी ने ''घा'' हटाकर ''गा'' कर दिया। भ्रम सर्जाया कि वह भी गांधी हैं। आज भी बना ही हुआ है।
यूं भारतीय उपमहाद्वीप में उपनाम जाति, धंधे, भौगोलिक स्थान, विशिष्ट पूर्वज, इष्टदेव इत्यादि के नाम पर अमूमन रखे जाते हैं। मसलन यादव सब कृष्ण के वंशज माने जाते हैं। हालांकि भगवान कृष्ण के नाम-उपनाम असंख्य है। उनकी हर चीज दो थी। मां (यशोदा और देवकी), राजधानी (मथुरा और द्वारका), पत्नियां (रुक्मिणी, सत्यभामा आदि)। विरुदावलि भी सहस्र में थी। इसीलिये इस नटवरलाल की प्रार्थना में एक पंक्ति है: ''कृष्ण के अनेक नाम बार-बार लीजिये।'' मगर महात्मा विदुर तथा महारथी कर्ण सूत्रपुत्र ही कहलाते रहे।
पारसियों के उपनाम से बड़ा व्यंग भी उपजता है। जैसे दारुवाला भले ही वह शराब छूता भी न हो। एक कार विक्रेता का नाम बाटलीवाला था। यूं बांग्लाभाषी विप्रों का उपनाम बड़ा विद्वताभरा होता है : बंधोपाध्याय आंग्लाभाषा में विकृत होकर बनर्जी बन गया। इसी भांति मुखर्जी है मुखोपाध्याय, चटर्जी चटोपाध्याय इत्यादि।
यहां अगर पूरा नाम लिख दें तो पत्र में पता लिखने की जरुरत नहीं
दक्षिण भारत के विप्रों में समझा जाता है कि यदि उनका पूरा नाम लिख दें तो पत्र में पता लिखने की जरुरत नहीं होती है। उनके पिता, कुल, गांव, जनपद आदि सभी होते हैं। हालांकि नये दौरे में सिर्फ पिता का नाम ही होता है। जाति सूचक उपनाम नहीं।
यहां सुझाव के तौर पर एक उल्लेख कर दूं। यदि नवजन्में शिशु का काव्यमय नाम चाहिये तो पश्चिम बंगाल की माध्यमिक परीक्षा का परिणाम पत्र पढ़ लें। ''अ'' से लेकर ''ह'' तक एक से एक उम्दा नाम मिल जायेगे।
अब नाम उपनाम की चर्चा पर इतना तो स्मरण रखना चाहिये कि यदि पंसदीदा नाम न हुआ तो व्यक्तित्व का विकास और मनौवैज्ञानिक संतुलन को बहुत हानि होगी, कुंठित होगी। मसलन घुरहूं हुआ तो वह घूरे के आगे नहीं चढ़ पायेगा। कबाड़ ही बटोरेगा। कल्लू होगा तो जितना भी धवल हो, कृष्णवर्ण ही माना जायेगा। इसीलिये हिन्दी
की कहावत में चेतावनी निहित: '' आंख के अंधे, नाम नयनसुख।'' कितने ही क्षत्रियों में नाम उत्साहजनक होते थे। उत्तेजक भी। जैसे रिपुदमन, अरिमर्दन, रणविजय, समरबहादुर। भले ही आज तलवार भी न भांज पाये। मात्र कलमवीर हो। इसीलिए संतान के नाम में माता—पिता के उपनाम के साथ रोचकता हो तो विकास भला होगा। द्रुतगामी भी।
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