या देवी सर्व भूतेषुः प्रवासी माँ में जीवंत, कोरोना काल में महिलाओं का योगदान
देवताओं को भी लेनी पड़ी शक्ति से मदद, प. बंगाल में प्रवासी मां का दुर्गा के रूप में प्राकट्य, निराशा के घने अंधकार में प्रकाश की किरण दिखा मनोबल बढ़ाती है शक्ति, 2020 शक्ति के सम्मान का वर्ष, घरों में हमने देखा है। चुके नहीं हैं मौलिक गुण।
योगेश मिश्र
कोमल है। कमजोर नहीं। शक्ति का नाम नारी है। वैसे तो भारतीय संस्कृति में यह बात बताने और दोहराने की नहीं है। जब समय नवरात्रि का चल रहा हो तब तो नारी की महत्ता और महानता निश्चित तौर से बतकही की मोहताज नहीं रह जाती है। वैसे तो हर सफल आदमी के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। हमारे देवताओं के लिए भी जब कोई काम बहुत कठिन लगा तो उन्होंने देवियों की शरण ली।
आसुरी शक्ति की पराजय के लिए शक्ति से मदद
देवताओं को भी राक्षसों से युद्ध के लिए हमारी देवियों से ही शक्ति या सहायता लेनी पड़ी। कोलकाता के बारीशा क्लब दुर्गा पूजा पंडाल में नारी शक्ति और देवी शक्ति को बहुत ही ठीक ढंग से रखा गया है। कलाकार रिंटू दास ने मां दुर्गा की छवि के सामने एक प्रवासी मां की प्रतिमा गढ़ी है।
प्रवासी मां यानी कोरोना महामारी के दौरान देश के महानगरों से घर की ओर वापस लौट रही कामगार व मजदूर परिवारों की महिलाएं हैं ,जो अपनी गृहस्थी और बच्चों को संभाले हुए सडक़ से गुजरती हुई देखी गईं।
धूसरी रंग की साड़ी बांधे हुए इस महिला ने गोद में एक बच्चे को संभाल रखा है। उसके आगे-पीछे दो और बच्चे चल रहे हैं। इस प्रवासी मां के चेहरे का तेज और माथे पर दमकती हुई तीसरी आंख उसे दुर्गारूपा बना रही है।
प्रवासी मां दुर्गा के रूप में प्रकटी
कलाकार रिंटू दास ने प्रवासी मां को दुर्गा स्वरूप देने के बारे में कहा कि दुर्गा पूजा का त्योहार बेटियों और महिलाओं की घर वापसी का त्यौहार भी है। बेटियां अपने मायके आती हैं।
कोरोना के दौरान पूरी दुनिया ने देखा कि किस तरह महिलाएं अपनी तमाम जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए सड़क पर पैदल चली जा रही हैं। इस पीड़ा काल में भी मां का रूप नहीं बदलता है।
दुनिया ने यह भी देखा कि महिलाओं ने इस कठिन समय में सडक़ पर ही प्रसव भी कराया। इसलिए मैंने भी उन महिलाओं में शक्ति स्वरूपा दुर्गा का बिंब देखा है। अपनी कृति में इन्हें ही दर्शाया है।
कोलकाता के दुर्गा पूजा पंडाल में प्रवासी मां की छवि की सराहना चहुंओर हो रही है। दरअसल, शक्ति उपासना का भारतीय चिंतन में बहुत बड़ा महत्व है। शक्ति के बिना शिव को भी शव की तरह चेतना शून्य माना गया है।
स्त्री और पुरुष को भारतीय जीवन दर्शन व अध्यात्म में शक्ति और शिव का स्वरूप ही माना गया है। स्त्री तत्व की प्रधानता भी पुरुष से अधिक मानी गई है। नारी वास्तव में शक्ति की चेतना का प्रतीक है।
चेतना का संचार शक्ति से
साथ ही यह प्रकृति की प्रमुख सहचरी भी है, जो जड़ स्वरूप पुरुष को अपनी चेतना प्रकृति से आकृष्ट कर शिव और शक्ति का मिलन कराती है।
दुर्गा सप्तशती के तंत्रोक्त रात्रिसूक्त में - त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा- इत्यादि श्लोकों के द्वारा शक्ति के शाश्वत स्वरूप का उल्लेख किया गया है। हिंदी के कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के शक्ति पूजा काव्य में भगवती निराशा में डूब रहे राम का हाथ थामती हैं-
‘देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वरवन्दन कर-
'होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।'
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।‘
इसका विशेष महत्व आधुनिक युग के विचारकों के लिए चिंतन का विषय है। शास्त्रों के अनुसार शिव और शक्ति सनातन हैं , उनकी शक्ति भी सनातन है। जिनकी आराधना करने से व्यक्ति का सभी प्रकार का कल्याण तो होता ही है साथ ही राष्ट्र और धर्म को भी उसका पुण्य फल प्राप्त होता है।
पौराणिक आख्यानों से लेकर भारत के आधुनिक इतिहास तक कई ऐसे प्रसंग हैं जहां पुरुषों ने शक्ति की आराधना से ही जीवन को सार्थक बनाया है।
श्रीदुर्गा सप्तशती में सभी देवताओं के एक साथ दुर्गा देवी के निकट जाकर प्रार्थना कर उनसे अपनी रक्षा की गुहार लगाने का प्रसंग है तो ईश्वर के विभिन्न अवतारों में भी भवानी पूजा के प्रसंग प्राप्त होते हैं।
रामायण में भगवान श्री राम और जानकी देवी के भवानी पूजन के प्रसंग बहुश्रुत हैं। आधुनिक भारत में स्वामी विवेकानंद, परमहंस स्वामी रामकृष्ण समेत अनेक महापुरुषों के प्रामाणिक अनुभव विद्यमान हैं।
छत्रपति शिवाजी ने मुगलों से संघर्ष करने के लिए भगवती भ्रमरम्बा भवानी की आराधना की और पूरे जीवन भर भवानी की जय के नारे के साथ ही युद्ध करते रहे।
महाराणा प्रताप ने भी भगवती चामुंडा की विशेष आराधना की है। सिखों के दशम गुरु गुरुगोविंद सिंह की रचना चंडी दी वार उल्लेखनीय है। उन्होंने एक बार अपने शिष्यों को बताया कि पूर्व जन्म में उन्होंने हेमकुंड साहिब में महाकाल और कालका की आराधना से ही धर्म रक्षा की शक्ति पाई है।
2018 नहीं 2020 है नारी शक्ति वर्ष
दो साल पहले ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी इंडिया ने नारी शक्ति शब्द को हिंदी वर्ड ऑफ द इयर घोषित किया था लेकिन रिंटू दास की प्रवासी मां छवि ने लोगों को याद दिलाया है कि नारी शक्ति सम्मान वर्ष तो 2020 को मानना चाहिए।
इस साल भारत की नारी शक्ति ने वह कर दिखाया है जो उसे सदैव के लिए शक्ति स्वरूपा दुर्गा की तरह पूजनीया बनाता है।
2018 में तीन तलाक, महिलाओं को हज पर अकेले जाने का अधिकार और सबरीमाला में पूजा अधिकार को लेकर नारी शक्ति शब्द चर्चा में रहा लेकिन लोगों का ध्यान कोरोना संकट काल में भारत की नारियों के अप्रतिम योगदान की ओर गया ही नहीं।
सडक़ से गुजरती प्रवासी माताओं के अदम्य साहस व शक्ति को रिंटू दास ने अपनी कलाकृति से रेखांकित किया । लेकिन घरों में रहने वाली महिलाओं ने भी इस दौर में बड़ी खामोशी से अपनी शक्ति स्वरूपा भूमिका का निर्वाह करते हुए अपने पुत्रों-पुत्रियों, भाई-पिता, पति व अन्य रिश्तों से जुड़े लोगों के जीवन की सफलता पूर्वक रक्षा की है।
घरों में देखा है शक्ति का ये स्वरूप
कोरोना का संक्रमण बढऩे पर जब पूरे देश में हाहाकार मचा और लोगों का घरों से निकलना बंद हो गया तो पूरे देश ने देखा कि अस्पतालों में रोगियों की सेवा सुश्रुषा करने वाली महिलाओं ने बगैर अपनी मुस्कान खोए लोगों को जीवन जीने का मौका दिया।
घरों में रहने वाली महिलाओं ने दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले अपने परिवार के सदस्यों का ज्यादा ख्याल रखा। यह भारत की महिलाएं ही हैं जिन्होंने बाजार बंद होने के बावजूद अपने परिवार के सदस्यों को बाजार की कमी नहीं महसूस होने दी।
उनके लिए घर में तरह-तरह के व्यंजन तैयार करने से लेकर पिज्जा, चाउमीन, केक और मिठाईयां तक सुलभ कराईं। महिलाओं ने अपने अन्नपूर्णा रूप में परिवार के सदस्यों के स्वाद व स्वास्थ्य का ध्यान रखा।
उन्हें काढ़ा से लेकर गर्म पानी तक सब कुछ मुहैया कराया तो बच्चों के लिए सरस्वती स्वरूपा होकर ऑनलाइन क्लास का भी प्रबंध किया।
तीनों की अधिष्ठात्री शक्ति
हमारे यहाँ धन, विद्या एवं शक्ति तीनों की अधिष्ठात्री महिलाएँ है। संसार को आगे बढ़ाने का एकाधिकार महिलाओं के पास है। वे प्रकृति है। वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक इनके जीवन में बहुत उतार चढ़ाव आये।
पाषाण युग से परमाणु युग तक नारी अस्तित्व को चुनौती घर में, समाज में और कोख में मिली। पर हर कालखंड में, हर कठिन समय में महिलाओं ने अपनी मूल प्रकृति व प्रवृत्ति को एक सा बनाये रखा।
समूचे महिला समाज से कभी भी , किसी भी कठिन से कठिन समय में उनके मौलिक गुण चुके नहीं। अपनी महानता की मौलिकता , यानी जिन गुणों के कारण उनकी महानता के आगे सब नतमस्तक है, को इन्होंने चुकने नहीं दिया।
वैसे भी भारतीय मनीषा समानाधिकार, समानता व प्रतियोगिता की बात महिलाओं के संबंध में नहीं करती। वह सहयोगिता , सहधर्मिता व सहचारिता की बात करती है। उसकी वेदना शक्ति देती है-प्रकृति व पुरुष दोनों को।
यही शक्ति रचती है संसार । नित नया संसार। जिसमें कभी वह द्रोपदी बनती है, कभी सीता, कभी सावित्री, कभी अपाला, कभी गार्गी, कभी मीरा, कभी अक्का महादेवी, कभी लाल देद, कभी रामी जानापाई, कभी रजिया , कभी दुर्गावती, कभी लक्ष्मीबाई, कभी चाँद बीबी, कभी पद्मावती तो कभी पन्ना धाय , जीजाबाई, आर्यामा, भारती।
इन और इस तरह के हर रूप में, स्वरूप में वह उत्सर्ग करती है। जिससे गौरवान्वित हो उठते हैं हम और हमारा समाज।