कोविड-19 के बीच बेरोजगारी के दुष्चक्र में फंसता भारत
कोरोना ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बेरोजगारी के ऐसे दुष्चक्र में फंसा दिया है जहां से निकलना बेहद कठिन होता जा रहा है।
कोई भी संकट अपने साथ कई संकटों को भी आमंत्रित करता है। कोविड-19 की वजह से भारत में आज तबाही का मंज़र है। यह मंजर सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है बल्कि इसका प्रभाव सामाजिक, राजनीतिक, भौगोलिक एवं आर्थिक रूप से भी दिख रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2017-18 से ही ढलान की तरफ बढ़ने लगी थी और कोविड-19 की आर्थिक तबाही ने इसके ताबूत में आखिरी कील का काम किया। कोविड-19 के पहले भारतीय अर्थव्यवस्था नॉमिनल जीडीपी की गणना में 45 साल के न्यूनतम स्तर पर, रियल जीडीपी की गणना में 11 साल के न्यूनतम स्तर पर, कृषि वृद्धि दर में 4 वर्ष के न्यूनतम स्तर पर और विनिर्माण क्षेत्र 15 साल के न्यूनतम स्तर पर था। अप्रैल-जून की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर -23.9 फ़ीसदी थी। इस संकट ने भारतीय अर्थव्यवस्था को वर्तमान में बेरोजगारी के ऐसे दुष्चक्र में फंसा दिया है जहां से निकलना बेहद कठिन होता जा रहा है।
कोविड-19 की पहली लहर के आर्थिक प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था अभी उभर ही रही थी। मार्च और अप्रैल महीने के दौरान बेरोजगारी दर घटकर 7 से 8 फ़ीसदी के बीच पहुंच गई थी। अर्थिक वृद्धि दर सकारात्मक हो रही थी, लेकिन दूसरी लहर ने सभी आर्थिक सुधारों को बड़े आर्थिक संकट के रूप में बदल दिया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के आंकड़ों के अनुसार 16 मई को बेरोजगारी दर बढ़कर 14.5 फ़ीसदी पर पहुंच गई। शहरों की बेरोजगारी दर 14.71% तो वही गांवों की बेरोजगारी दर 14.34 फ़ीसदी है। ग्रामीण क्षेत्र का यह 50 हफ्तों का सबसे ऊंचा स्तर है। कोविड-19 की दूसरी लहर की वजह से अकेले अप्रैल माह में 75 लाख नौकरियां चली गई। इसमें से सबसे अधिक 60 लाख नौकरियां कृषि क्षेत्र में गई हैं। इस संस्था की माने तो पिछले 1 वर्ष में कुल 1.26 करोड़ स्थाई नौकरियां कम हुई हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियाद कृषि क्षेत्र बताई जाती है लेकिन वर्तमान की भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा तबका मिडिल और लोअर क्लास का है। किसी भी आर्थिक संकट का सबसे नकारात्मक प्रभाव इसी तबके पर देखने को मिलता है क्योंकि यह भारत के असंगठित क्षेत्र में सबसे बड़ा हिस्सा रखता है। बढ़ती बेरोजगारी का सबसे बड़ा संकट भारत के सिकुड़ते मध्यवर्ग और फैलते गरीब वर्ग का है। वर्तमान समय में जारी आर्थिक संकट ने मध्यमवर्ग को इतना प्रभावित किया है कि वह गरीबी रेखा के नीचे चला गया है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के जरिए किए गए एक शोध के अनुसार पिछले 1 वर्ष में कुल 23 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। यह संख्या भारत की एक बहुत बड़ी उपलब्धि को शून्य करने जैसा है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ने 2005 से 2015 के बीच में कुल 27 करोड़ की आबादी को गरीबी रेखा से बाहर निकाला था। कोविड-19 के इस आर्थिक संकट ने इस पूरी उपलब्धि के आंकड़ों को नए सिरे से पलट कर रख दिया है।
घटती आर्थिक वृद्धि और तेजी से बढ़ती बेरोजगारी दर अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से दो पैमानों पर बेहद चिंताजनक हो जाती है। पहला पैमाना ""अर्थव्यवस्था में मांग" का है। तेजी से घट रही नौकरियां सीधे तौर पर देश के प्रति व्यक्ति आय को प्रभावित करेंगी। जब रोजगार खत्म होंगे तो जनता के सामने आय के स्रोत बंद हो जाएंगे और इसके परिणाम स्वरूप बाजार में मांग घटने लगेगी। जब बाजार में खपत कम होगी तो स्वाभाविक रूप से उत्पादन घटेगा। रोजगार के अवसर कम होंगे। भारतीय अर्थव्यवस्था इस सदमें से जल्दी उबर नहीं पाएगी। नतीजा यह होगा कि आर्थिक वृद्धि दर और घट जाएगी। बढ़ती बेरोजगारी का दूसरा चिंताजनक पैमाना "सामाजिक असंतुलन" का है। जब अर्थव्यवस्था में काम करने की इच्छुक जनसंख्या को रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं होंगे तो गलत एवं अनैतिक कार्यों में वृद्धि दिखेगी। यह एक बहुत बड़ी आबादी के लिए मानसिक दबाव के रूप में भी दिखेगा। अगर यह संकट अधिक गहराता गया तो भविष्य में किसी बड़े राजनीतिक आंदोलन का शक्ल धारण कर लेगा। इस समस्या का सबसे अधिक प्रभाव भारत की जनसंख्या के सबसे सुनहरे हिस्से पर पड़ने वाला है। सबसे अधिक रोजगार देश की 60 फ़ीसदी से अधिक युवा आबादी के वर्ग का गया है। इस तरीके से अपनी युवा मानव पूंजी का व्यर्थ होना भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद ही नकारात्मक संकेत है।
इस संकट से बचने के लिए सरकार ही अपने स्तर पर प्रयास कर सकती है। वर्तमान में सरकार ही वह जरिया है जिससे दोबारा अर्थव्यवस्था में मांग पैदा कर रोजगार के अवसरों को जन्म दिया जा सकता है। इसके लिए सरकार को सर्वप्रथम एक विशेष मांग आधारित आर्थिक पैकेज लाने की जरूरत है। इस आर्थिक पैकेज के जरिए अर्थव्यवस्था में शामिल कमजोर तबके को एक निश्चित राशि नकद भुगतान के रूप में दी जानी चाहिए। ऐसा करने से बाजार में खपत वृद्धि होगी और मांग वापस लौटेगी। अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ने के परिणाम स्वरूप कंपनियां उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करेंगी और इसके लिए उन्हें नए रोजगार अवसरों का सृजन करना पड़ेगा। दूसरा तरीका "मनरेगा" जैसी योजना हो सकती है।
यह योजना ग्रामीण भारत की एक बहुत बड़े तबके को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। सरकार को चाहिए कि इस योजना के अंतर्गत निर्धारित बजट की राशि दोगुना कर अधिक से अधिक कार्य दिवसों पर काम लिए जाएं। इस एक योजना की वजह से ग्रामीण भारत में बड़े स्तर पर आय सृजन किया जा सकता है। ग्रामीण भारत की मांग भी रोजगार सृजन करने में कामगार साबित होगी। साथ ही सरकार को चाहिए कि वह खाली पड़े सरकारी पदों को एक निश्चित समयावधि में भरने का कार्य करें और ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा निर्माण के रूप में दिख रहे अवसर को संज्ञान में लेते हुए ऐसे अन्य वैकल्पिक क्षेत्रों में नए सरकारी पदों का सृजन करें। ध्यान रहे कि नकारात्मक आर्थिक वृद्धि और बढ़ती महंगाई के बीच भीषण बेरोजगारी इस वायरस से भी बड़ा संकट धारण कर सकती है। इसका एक परिणाम 23 करोड़ की आबादी का गरीबी रेखा के नीचे जाना दिख रहा है।
(लेखक - विक्रांत निर्मला सिंह
संस्थापक एवं अध्यक्ष
फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल)