Diwali 2022: दीपों की पंक्ति से आलोकित, दीपावली क्यों और क्या है इस पर्व का संदेश

Diwali 2022: दिवाली, नहीं। दीपावली लिखें। यही सही है। जो दीप (दीपक) और आवली( पंक्ति) से मिलकर बना है । जिसका अर्थ है-दीपों की पंक्ति । दीप से दीपक शब्द की रचना होती है।

Report :  Yogesh Mishra
Update:2022-10-24 15:25 IST

आलोक में नहाया हुआ भारत (Pic: Social Media) 

Diwali 2022: दिवाली, नहीं। दीपावली लिखें। यही सही है। जो दीप (दीपक) और आवली( पंक्ति) से मिलकर बना है । जिसका अर्थ है-दीपों की पंक्ति । दीप से दीपक शब्द की रचना होती है । दिवाली शब्द का प्रयोग गलत है। क्योंकि उपयुक्त शब्द 'दीवाली' है । दिवाली का अर्थ है- जिस पट्टे/पट्टी को किसी यंत्र से खींचकर खराद सान आदि चलाये जाते है ,उसे दिवाली कहते है । इसका स्थानिक प्रयोग दिवारी है और 'दिपाली'-'दीपालि' भी । दीपावली का बिगड़ा हुआ रूप 'दीवाली' है दिवाली नहीं। विशुद्ध एवं उपयुक्त शब्द दीपावली है ।क्योंकि दीपावली का रिश्ता केवल रोशनी से नहीं है। इसका संबंध उजाले से है, प्रकाश से है, उजास से है। उस प्रकाश से जो दीपों की बाती से बनती है, निकलती है। अष्टावक्र से लेकर हंसोपनिषद, कठोपनिषद, मुंडोकपनिषद , यजुर्वेद, गीता, ऋग्वेद के किसी न किसी सूक्त में प्रकाश की लालसा है। रोशनी की नहीं। हर कार्यक्रम की शुरूआत में दीप प्रज्वलित कर हम प्रकाश फैलाते हैं। छांदोग्य उपनिषद में तो प्रकृति के सर्वोत्तम रूप को प्रकाश माना गया है। प्रकाश हमारे जीवन का हिस्सा है। सभी तारे व नक्षत्र प्रकाश हैं। सूर्य हमारे यहाँ प्लेनेट नहीं देवता हैं- प्रकाश के देवता। सविता प्रकाश दाता सूर्य हैं। हम चाँद को प्रकाश मानते हैं। तारे हमारे प्रकाश का अंश हैं। हमारे यहाँ दिव्य भव्य सब में प्रकाश है। आभा व प्रभा भी प्रकाशवाची हैं। हम सब चित्त में प्रकाश भरना चाहते हैं। सब के चित्त में प्रकाश भरना चाहते हैं।

तमस् हमारे जीवन का भाग नहीं है। क्योंकि तमस् और अंधकार हमारे जीवन में पल प्रतिबल घटते रहते हैं। हमने कहा है- तमसो माँ ज्योतिर्मय ।

अमावस तो हर महीने आती है। पर शरद पूर्णिमा के ठीक पंद्रह दिन बाद की अमावस्या अपने समूचे सघन तमस् के साथ गहन अंधकार लाती है। हमने इस अमावस्या को झकाझक प्रकाश से भर दिया। दीपमालिकाएँ लगा दीं। अवनि अंबर दीप जलाये। इसे दीपोत्सव कहा। वृहदारण्यक उपनिषद में प्रार्थना की- तमसो मा ज्योतिर्गमय।

यानी ज्योति की ओर बढ़ो। यहाँ तम और ज्योति दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। यहाँ क्रिया का प्रयोग न कर के लोट् लकार यानी आज्ञा वाचक क्रिया का प्रयोग किया गया है। यानी मानव तू अंधकार की ओर नहीं, प्रकाश की ओर चलो। दीपावली झूठ के तिमिर के विरुध्द सत्य के प्रकाश के आराधना का अवसर है। अंधकार से प्रकाश की ओर की मन की सनातनी इच्छा का उत्सव है, अनुष्ठान है। पुराणों में लिखा है-

साज्यं च वर्ति संयुक्तं वछिन्ना योजित मया

दीप गृहाण देवेश : त्रैलोक्य तिमिर पहम् ।

यानी हे ईष्टदेव हमारे द्वारा दिये गये शुद्ध घी और कपास की बाती से संयुक्त अग्नि के सहित इस दीपक को ग्रहण कीजिये। और तीनों। लोकों के अंधकार को आप दूर कीजिये। तीनों लोकों में पृथ्वी, आकाश और पाताल आते हैं। प्रात: अपराह्न और रात्रि आती है।

दीपावली का इतिहास रामायण से भी जुड़ता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम, माता-सीता और लक्ष्मण के वनवास से वापस आगमन के उपलक्ष्य में अयोध्या वासियों ने दीप जलाए थे, तभी से दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है। लेकिन आपको यह जानकर बहुत हैरानी होगी की अयोध्या में केवल 2 वर्ष ही दिपावली मनायी गई थी। यह पर्व नचिकेता और यम की कहानी से भी जुड़ता है। जो पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में लिखित है। कुछ दीपावली को विष्णु की बैंकुंठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते हैं। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध करके द्वारिका लौटे थे। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया। प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था। इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वन्तरि प्रकट हुए। जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को ज्ञान प्राप्त हुआ था।जैन समाज द्वारा दीपावली, महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाई जाती है। पर अन्य सम्प्रदायों से जैन दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है। सिखों के लिए भी दीपावली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था। 1619 में दीपावली के दिन सिखों के छठे गुरु हरगोविंद सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। सिख समुदाय इसे बंदी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है। स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद का निर्वाण दीपावली के दिन अजमेर के निकट हुआ था। दीपावली पर दीपों का रिश्ता शंकराचार्य से भी जुड़ा है। शंकराचार्य के साथ परकाया प्रवेश की घटना दीपावली को ही हुई थी। दीपावली का रिश्ता राजा बलि से भी जुड़ता है। केरल में लोकप्रिय शासक राजा बलि को राह दिखाने के लिए अनगिनत दीप जलाये जाते हैं।

7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सवः कहा। 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा। जिसमें घरों की पुताई की जाती थी। तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों को सजाया जाता था। पद्म पुराण और स्कंद पुराण में दीपावली का उल्लेख है। ये ग्रन्थ पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है।

दीपावली का पर्व हमें खुद जागृत हो कर अपने आसपास को भी जागृत करने का संदेश देता है। तभी तो कहा गया है- अप्प दीपो भव। यानी अपने दीपक आप बनें।

अंधेरा आदमी को डराता है। उजाला आश्वस्त करता है। इसीलिए हर आदमी उजाले की कामना करता है। उजाले का उत्सव मनाता है। पूरी सृष्टि में विराट जगमग है।

दीप ज्ञान विज्ञान की नई-नई शाखाओं का मार्ग प्रशस्त करने लगा। उजाले के चलते रात को दिन की तरह लेने की सुविधा मिली। हर आदमी ने अपने घर में नन्हें नन्हें सूरज टांग रखे हैं। जो बटन दबाते ही उग आते हैं। आदि काल से आज तक उजाले के प्रति मानव का आकर्षण कम नहीं हुआ। बढ़ा। वह उजाले को पूजता भी है। उत्सव भी मनाता है। उजाले से ही हमारा, हमारी पृथ्वी, हमारे प्राणियों व वनस्पतियों का अस्तित्व है। भारत शब्द जिस धातु से बना है, उसका अर्थ है - आलोक में नहाया हुआ। हमारे देश का एक नाम भारतवर्ष भी है।जिसका अर्थ है- भाषायां रतः स एवं भारत। भा का मतलब प्रकाश है। रत मतलब लगे रहना। उपनिषदों में ऋषि याज्ञवल्क्य ने जिस आत्म तत्व का व्याख्यान किया है। उसके स्वरूप की तुलना दीपक के लौ से की है। आत्मतत्व की जो मूर्ति मन में उभरती है। उसकी आकृति दीपक के लौ की तरह होती है। इसलिए यह सोचना की रोशनी से उजाला आ जायेगा , ग़लत होगा। रोशनी से अंधेरा छटेगा यह भी ग़लत है। रोशनी से केवल रास्ता दिखेगा। पथ प्रशस्त होगा। मंज़िल नहीं मिलेगी। अमावस का तिमिर नहीं दूर होगा। क्योंकि रोशनी तो बाज़ार से भी आ सकती है। रोशनी झालर, मोमबत्ती और झूमर से भी लाई जा सकती है। लेकिन हमें तो दीपक से उजाला फैलाना है। क्योंकि दीपक चिन्मयता का प्रतीक है।

दीपक की बाती को जलने के लिए बाती को तेल में डूबा होना चाहिए। साथ ही तेल के बाहर भी रहना चाहिए। यदि बाती तेल में पूरी डूब जाये तो वह प्रकाश नहीं दे सकती। जीवन भी दीपक के बाती के समान है। इसे संसार में रहते हुए निष्प्रभावित रहना होगा। पूरा डूब गये तो प्रकाश नहीं दे सकते । हमें भी प्रकाश देने के लिए पूरा नहीं डूबना होगा। दीपावली, आध्यात्मिक अन्धकार पर आन्तरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है। इसके लिए रोशनी नहीं, प्रकाश चाहिए। उजाला चाहिए। इसके लिए हमें दीप जलाना होगा। दीप और बाती बन जाना होगा।

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