(जयराम शुक्ल) लखनऊ: डाक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था- जब हम किसी का जिंदाबाद बोलते हैं तो उसका मुर्दाबाद करने का अधिकार स्वमेव मिल जाता है। डाक्टर लोहिया नेहरू युग में असहमति के प्रखर स्वर रहे हैं। स्वस्थ लोकतंत्र में असहमति का दर्जा सबसे महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह सत्ता को मर्यादित करता है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी संदर्भ में एक टिप्पणी की- लोकतंत्र में असहमति प्रेशरकुकर के सेफ्टी वाल्व की भाँति होती है, राज्य अगर इसे बाधित करेगा तो कुकर फट जाएगा। एक तरह से यह डाक्टर लोहिया के विचारों की न्यायिक मीमांसा ही है।
विधि आयोग ने भी परामर्श जारी किया है कि सरकार से नाखुश होना या असहमति व्यक्त करना लोकतंत्र में नागरिकों का अधिकार है। विरोध यदि हिंसक तरीके से राजसत्ता को बेदखल करने का है तभी वह राष्ट्रद्रोह के दायरे में माना जा सकता है। देशप्रेम व्यक्त करने के अपने-अपने तरीके हो सकते हैं, उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।
दूसरी ओर माओवादी संगठनों से जुड़कर प्रधानमंत्री की हत्या करने और सरकार पलटने के षडयंत्र में हाल ही में नामजद किये गए पाँच कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संबंध में देश का एक बौद्धिक वर्ग प्रचारित कर रहा है कि यह सत्ता से असहमत होने का परिणाम है। यह विचारों का दम घोटने की सत्ताप्रेरित कोशिश है।
रोमिला थापर, रामचंद्र गुहा, अरुणा, अरुंधती राय जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार इस घटना को आपातकाल से भी खतरनाक दौर मान रहे हैं। इनकी नजर में पुलिस सत्ता के इशारे पर ऐसा कर रही है। असहिष्णुता के नामपर अवार्ड लौटाने वाला समूह भी सोशलमीडिया में कुछ इसी तरह बहस चलाए हुए है। ऐसे सभी नामधारी बौद्धिकों की वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में प्रायः सभी जानते हैं, ज्यादा बताने की जरूरत नहीं।
इस सवाल को लेकर राष्ट्रीय मीडिया सदा की तरह दो फाँक में बटा है। जो खेमा प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश को गंभीर बताकर नामजद किए गए लोगों की पृष्ठभूमि उनके संगठनों के इतिहास और सबूतों की कड़ी के साथ इसे एक गंभीर मामला बता रहा है उसे दूसरा खेमा भक्त और बिका हुआ मीडिया घोषित कर रहा है।
एक तर्क और दिया जा रहा है कि जो लोग नामजद किए गए हैं वे काफी पढ़े लिखे, किताबों के लेखक, विदेशों की बौद्धिक संगोष्ठियों में भाषण देने वाले, करियर और कमाई को ठोकर मारकर गरीबों की आवाज उठाने वाले हैं। उनके घरों में किताबें मिली हैं गन और ग्रेनेड नहीं ये कैसे षड़यंत्रकारी हो सकते हैं?
राजनीतिक दलों और नेताओं ने खामोशी ओढ़ रखी है। अभिषेक मनु संघवी जैसे काँग्रेसी प्रवक्ता जरूर किंतु-परंतु कर रहे हैं। इनदिनों हर छोटे बड़े मसलों पर टिप्पणी करने को तैय्यार रहने वाले राहुल गांधी जी का भी इसपर कोई वक्तव्य पढ़ने सुनने को नहीं मिला। फिलहाल षड़यंत्र के लिए नामजद किए गए लोगों के पक्ष में कुछ सेलिब्रिटी लेखक, कलाकार, पीआईएल के सिद्धहस्त कुछ वकील ही सामने आए हैं।
भीमा-कोरेगांव की हिंसा जहाँ से इनके सूत्र निकले हैं की जाँच करने वाली पुलिस अपनी कार्रवाई पर दृढ़ है। वह इस बात को लेकर आश्वस्त है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या व तख्ता पलटने के षणयंत्र के सभी पुख्ता सबूत हैं, जिसके आधार पर वह यह साबित करने में सक्षम है कि जिन्हें नामजद किया गया है वे राष्ट्र के अपराधी हैं।
इस पूरे प्रकरण में कोई गंभीर विश्लेषण पढ़ने को नहीं मिला। घटना का ब्योरा देने वाले लेख व सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाऐं ही ज्यादा सामने आई हैं। ऐसी कई बुनियादी बातें हैं जो मेरी तरह आपके भी दिल-ओ- दिमाग में उमड़ घुमड़ रही होंगी। आइए इस पर बुद्धि विवेक के हिसाब से इस पर विमर्श करें।
बात असहमति से शुरू हुई थी। लोहिया नेहरू की नीतियों और नेतृत्व से असहमत थे। संसद में भी सड़क पर भी। गैर काँग्रेसवाद का नारा दिया। विपक्षी दलों को गोलबंद करके काँग्रेस के कई प्रांतीय सरकारों को अपदस्थ किया। फिर भी वे संसद में भी और सड़क पर भी पूजित व सम्मानित रहे। इंदिरा गांधी की रीतिनीति से असहमत जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का बिगुल फूँका। इंदिरा गांधी को असहमति के ये स्वर नहीं भाए लिहाजा आपातकाल लगाकर कुचल दिया। जिनको विरोधी समझा उन्हें जेल में डाल दिया। नेहरू ने असहमति का सम्मान किया तो उनकी बेटी ने असहमति का गला दबा दिया। ये दो वाकये देश ने देखे।
वैचारिक असहमति के हिंसक उदाहरण भी हैं। महात्मा गांधी से वैचारिक असहमति होने की वजह से नाथूराम गोड़से ने उनकी गोलीमारकर हत्या की। इंदिरागांधी की हत्या वैचारिक असहमति नहीं अपितु धर्म और आस्था से जुड़ी रंजिश का परिणाम थी। राजीव गाँधी की हत्या का मामला अलग है, वह विदेश नीति से जुड़ा पेचीदा मसला था। लेकिन वह भी असहमति का हिंसक परिणाम मान सकते हैं।
असहमति चाहे लोहिया की रही हो या जेपी की वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर की असहमति थी, राष्ट्र के खिलाफ नहीं। सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग लोकतंत्र में जिस असहमति की बात करता है वह लोहिया और जेपी की तरह असहमति की बात है। चुनाव तो असहमति व्यक्त करने का सबसे बड़ा प्लेटफार्म है। पार्टियां अपने विचार, कार्यक्रम और घोषणा पत्रों के साथ जनता के बीच जाती हैं और तदनुसार उन्हें जनादेश मिलता है।
ताजा मामले में असहमति की वैसी स्थिति नहीं है जैसी कि कतिपय बौद्धिक लोगों द्वारा प्रचारित की जा रही हैं और इसे आपातकाल से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया जा रहा हैं। पुलिस के सबूतों-तथ्यों के लिहाज से ताजा मामला राष्ट्र के खिलाफ द्रोह का आपराधिक षणयंत्र का है। यह षणयंत्र ऐसी ताकतों की ओर से है जिनका भारत के संविधान और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास नहीं है।
सभी नमजद किए गए एक्टविस्टों पर आरोप है कि ये माओवादी संगठनों से जुड़े हैं। सुधा भारद्वाज, गौतम नौलखा को छोड़कर बाकी तीनों, वरवर राव, वेरनोन गोल्सान्विस और अरुण फरेरा घोषित रूप से माओवादी हैं ये उनकी कोर कमेटी या फ्रंटल अर्गनाइजेशन के पदाधिकारी रहे हैं या फिर हैं। कांग्रेस के जमाने से ही ये संदेही रहे हैं और कई बार जेल जा चुके हैं। इनके साथी दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीआर साँईबाबा को आजीवन कारावास की सजा मिली है।
गौतम नवलखा माओवादियों की कश्मीर की कड़ी के रूप में काम करते हैं, पुलिस ऐसा सबूत होना बताती है। नवलखा अपने लेखों में व सार्वजनिक रूप से कश्मीर की आजादी और जनमत संग्रह की पैरोकारी करते रहे हैं। ..जेएनयू में ..हम क्या माँगें आजादी, लेके रहेंगे आजादी.. भारत तेरे टुकड़े होंगे.. जैसे नारे लगाने वालों के पीछे के वैचारिक चेहरे हैं। सुधा भारद्वाज छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी के संगठन को आगे बढ़ा रही हैं। इन्हें इसलिए नामजद किया गया क्योंकि माओवादियों के संचार व्यवहार में इनके नाम का जिक्र है जैसा कि पुलिस का कहना है।
कतिपय बौद्धिक इनपर की जा रही कार्रवाई को सिरे से खारिज करते हुए अभिव्यक्ति, असहमति और वैचारिक दमन का मामला बता रहे हैं। इन्हें पुलिस पर विश्वास नहीं। इन्हें देश के न्यायतंत्र पर भी शायद विश्वास नहीं। इन्हें देश के उस सिस्टम पर ही विश्वास नहीं जिसे चलाने का जनादेश मिला हुआ है क्योंकि कि उसे चलाने वाले इनके वैचारिक या भौतिक विरोधी हैं।
इन्हें याद होना चाहिए कि महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की हत्याओं के संदेह में गिरफ्तार किए गए दर्जनों नहीं सैकड़ों लोगों को अदालत ने सबूत के आभाव में छोड़ा। हत्या या हत्या के षड़यन्त्र जैसे मामलों में अनगिनत संदेही जेल में होंगे उनके ट्रायल चल रहे होंगे जो बेगुनाह होंगे वे छूटेंगे। और उन बेगुनाहों को कानून यह भी अधिकार देता है कि उस पुलिस को अदालत के कठघरे में खड़ा करे। गुजरात के मामले कई सुपरकाँप अदालत से गंभीर सजा पा भी चुके हैं और भुगत भी चुके हैं। इसलिए मात्र सहानुभूति के आधार पर अपने तईं यह ऐलान कर देना कि यह दोषी हैं ही नहीं न्यायतंत्र की तौहीन है। कानून को अपना काम करने देना चाहिए।
यहां जिस माओवाद की बात की जा रही वह सरकार की नीति-रीति से नहीं इस राष्ट्र के वजूद से ही असहमत है। उसे भारत के संविधान यहां की लोकतांत्रिक संस्थाओं विश्वास नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह ने कहा था कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माओवाद है। यूपीए काल में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम का दृढ़ मत था कि माओवादियों का कृत्य देश के खिलाफ युद्ध है, वाँर अगेंस्ट नेशन। माओवादियों का सिद्धांत है..सत्ता बंदूक की नली से होकर निकलती है। राजनीति हिंसा रहित युद्ध है और युद्घ रक्तचाप से सनी राजनीति। वे वैलेट नहीं बुलेट के जरिए देश पर कब्जा करने के मिशन पर हैं।
मीडिया एक और बात को लेकर घालमेल कर देता है, माओवादियों को नक्सली लिखकर। यह समझना चाहिए कि नक्सली और माओवादी दोनों अलग हैं। इनकी पैदाइश भी अलग-अलग। नक्सलवाद 1967 में पश्चिम बंगाल की जमीदार परस्त काँग्रेस की सिद्धार्थशंकर रे सरकार के दमन के खिलाफ स्वस्फूर्त खड़ा हुआ था। यह आंदोलन खेत और खलिहान से उठा। इसके आदि सेनानी हँसिया, दराँती, कुल्हाड़ी लिए बँटाईदार किसान, मजदूर थे जिंन्होंने जमीदारों और उनकी पालतू पुलिस से मोर्चा लिया। नक्सलबाड़ी के इस किसान मजदूर आंदोलन को कानू सांन्याल, चारू मजूमदार और जंगल संथाल ने नेतृत्व की दिशा दी।
कानू सांन्याल भूमिसुधार और शोषणमुक्त व्यवस्था के लिए ऐसे आंदोलन को अपरिहार्य मानते थे। इसे साम्यवाद का वैचारिक जामा पहनाया चारू मजूमदार ने। आत्महत्या(2006) करने के एक साल पहले बीबीसी से बात करते हुए कानू सांन्याल को इस बात का अफसोस था कि यह आंदोलन भटक गया। इसमें न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति के लिए हथियार बंद गिरोह शामिल हो गए हैं। शायद इसी कुंठा में उन्होंने अपनी जान दी।
नक्सलबाड़ी की वह क्राँति अग्नि की तरह पवित्र थी। इसी से निकले सबक की वजह से वाममोर्चे ने प.बंगाल में 30 साल शासन किया। यही वह दौर था जब नक्सलवाद से जुड़े वे लोग माओवादियों के संगठनों से जा मिले, उनके मुँह में खून लग चुका था। नक्सल आंदोलन राष्ट्र के खिलाफ नहीं था, वह व्यवस्था जनित विषमता के खिलाफ था। इसलिए नक्सल आंदोलन से जुड़ा एक बड़ा तबका चुनाव की राजनीति में भी उतरा और आज भी सक्रिय है। माओवादी राष्ट्रद्रोही हैं। इस दृष्टि से इनके संगठनों से जुड़े और इनसे सहानूभूति रखने वाले भी उसी श्रेणी में आते हैं।
यह कहना भी सही नहीं हैं कि नामजद किए गए लोग काफी पढ़े लिखे लोग हैं इसलिए अपराधी नहीं हो सकते। इन्हें मालूम होना चाहिए कि ओसामा बिन लादेन मैच्युसिएट यूनिवर्सिटी का स्कालर था। नाथूराम गोड़से भी कोई सड़क छाप अपराधी नहीं था उसकी भी अपनी एक वैचारिक पृष्ठभूमि थी वह भी कई किताबों का लेखक था। राजीव गांधी के हत्यारे और षड़यंत्रकारी भी अनपढ़ गँवार नहीं थे। अच्छे शैक्षणिक संस्थानों से निकले स्कालर थे।
शहरों और महानगरों में माओवादियों के लिए काम करने वाले भी आला दर्जे के विचारक, लेखक एक्टविस्ट हैं। कश्मीर के आतंकवाद छेड़ने वालों में पढ़े लिखे ज्यादा हैं। संसद पर हमला करने वालों में शामिल अफजल गुरू भी यूनिवर्सिटी का एक रिसर्च स्कालर था। इसलिए यह दलील देना कि ये पढ़े लिखे वैचारिक लोग हत्या के षड़यन्त्र की बात सोच भी नहीं सकते।
पुलिस के हाथ तो सीधे सीधे वे दस्तावेज लगे हैं जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ राजीव गांधी जैसा प्रकरण दोहराने की बात है। हथियार और असलहों के इंतजाम की बात की गई है। आँख मूदकर पुलिस हर कहीं पुलिस को गलत कहना ठीक नहीं। वे भी एक नागरिक के नाते राष्ट्र के प्रति वैसे ही जवाबदेह हैं जैसे कि आप। पूरे सिस्टम में कुछ लोग गलत हो सकते हैं। ऐसे लोगों को भी अदालत देखती है। गुजरात के सुपरकाँप वंजारा को अदालत ने ही सजा सुनाई और सजा काटने के लिए जेल भेजा। इसलिए अपने तंत्र पर भरोसा न करने वाले लोग स्वमेव ही माओवादियों के पाले में खुद को खड़ा कर रहे हैं।
और अंत में- आप मोदी की रीति-नीति के विरोधी हो सकते हैं, आप मोदी से नफरत भी कर सकते हैं यह आपका विवेकाधिकार है। लेकिन यदि आपकी सहानुभूति उन माओवादियों व उनके वैचारिक संगी साथियों के साथ है जिन्हें इस राष्ट्र से नफरत है, जो संविधान, लोकतंत्र को खाक में मिला देने की ख्वाहिश के साथ राष्ट्र के खिलाफ युद्घ छेड़े हुए हैं, तो माफ करिए फिर यह कहने में कोई अफसोस नहीं कि आप भी कहीं न कहीं उन्हीं की जमात से हैं।