Gandhi's First Act of Civil Disobedience: कब बने सत्याग्रही गांधीजी !!

गांधीजी के भारत आने के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संविधान के उद्देश्यों को परिभाषित किया जा चुका था। आजादी हासिल करने के लिये ''शांतिपूर्ण और वैध उपायों'' का ही प्रयोग किया।

Written By :  K Vikram Rao
Update:2022-06-07 17:42 IST

K Vikram Rao: कब बने सत्याग्रही गांधीजी !!

Gandhi's First Act of Civil Disobedience: आज ही उस सर्द रात को 130 वर्ष पूर्व (7 जून 1893) पोरबंदर से करीब बीस हजार किलोमीटर दूर बैरिस्टर एमके गांधी को गोरे अफ्रीकी रेलकर्मी पीटरमारिट्ज स्टेशन (White African Railroad Pietermaritz Station) के प्लेटफार्म पर सामान सहित न फेंक देते तो? सत्याग्रह शब्द कब जन्मता ? महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) क्या होते? भारत को आजादी में कितना समय लग जाता? यह युगांतकारी घटना सर्वविदित है। स्कॉटिश गद्यकार थामस कार्लाइल के कथन को याद कर लें कि ''वीरों का जीवन चरित ही इतिहास है।'' इसलिए बापू युगप्रवर्तक बन गये। अश्वेतों का नूतन इतिहास रचने लगे। गुलाम भारत के अवतार पुरुष बने। हां अवतार पुरुष लौकिक शरीर में।

गांधीजी के भारत आने के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) के संविधान के उद्देश्यों को परिभाषित किया जा चुका था। आजादी हासिल करने के लिये ''शांतिपूर्ण और वैध उपायों'' का ही प्रयोग किया जाए। गांधी जी ने संशोधित किया : ''सत्यपूर्ण तथा अहिंसक'' कर दिया जाये। बापू कांग्रेस से अलग हो गये थे, जब सम्मेलन ने यह संशोधन (1934) नहीं माना। जवाहरलाल नेहरु (Jawaharlal Nehru) भी प्रारम्भ में हिचकिचाते थे। फिर कांग्रेसी समझ गये कि अंग्रेज चालाक है। सुगमता से न जायेंगे, न हटेंगे। कारण था। ब्रिटिश नीति और शासन ने बड़ी संख्या में भारतीयों को अपना ऐच्छिक दास बना लिया था। पुलिस में, सेना में, सभी वेतन भोगी।

30 करोड़ भारतीयों पर बीस हजार साम्राज्यवादी सरकारी कर्मचारी करते थे शासन

तीस करोड़ भारतीयों पर बीस हजार साम्राज्यवादी सरकारी कर्मचारी शासन करते थे। तभी इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) के रुप में महंगे आज्ञाकारी गुलाम अफसर चयनित हो गये थे। इनमें ब्रजकुमार नेहरु, रतन कुमार नेहरु, इत्यादि थे। मगर जवाहरलाल नेहरु जेल में थे। अर्थात ये कश्मीरी पंडित ब्रिटिश सरकार में भी थे। बापू ने ''भारत छोड़ो'' (Bharat Chodo) सत्याग्रह में नारा दिया कि ब्रिटिश सेना को ''ना एक भाई, न एक पाई।'' मगर बहुत बड़ी तादाद में सिख, जाट और राजपूत आदि फौज में भर्ती हो गये थे। पुलिस में भी हजारों थे। अपने ही भारतीयों को त्रस्त करते रहे। जुल्म ढाते थे। कुछ स्वाधीनता सेनानी भी थे, पर ब्रिटिश राज के झण्डाबरदार अधिक थे।

गांधीवादी शस्त्र इमर्जेंसी में काफी कारगर हुई साबित

शायद यही कारण था कि स्वाधीन भारत में नागरिक अधिकारों के लिये सत्याग्रह को परिष्कृत कर सिविल नाफरमानी कहना पड़ा था। मगर यह गांधीवादी शस्त्र इमर्जेंसी (1975—77) में काफी कारगर साबित हुयी। वह दौर दूसरी आजादी की लड़ाई का था। तब प्रश्न उठा था कि क्या आजाद भारत में सत्याग्रह वैध है? सत्ता से जवाब मिला कि ''नहीं''।

मगर जहां संख्यासुर के दम पर सत्तासीन दल निर्वाचित सदनों को क्लीव बना दे, असहमति को दबा दे, आम जन पर सितम ढायें, तो मुकाबला कैसे हो? इसीलिए लोहिया ने गांधीवादी सत्याग्रह (Gandhian Satyagraha) को सिविल नाफरमानी वाला नया जामा पहना कर एक कारगर अस्त्र को ढाला था। इसमें वोट के साथ जेल भी जोड़ दिया था। उनका विख्यात सूत्र था" जिन्दा कौमें पांच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।'' यही सिद्धांत लिआन ट्राट्स्की की शाश्वत क्रान्ति और माओ जेडोंग के अनवरत संघर्ष के रूप में भी प्रचारित हुई थीं। लोहिया ने इतिहास में प्रतिरोध के अभियान की शुरूआत को भक्त प्रहलाद और यूनान के सुकरात, फिर अमरीका के हेनरी डेविड थोरो में देखी थी। अफ्रीका में बापू ने उसे देसी आकार दिया था। लोहिया की मान्यता भी थी कि प्रतिरोध की भावना सदैव मानव हृतंत्री को झकझोरती रहती है, ताकि सत्ता का दम और दंभ आत्मबल को पंगु न बना दे।

स्वाधीन लोकतांत्रिक भारत में सत्याग्रह के औचित्य पर अलग अलग राय व्यक्त होती रही है। जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही निरूपित कर दिया था कि स्वाधीन भारत में सत्याग्रह अब प्रसंगहीन हो गया है। उनका बयान आया था जब डॉ. राममनोहर लोहिया दिल्ली (Dr. Ram Manohar Lohia Delhi) में नेपाली दूतावास के समक्ष सत्याग्रह करते (25 मई 1949) गिरफ्तार हुए थे। नेपाल के वंशानुगत प्रधानमंत्री राणा परिवार (Nepal Hereditary Prime Minister Rana Family) वाले नेपाल नरेश को कठपुतली बनाकर प्रजा का दमन कर रहे थें। ब्रिटिश और पुर्तगाली जेलों में सालों कैद रहने वाले लोहिया को विश्वास था कि आजाद भारत में उन्हें फिर इस मानवकृत नर्क में नहीं जाना पड़ेगा।

मगर सत्याग्रही रुपी प्रतिरोध की कोख से जन्मा राष्ट्र उसी कोख को लात मार रहा था। अतः आजादी के प्रारंभिक वर्षों में ही यह सवाल उठ गया था कि सत्ता का विरोध और सार्वजनिक प्रदर्शन तथा सत्याग्रह करना क्या लोकतंत्र की पहचान बनें रहेंगे अथवा मिटा दिये जाएंगे? सत्ता सुख लंबी अवधी तक भोगने वाले कांग्रेसियों को विपक्ष में (1977) आ जाने के बाद ही एहसास हुआ कि प्रतिरोध एक जनपक्षधर प्रवृत्ति है। इसे संवारना चाहिए। यह अवधारणा वर्षों में खासकर उभरी है, व्यापी हैं। अत: अब सिविल नाफरमानी ही सत्याग्रह का नवीनीकृत माध्यम है। मानेंगे नहीं, मारेंगे नहीं ही बुनियादी सिद्धांत हे। जनतंत्र को सबल बनाने हेतु यह शाश्वत रहेगा जबतक न्यायप्रियता मानव स्वभाव नहीं बन जाता। बापू को यही निष्ठावान श्रद्धांजलि होगी।

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