गंगा की स्मृतिछाया में सिर्फ लहलहाते खेत, माल से लदे जहाज ही नहीं बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक, अकबर व हर्ष जैसे सम्राटों के पराक्रम तथा तुलसी, कबीर और गुरुनानक की गुरुवाणी सब एक साथ जीवंत हो उठते हैं। जाहिर है कि गंगा किसी एक जाति, धर्म या वर्ग की नहीं, बल्कि पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान है। इतिहास गवाह है कि जिस देश की संस्कृति और सभ्यता ने अपनी अस्मिता के प्रतीकों को याद नहीं रखा, वह देश, संस्कृति और सभ्यताएं मिट गयीं। क्या भारत इतने बड़े आघात के लिए तैयार है? यदि नहीं तो क्या करें?
ऐसा नहीं है कि बिगाड़ के इस पूरे दौर में गंगा को बचाने के प्रयास नहीं हुए। 1913 में भागीरथी को बचाने के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय ने एक आंदोलन शुरूकिया था। मालवीय जी हरिद्वार के घाटों पर स्नानार्थियों के लिए पर्याप्त जल की आपूर्ति सुनिश्चित कराना चाहते थे। वह इस बात को लेकर भी चिंतित थे कि हरिद्वार के घाटों को जल आपूर्ति करने वाली धारा को यदि नहर के नाम से पुकारा गया, तो गंगा के प्रति श्रद्धा भाव रखने वालों की प्रतिक्रिया विपरीत हो सकती है। मालवीय जी की दृष्टि गंगा के प्रति लोगों की आस्था और उसके विज्ञान को ठीक से समझती थी। इसीलिए उनका आंदोलन पर भी चढ़ा और अंग्रेजी हुकूमत गंगा संरक्षण समझौता करने को मजबूर भी हुई। यह मालवीय जी की दूरदृष्टि का आभास और भारत के लिए गंगा का महत्व ही है जिसने कभी पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी उस सत्याग्रह में शामिल होने के लिए मजबूर किया, जिसे गंगा की पवित्रता और श्रद्धालु स्नानार्थियों की भावना की दृष्टि से पंडित मदनमोहन मालवीय ने आहूत किया था।
उल्लेखनीय है कि 1914 में सत्याग्रह के दौरान सुरक्षा की दृष्टि से कुंभ मेले में संगम पर स्नान करने को लेकर पुलिस ने प्रतिबंध लगा दिया था। उस दिन जब पहरा सख्त था, मालवीय जी जैसा वृद्ध व्यक्ति अचानक भीड़ में घुस गया और प्रतिबंध तोडक़र स्नान के लिए गंगा में कूद पड़ा। नेहरू अचंभित हुए। तब पंडित नेहरू ने भी उस दिन गंगा में स्नान किया और राष्टï्रीय ध्वज फहराया। इतना ही नहीं,नेहरू जी ने बाकायदा इस घटना का अपनी लेखनी से उल्लेख भी किया। सोचिए! वह कैसा अद्भुत दृश्य रहा होगा जब धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से एकदम भिन्न दो शिखर पुरुष भारत का तिरंगा थामे गंगा की धारा में खड़े हुए होंगे। अपनी पार्टी, अपने वाद, अपने धर्म, अपनी जाति व वर्ग छोडक़र गंगा को इसका गौरव लौटाने के लिए एकजुट होने का यह महान विचार आज कहां दिखाई देता है? कहीं नहीं। इसीलिए कालांतर में हमने विकास के नाम पर कई सीढिय़ां चढ़ीं, कई सपनों को सच किया, राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी पद और सत्ता हासिल की, लेकिन भारत आज तक अपने पुराने गौरव को हासिल नहीं कर सका है, जिसके कारण कभी भारत दुनिया का आध्यात्मिक गुरु कहा गया।
जब सभी को सिर्फ अपने झंडे-डंडे की चिंता हो तो राष्टï्र के ध्वज की चिंता कौन करेगा? नदियों को उनका खोया गौरव लौटाएगा? 1985-86 में एक और कोशिश हुई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा में प्रदूषण निवारण के लक्ष्य के साथ वाराणसी में गंगा कार्य योजना का शुभारंभ किया था। उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि यह कार्ययोजना महज पीडब्ल्यूडी की कार्ययोजना न होकर जन-जन की कार्ययोजना बनेगी, लेकिन गंगा कार्ययोजना के भावी कर्णधारों ने ऐसा नहीं होने दिया। गंगा कार्ययोजना सिर्फ कुछ शहरों को प्रदूषण की दृष्टि से चिन्हित करने, ढांचा बनाने, बजट बढ़ाने और प्रदूषण बढ़ाने वाली ही साबित हुई। इसमें जनभागीदारी कभी नहीं हो सकी। इसका कारण यह कि जनता ने कभी गंगा कार्ययोजना को अपना माना ही नहीं। माने भी कैसे? जिस गंगा को गंगा समाज अपना मानता था, उसे तो अंग्रेजी शासन ने ही समाज से छीनकर नहर और बांध निर्माण के इंजीनियरों- ठेकेदारों को सौंप दिया था। आजाद भारत की सरकारों ने भी इसी बोध को आगे बढ़ाया।
स्पष्ट है कि जब तक गंगा राज-समाज और संत तीनों की बनी रही तब तक गंगा सही मायने में गंगा थी। बाद में हर कोशिश बेकार हुई। गंगा को यदि सचमुच पुनर्जीवित करना है तो उसे पुन: समाज के हाथों सौंपना ही होगा। राज-समाज और संत तीनों को मिलकर गंगा के संरक्षण में अपने दायित्व की तलाश व उसके निर्वाह के लिए व्यवस्था और नीति बनानी होगी। कुंभ के मूल अभिप्राय सिद्धांतों की ओर वापस लौटे बगैर हासिल होने वाला नहीं। यह एक पक्के संकल्प के साथ ही संभव है। विकल्प तलाशने वाले गंगा की रक्षा नहीं कर सकते। एक बड़ी आवाज प्रो.जी.डी.अग्रवाल ने उठाई। उन्होंने 2007 में उत्तरकाशी से यह काम शुरू किया और हरिद्वार में आमरण अनशन पर बैठे हैं। सरकार ने अपने पुलिस बल से उन्हें जबरदस्ती उठवाया। लेकिन उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने फटकार लगाते हुए मुख्य सचिव से समस्या का समाधान निकालने को कहा। उत्तराखंड सरकार ने उच्च न्यायालय की अवमानना करके अभी तक समाधान निकालने की कोई तैयारी नहीं की। प्रो जीडी अग्रवाल का आमरण अनशन जारी है। 11 जुलाई को भारत भर से आए गंगा वैज्ञानिकों,गंगा प्रेमियों एवं गंगा योद्धाओं ने प्रार्थना की कि प्रधानमंत्री जल्द से जल्द प्रो जी डी अग्रवाल का प्राण बचाने के लिए पहल करें, लेकिन अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हुई तो उत्तराखंड के वकीलों ने तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं, किसानों सबने मिलकर गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए हरिद्वार से दिल्ली तक मार्च शुरू करने का तय किया। अब यह गंगा सत्याग्रह पूरे भारत भर में फैल रहा है।
गंगा में एक विलक्षण प्रदूषणा नाशिनी शक्ति है। 1975-77 में कानपुर के डॉक्टर डीएस भार्गव ने अपनी पीएचडी में पाया कि गंगाजल हरिद्वार में जैविक प्रदूषण (बीओडी) को नष्ट कर देता है। विशेष टिहरी बांध के ऊपर गंगाजल में विशेष कोलाइटिस नाशक क्षमता थी। यह सब गाद के साथ बांध के पीछे बैठ गए और नीचे कॉलिफोर्म नाशक क्षमता शून्य बन गई। 2016-17 के आईएमबीटी चंडीगढ़ सीएसआईआर में शोध में डीएनए विश्लेषण से विश्व के अनुपम तत्व पाए गए जो बीसों रोगों के रोगाणुओं को नष्ट कराने में सक्षम है। क्या फिर भी हम गंगा जी या गंगाजल को सामान्य जल की तरह देखने के अधिकारी हैं? गंगाजल दुनिया की सब नदियों से उत्तम जल है। इसे विशिष्ट तरह से प्रबंधन करने की जरूरत है। इसीलिए गंगा के लिए एक विशिष्ट कानून की आवश्यकता है। हम प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की मांगों के अनुसार गंगा संरक्षण प्रबंधन कानून बनाएं। पहली सरकार ने भागीरथी पर आधे से अधिक निर्मित लुहारी नागपाला, पलामनेरी तथा भैरों घाटी का निर्माण रोक कर हमेशा के लिए रद्द कर दिया था। गंगा की अन्य धाराओं पर प्रस्तावित 250 बांधों पर रोक लगा दी थी। गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक भागीरथी नदी को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित करके भागीरथी की अविरलता निर्मलता सुनिश्चित की थी। उसी प्रकार मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर नदी आदि गंगा की उपधाराओं पर बन रहे बांधों को रद्द कर दें। नए प्रस्तावित बांधों को बनने से रोक दें। गंगा के जल ग्रहण क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र घोषित कराके गंगा भक्त गंगा के हित में काम करने की शपथ गंगा में खड़े होकर लें। गंगा भक्तों की गंगा परिषद का गठन करें। प्रस्तावित अधिनियम ड्राफ्ट 2012 पर तुरंत संसद द्वारा चर्चा कराकर पास कराएं।