लो आया -आया हिंदी दिवस फिर एक बार

Hindi Diwas 2024: अब हिंदी दिवस आते ही हिंदी का प्रयोग करने का ढोल पीटा जाता है, औपचारिकताएं की जाती हैं पर उत्साह बिल्कुल भी नहीं होता है।

Written By :  Anshu Sarda Anvi
Update: 2024-09-08 12:29 GMT

लो आया -आया हिंदी दिवस फिर एक बार: Photo- Newstrack

Hindi Diwas 2024: अपने शैक्षणिक जीवन के वे दिन याद हैं, जब माध्यमिक कक्षा तक भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान तथा पोस्ट ग्रेजुएशन तक वाणिज्य विषय की पढ़ाई की किताबें हिंदी में हुआ करती थीं। जिनमें मुख्य तकनीकी शब्दों का साथ-साथ में अंग्रेजी शब्द भी दिया रहता था पर पूरी पढ़ाई हिंदी माध्यम से होती थी। लेकिन अब विद्यार्थी भी विद्यालयी शिक्षा के बाद हिंदी से रिश्ता तोड़ लेते हैं। अब हिंदी माध्यम विद्यालयों में पढ़ना-पढ़ाना स्तरीय नहीं माना जाता है और तो और हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी अब हिंदी ढूंढने से भी नहीं मिला करती है। अब समय परिवर्तित हो चुका है। अब हिंदी दिवस आते ही हिंदी का प्रयोग करने का ढोल पीटा जाता है, औपचारिकताएं की जाती हैं पर उत्साह बिल्कुल भी नहीं होता है। हिंदी से जुड़े लोग धूल झाड़ कर सज- संवरकर इंतजार करते हैं कि किसी कार्यक्रम में उनका भी बुलावा आ जाए और उन पर भी हिंदी प्रेमी होने का ठप्पा लग जाए।

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हिंदी क्यों बन गई है मजबूरी

हमारे देश में शिक्षा में हिंदी विषय आज भी मेजर विषय न होकर माइनर विषय है जो कि उसके बोलने वालों की संख्या पर नहीं बल्कि पढ़ने वालों की संख्या पर निर्भर करता है, जिसे भी विद्यार्थी मजबूरी में पढ़ते हैं। यह एक चुभता सवाल है जिस पर अवश्य बात होनी चाहिए कि आने वाली पीढ़ी हिंदी लिखने- पढ़ने के प्रति इतने उदासीन क्यों हैं? हिंदी जानने वाले हम सभी हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखते हैं। पता नहीं समझ ही नहीं पड़ता है कि हिंदी की लिपि रोमन कब से हो गई है और अगर हिंदी देवनागरी में भी लिखी जाती है तो उसमें अंग्रेजी के शब्द इतने अधिक होते हैं कि यह सोचना पड़ता है कि देवनागरी में कब से अंग्रेजी लिखी जाने लगी है।

क्या हम हिंदी लेखन में अपने होने वाली गलतियों से डरते हैं? भाषाओं का मिला-जुला रूप बुरा नहीं होता है क्योंकि विभिन्न नदियों के मिलने से ही सागर बनता है। लेकिन यह तब तक ही ठीक है जब तक वह एक दूसरे के विस्तार में मदद करें, न कि बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खा जाने का उपक्रम बन जाए। हिंदी भाषा की उदारता को महत्व देना अलग बात है पर उदार -उदार करते-करते हिंदी की अपनी वर्णमाला को खत्म कर देना दूसरी बात ।

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चुटकुले और रील्स ने हिंदी को पहुंचाया नुकसान

क्या हिंदी भाषा की क्लिष्टता इसके विकास में बाधक है, जो इसके जैसी समृद्ध भाषा को खत्म कर रही है? हिंदी के क्लिष्ट अनुवादों का मजाक करने वाले चुटकुले और रील्स ने भी हिंदी की साख को बहुत बड़ा धक्का पहुंचाया है। हालांकि अब हिंदी उतने कठिन मानकों का प्रयोग भी नहीं करती है जितना यह अपने मूल स्वरूप में होती थी। चंद्रबिंदु, नुक्ता, हलंत तो हम पहले ही छोड़ चुके हैं, जिसके माध्यम से अब हिंदी प्रौद्योगिकी की दौड़ में शामिल भी हो रही है।

कहा जाता है कि हिंदी के 7:30 लाख से भी अधिक की शब्दावली है पर हमारी जानकारी मात्र कुछ हजार शब्दों तक ही सीमित है। हिंदी के उन शब्दों में उन क्षेत्रीय और देशज भाषाओं के शब्द भी अवश्य ही शामिल होंगे जो कि खड़ी बोली से मिलते- जुलते हैं। सच तो यह है कि अब हिंदी में हिंदी बची ही कितनी है ? जब अपने मित्रों को सामान्य हिंदी में लिखा हुआ अपना ही कोई लेख पढ़ने देती हूं तो वे उसे लाइक तो कर देते हैं पर उन्हें उसके शब्दों के अर्थ ही नहीं पता होते हैं क्योंकि अब हमारा दृश्य- श्रव्य सभी माध्यम अंग्रेजीदा हो चुका है और पढ़ता तो आजकल कोई है ही नहीं।


इन शख्सियतों ने किया हिंदी का सम्मान

फिल्मी दुनिया में भी पंकज त्रिपाठी, आशुतोष राणा, मनोज बाजपेई, अमिताभ बच्चन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अक्षय कुमार जैसे अभिनेता हिंदी में अपनी स्क्रिप्ट पढ़ते हैं और चाणक्य धारावाहिक को हम कैसे भूल सकते हैं जिसकी स्क्रिप्ट डॉक्टर चंद्र प्रकाश द्विवेदी द्वारा इतनी अच्छी हिंदी में लिखी गई।


देश के कुछ राजनेता जैसे स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई , स्वर्गीय सुषमा स्वराज आदि विदेशों में भी हिंदी की अच्छी धाक रखते थे। हिंदी साहित्य में कितनी हिंदी है, इससे बड़ा प्रश्न यह है कि अब उसके पाठक कितने बचे हैं और जो हैं वह मूलत: अंग्रेजी भाषा के प्रशंसक हैं। इसका कारण हिंदी के बौद्धिक वर्ग को ही ढूंढना पड़ेगा।


हिंदी भाषा के विकास के लिए आवश्यकता है उसके सही प्रयोग की तभी हम इसे खत्म होने से बचा पाएंगे अन्यथा हिंदी सिर्फ हिंदी दिवस 14 सितंबर पर ही याद आएगी।

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