Republic Day 2025: गणतंत्र के पिछले 75 वर्षों का हासिल कल्पना और यथार्थ
Republic Day 2025: देश के अलग-अलग हिस्सों से आई इन महिलाओं ने पितृसत्तात्मक बंधन और स्त्रियों को जकड़ने वाली सामाजिक रीति-रिवाजों को चुनौती दी थी। आज़ादी के आंदोलन में इन सबका एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक योगदान था।;
Republic Day 2025: आज देश का संविधान लागू हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। देश अपना 76वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है हमारे देश भारत का। 75 वर्षो का इस संविधान के साथ देश का ही सफर कैसा रहा, यह आज के समय का एक बहुत बड़ा विचारणीय प्रश्न है। पूरे संविधान में इतने सालों में 106 के लगभग बदलाव किए जा चुके हैं। हमारा संविधान गणतांत्रिक देश भारत के हर नागरिक को उसके मूल अधिकार, स्वतंत्र, शिक्षा, अभिव्यक्ति की आजादी और समानता का अधिकार देता है। देश का संविधान बनाने वाली सभा के 299 सदस्यों में से मात्र 15 महिलाएं थीं।
देश के अलग-अलग हिस्सों से आई इन महिलाओं ने पितृसत्तात्मक बंधन और स्त्रियों को जकड़ने वाली सामाजिक रीति-रिवाजों को चुनौती दी थी। आज़ादी के आंदोलन में इन सबका एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक योगदान था। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि इस संविधान के द्वारा 75 वर्षों में क्या हासिल हुआ? इतने सालों में क्या हमारा देश वाकई विकसित और खुशहाल हुआ है? या यह सिर्फ कल्पना है, आंकड़ों की जो कि देश के नागरिकों को विकसित होने का सपना दिखाकर छलावा दे रही है।
आज देश की सरकार भारत को दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बताती है। यह भी कहती है कि जल्द ही दुनिया के तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी में है हमारा देश। लेकिन इस महान गणतंत्र के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय इतनी मामूली है कि उसके लिए उस पर गुजारा करना लगभग नामुमकिन है। इस समय हमारे देश में महिलाएं जितना आगे बढ़ रही हैं, उतना ही लोगों की मानसिकता और ज्यादा क्रूर और ज्यादा वहशी होती जा रही है। अपनी बेटियों को खुद माता-पिता ही कुछ रूपयों की खातिर बेच दे रहे हैं।ऐसे में याद आता है लोहिया का समाजवाद। आज के समय में लोहिया का समाजवाद कितना प्रासंगिक है, इस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए।
लोहिया ने 20 वीं शताब्दी में गैर बराबरी की प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज भी उठाई थी। वह समतामूलक समाज की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध थे। गैर बराबरीपूर्ण समाज को लेकर उनका कहना था कि देश के समाज में जो लोग दबे हुए हैं, वे सिर्फ इसी बात से खुश हो जाते हैं कि राजा नहीं सही तो रंक ही सही। रंक भी ऐसा जो इस बात से भी खुश है कि मुझसे नीचे भी तो कोई न कोई है। अब जबकि हमारा निम्न वर्ग सिर्फ मुफ्त की सब्सिडी लेने में ज्यादा उत्सुक होता है, ऐसे में उनके बीच, उनके अंदर की संघर्ष की ताकत खत्म होती जाती है, जो कि कुछ साल पहले तक इस समाज की अधिकांश जनता में थी। अब वह इस बात से ही खुश हो जाती है कि उसे बराबरी नहीं मिल रही है तो नहीं मिले। लेकिन उसे मुफ्त में सुविधाएं और थोड़ा बहुत ऐसा ही फ्री सब्सिडी के तौर पर मिलता जा रहा है। यह जो मांगने वाली प्रवृत्ति होती है यह अमीर और गरीब दोनों वर्गों को बराबरी पर नहीं लाती है । बल्कि हमें यह मानना चाहिए कि इस तरह से किसी की भी समझ में, कभी भी बदलाव नहीं आ सकते हैं क्योंकि देश की सबसे निचले तबके में बजाए बराबरी मिलने के फ़्री सब्सिडी का अधिक महत्व है।
लोहिया ऐसे समय में कहते हैं कि हिंदुस्तान में आय और आमदनी की असमानता का एक और कारण है। निम्न स्तर का वर्ग अत्यंत गरीबी और निराशा का भाव पैदा करता है। जब एक व्यक्ति भूखा हो, बिन कपड़ों के हो, दबाया हुआ और प्रताड़ित हो तो वहां पर थोड़ा सा मरहम भी उसके लिए राहत का काम करता है। ऐसे में अलग-अलग दलों द्वारा चुनावों के आते ही फ्री सब्सिडी की घोषणा भी इसी तरह की योजनाएं होती हैं। इन छोटी-मोटी राहतों को पाकर देश का एक बड़ा तबका खुश हो जाया करता है। लेकिन इससे समाज में कभी भी बदलाव नहीं आता। बल्कि एक गरीब व्यक्ति बजारु संघर्ष करने के फ्री सब्सिडी का ही इंतजार करता है।
इसी प्रकार हमारे देश में आज भी स्त्री- पुरुष की बराबरी नहीं है। जब तक स्त्री-पुरुष एक बराबर नहीं होते हैं, तब तक किसी भी तरह का बदलाव, किसी भी तरह का विकास का स्वप्न अधूरा ही रहेगा। हमें यहां पर इस बात पर जरूर प्रश्न करना चाहिए, जरूर इस बात पर हमें विचार करना चाहिए कि जब हमारा देश स्वाधीन हुआ था तब की महिलाओं में संघर्ष की प्रवृत्ति विशेष कर गैर बराबरी के खिलाफ संघर्ष करने की जो इच्छा शक्ति थी वह बहुत अधिक थी। उस समय की महिलाओं के अगर हम लिखे लेख को पढ़ें या उनकी पृष्ठभूमि पर ध्यान दें तो हमें मालूम पड़ेगा कि वे अपने अधिकारों को लेकर सजग थीं और अपने लिए अधिक मौकों की तलाश करती थीं। पर आज की स्त्री में क्या वह संघर्ष की भावना खत्म हो चुकी है या सिर्फ उनके दिमाग में और दिल में इस तरह की निराशाजनक बातें बिठा दी गई है कि वे अब मानसिक तौर पर, मानसिक स्तर पर बराबरी की जगह कुछ अलग ही तरह की बराबरी की बातें करने लगतीं हैं। बिना स्त्री -पुरुष की बराबरी के संविधान द्वारा दिया गया समानता का अधिकार बेकार है।
आज हमारे विचार मौलिक नहीं रह गए हैं और देश जहां एक तरफ अपने 76वें गणतंत्र को पूरे रंगों-साज के साथ मना रहा है, वहीं दूसरी ओर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश को अनाज देने वाला, देश का पेट भरने वाला किसान आत्महत्या करता जा रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का युवा वर्ग अलग-अलग कॉलेजों और कोचिंग सेंटरों में मानसिक रूप से परेशान होकर आत्महत्या कर रहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी घर की अगर एक बेटी को भी बेचा जाता है तो वह पूरे देश की आधी आबादी पर हमला है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान का मखौल उड़ाती बेकाबू भीड़ कभी भी देश का भला नहीं चाहेगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिका द्वारा दिए गए फैसलों का हम उचित सम्मान करें। जब तक देश में बराबरी नहीं होगी, जब तक देश में समानता नहीं होगी, तब तक देश की गणतंत्र को लागू होने की हम किसी भी जयंती को मना लें वह सिर्फ एक औपचारिकता ही है। फिर भी आकांक्षाओं के रास्ते में हमें आशाओं का दीप जला कर रखना है और गणतंत्र को दिवस को जरूर मनाना है।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)