अयोध्या की राह चली काशी, जानिए इससे जुड़े ऐतिहासिक तथ्य

अब काशी के लिए रास्ता वाराणसी की एक अदालत के फैसले से खुला है। अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का राज पता किया जाएगा।

Written By :  Yogesh Mishra
Published By :  Dharmendra Singh
Update:2021-04-13 10:23 IST

लखनऊ: "अयोध्या तो बस झांकी है। काशी-मथुरा बाकी है।" विहिप, भाजपा, संघ का यह नारा याद करिये। आज यह मौजू हो उठा है।अयोध्या में तो फिर भी राम मंदिर के साक्ष्य ढूंढने पड़े थे। काशी और मथुरा में मुस्लिम हमलावरों द्वारा प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने के सुबूत सबके सामने और जगजाहिर हैं।कृष्ण जन्मभूमि में बरसों पहले हुई खुदाई में मिले मंदिर के ढेरों सुबूत मथुरा के म्यूज़ियम में रखे हुए हैं। काशी में मंदिर की जगह बनी मस्जिद खड़ी है।

लेकिन कुछ होता तो कैसे? क्योंकि काशी और मथुरा के मंदिरों के साथ न्याय का रास्ता 1991 में बने पूजा स्थल क़ानून के तहत बन्द कर दिया गया है। कानून के मुताबिक़, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। चूंकि अयोध्या को इस कानून की जद से बाहर रखा गया था। सो एक बहुत लंबी अदालती लड़ाई के बाद अब अयोध्या में तो भव्य राम मंदिर बनना शुरू हो चुका है। लेकिन मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और काशी में ज्ञानवापी का मसला सुलझना बाकी है।
अब काशी के लिए रास्ता वाराणसी की एक अदालत के फैसले से खुला है। अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का राज पता किया जाएगा। खुदाई होगी। साक्ष्य निकाले जायेंगे कि मस्जिद के नीचे आखिर क्या है? अदालत ने आदेश दिया है कि पुरातत्विक विभाग खुदाई और सर्वेक्षण का काम करे। कोर्ट के इस फैसले के बाद अयोध्या की तरह अब ज्ञानवापी मस्जिद की भी खुदाई कर मंदिर के पक्ष के दावे की प्रमाणिकता को परखा जाएगा। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को सुलझाने के लिए अदालत ने पुरातात्विक खुदाई से निकली चीजों को बतौर साक्ष्य स्वीकार किया था।

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 2019 में दायर की गई याचिका 

वाराणसी के वकील विजय शंकर रस्तोगी ने स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विशेश्वर की ओर से 2019 में एक याचिका कर मांग कि ज्ञानवापी मस्जिद का पुरातात्विक सर्वेक्षण कराया जाए। ताकि इसका असली इतिहास सामने आ सके। भगवान विश्वेश्वर के 'वाद मित्र' के रूप में दायर याचिका में कहा गया है कि ज्ञानवापी परिसर में भगवान विश्वेश्वर का पुराना मंदिर था। जिसमें 100 फुट का ज्योतिर्लिंग मौजूद था। औरंगजेब ने 1669 में मंदिर को ध्वस्त करा दिया था। उसके एक हिस्से पर स्थानीय मुसलमानों द्वारा एक ढांचा बना दिया गया था, जिसे वो मस्जिद कहते हैं और नमाज़ पढ़ते हैं। 15 अगस्त 1947 को इसकी धार्मिक स्थिति क्या थी? यह तय करने के लिए यह सामने आना जरूरी है कि विवादित ढांचा बनने के पहले यहां पुरातन विश्वेश्वर मंदिर का अवशेष है कि नहीं। यह बिना पुरातविक खुदाई के मुमकिन नहीं है।
मंदिर-मस्जिद की कानूनी लड़ाई 11 अगस्त, 1936 को शुरू हुई थी। जब दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद दाखिल किया। दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति है। लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया। 24 अगस्त, 1937 को वाद खारिज कर दिया गया। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई । लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने इस अपील को भी खारिज कर दिया।

ज्ञानवापी मस्जिद (फाइल फोटो: सोशल मीडिया
 कानूनी गुत्थियां साफ होने के बावजूद मंदिर-मस्जिद का मसला आज तक फंसा हुआ है। यही नहीं, 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिलामजिस्ट्रेट वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। मंदिर कई बार तोड़ा गया। कई बार बनाया गया है। अब तो मूल मंदिर का कोई अवशेष दिखाई भी नहीं पड़ता है। सबसे पहले 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना ने कन्नौज के राजा को पराजित करने के बाद काशी का यह प्राचीन मंदिर ध्वस्त कर यहाँ रज़िया मस्जिद का निर्माण करा दिया। मंदिर को इल्तुतमिश के राज के दौरान दोबारा बनाया गया । लेकिन फिर ढहाया गया। बाद में अकबर के शासन में 1585 में उनके मंत्री टोडरमल ने यह मंदिर बनवाया। 1669 में यह मंदिर औरंगजेब की सेना द्वारा तोड़कर टूटे मंदिर के मलबे से मस्जिद बनवा दी गयी। इसका नाम औरंगजेब की मस्जिद रख दिया। टोडरमल द्वारा बनवाये गए मंदिर के अवशेष ज्ञानवापी कुएं के पास देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि मंदिर का मूल शिवलिंग इसी कुएं में बहुत नीचे कहीं है। आज की तारीख में जो विश्वनाथ मंदिर है उसका नाम विशेश्वर मंदिर था। जिसे 1776 में अहिल्या बाई ने बनवाया था।

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आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया 

काशी विश्वनाथ मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है। आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी है। कई इतिहासकारों ने 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र किया है। उसके विध्वंस की बातें भी लिखी हैं।
इनमें मोहम्मद तुगलक के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' है। इसमें लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था।लेखक फ्यूहरर के मुताबिक़ फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे। फ्यूहरर के दस्तावेजों को अयोध्या के मामले में अदालत ने संज्ञान में लिया है। 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में लिखा कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।

काशी विश्वनाथ मंदिर (फोटो: सोशल मीडिया)
इतिहासकार डॉ. ए.एस. भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में लिखा है कि महाराजा टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। इसके बाद 18 अप्रैल, 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान कोलकाता की विश्वप्रसिद्ध एशियाटिक लाइब्रेरी में आज भी सुरक्षित रखा है। साकी मुस्तइद खां की पुस्तक 'मासीदे आलमगिरी' में भी इस विध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक मस्जिद बनाई गई । जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है। 2 सितंबर, 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी।
बहरहाल, कई इतिहासकारों के अनुसार इस प्राचीन मंदिर को 1194 में तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया । लेकिन एक बार फिर इसे 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। इसके बाद 1585 में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। 1632 में शाहजहां ने इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण सेना विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी। लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
1752 से 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त, 1770 को महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाहआलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया । लेकिन तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था। इसलिए मंदिर का पुनरुद्धार रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया। जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र लगवाया था। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई। इतने प्रमाणों और खुली आँखों से दिख रही सच्चाई से आँख चुराने करने का मतलब ही हैं - सच्चाई से मुँह मोड़ना। देश व समाज की विविधता बनी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि ऐसे सभी सवालों को मिल बैठकर हल कर लिया जाना चाहिए ।?
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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