आज किसान-मंथन ज्यादा जरूरी

Krishi Kanoon: संसद के दोनों सदनों में वापस लिए गए कृषि कानून को लेकर लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपने विचार रखे है। आइए जानते है कि लेखक का इस विषय पर क्या कहना है...

Written By :  Dr. Ved Pratap Vaidik
Published By :  Chitra Singh
Update: 2021-12-01 02:58 GMT

किसान-संसद (डिजाइन फोटो- सोशल मीडिया)

Krishi Kanoon: संसद के दोनों सदनों में कृषि-कानून (Krishi Kanoon) उतनी ही जल्दी वापिस ले लिये गए, जितनी जल्दी वे लाये गए थे। लाते वक्त भी उन पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हुआ और जाते वक्त भी नहीं। ऐसा क्यों ? ऐसा होना अपने आप में शक पैदा करता है। यह शक पैदा होता है कि इस कानून में कुछ न कुछ उस्तादी है, जिसे सरकार छिपाना चाहती है जबकि सरकार का दावा है कि ये कानून लाए ही इसलिए गए थे कि किसानों को संपन्न और सुखी बनाया जाए। यदि इन कानूनों के जाते और आते वक्त जमकर बहस होती तो किसानों को ही नहीं, देश के आम लोगों को भी पता चलता कि भाजपा सरकार खेती के क्षेत्र में अपूर्व क्रांति लाना चाहती है।

मान लिया कि अपने कानूनों से सरकार इतनी ज्यादा खुश थी कि उसने सोचा कि उन्हें तत्काल लागू किया जाए लेकिन अब यदि संसद में इसकी वापसी के वक्त लंबी बहस होती तो सरकार इसके फायदे विस्तार से गिना सकती थी और देश की जनता को वह यह संदेश भी देती कि वह अहंकारी बिल्कुल नहीं है। वह अपने अन्नदाताओं का तहे-दिल से सम्मान करती है। इसीलिए उसने इन्हें वापस कर लिया है। इस संसदीय बहस में उसे कई नए सुझाव भी मिलते लेकिन लगता है कि इन कानूनों की वापसी ने सरकार को बहुत डरा दिया है। उसका नैतिक बल पैंदे में बैठ गया है। उसे लगा कि यदि बहस हुई तो उसके विरोधी दल उसकी चमड़ी उधेड़ डालेंगे। उसका यह डर सही निकला।

विरोधियों ने बहस की मांग के लिए जैसा नाटकीय हंगामा किया, उससे क्या प्रकट होता है? क्या यह नहीं कि विरोधी दल किसानों को फायदा पहुंचाने की बजाय खुद को किसानों का ज्यादा बड़ा हितैषी सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे पक्षियों और विपक्षियों, दोनों की भूमिका लोकतंत्र की दृष्टि से संतोषजनक नहीं रही। ये तो हुई राजनीतिक दलों की बात लेकिन हमारे किसान आंदोलन का क्या हाल है? वह अपूर्व और एतिहासिक रहा, इसमें जरा भी शक नहीं है लेकिन यह ध्यान रहे कि यह आंदोलन पंजाब, हरयाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मालदार किसानों का आंदोलन था। सरकार को उन्हें तो संतुष्ट करना ही चाहिए लेकिन उनसे भी ज्यादा उसकी जिम्मेदारी उन 86 प्रतिशत किसानों के प्रति है, जो देश के 700 जिलों में अपनी रोजी-रोटी भी ठीक से नहीं प्राप्त कर पाते हैं।

उपज के न्यूनतम सरकारी मूल्य के सवाल पर खुलकर विचार होना चाहिए। वह मट्ठीभर मालदार किसानों की बपौती न बने और वह सभी किसानों के लिए लाभप्रद रहे, यह जरुरी है। आज की स्थिति में किसान आंदोलन की बजाय किसान मंथन की ज्यादा जरुरत है।

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