Kumbh Mela Bhagdad: इंद्रधनुषी जीवन के गहरे स्याह रंग, कुछ नहीं बदला अब तक

Kumbh Mela Bhagdad Analysis Story: ये 2025 है। 25 साल में 2050 हो जाएगा।आधी सदी बीत चुकी होगी। लेकिन हमारे पास गिनाने को क्या है? सन 54 के कुम्भ में भगदड़ हुई थी, 2025 में भी हुई है। 70 साल पहले कुचल कर मौतें हुईं थीं। अब फिर हुईं हैं। क्या कुछ बदला है?;

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2025-02-05 15:34 IST

Kumbh Mela Bhagdad Analysis Story 

Kumbh Mela Bhagdad Analysis Story: समय बहुत कुछ या सब कुछ सिखा देता है। इंसान और समाज, समय के साथ विकसित होते हैं, परिमार्जित होते हैं, इवॉल्व होते हैं, आगे बढ़ते हैं, समृद्ध होते हैं। समृद्धि सिर्फ भौतिक नहीं, बल्कि वैचारिक, मानवीय, आध्यात्मिक भी होती है। डार्विन की थ्योरी कहती है कि हम इंसान बंदरों से इवॉल्व होकर यहां तक पहुंचे हैं। हमारे मस्तिष्क किसी भी जीव जंतु के मस्तिष्क से कहीं ज्यादा विकसित है। इंसानों की तरह देश और समाज भी परिवर्तित हुए हैं, बदले हैं, परिमार्जित हुए हैं। तभी तो हम कहते हैं कि इंसान गुफाओं, कबीलों, जंगलों से आगे बढ़ते बढ़ते यहां तक पहुंचा है। जिन्हें हम समृद्ध, अमीर और विकसित राष्ट्र कहते हैं वो हमेशा से ऐसे नहीं थे। वो भी हमारी तरह या किसी अफ्रीकी कबाइली देश - समाज की तरह थे। वे अब समृद्ध हैं, पैसे से, रहन सहन और सामाजिक व्यवस्था से। तभी तो हम उनकी तारीफ करते हैं, गुणगान करते हैं, नकल करते हैं, ईर्ष्या भी करते हैं, वहां भाग जाना चाहते हैं।

हमारी ये ईर्ष्या, ये लालसा, ये नकल, ये भागने की उत्कंठा इसीलिए है कि हम उन जैसे नहीं बन पाए हैं और निकट भविष्य में होते भी नहीं दिख रहे।

ये 2025 है। 25 साल में 2050 हो जाएगा।आधी सदी बीत चुकी होगी। लेकिन हमारे पास गिनाने को क्या है? सन 54 के कुम्भ में भगदड़ हुई थी, 2025 में भी हुई है। 70 साल पहले कुचल कर मौतें हुईं थीं। अब फिर हुईं हैं। क्या कुछ बदला है? तब भी शासन प्रशासन का कोई नुमाइंदा जिम्मेदार माना गया था,आज भी वही स्थिति है। हां, एक बदलाव हुआ है - तब खबरें, हताहतों की संख्या छिपाई नहीं गई थी पर आज कुछ भी स्पष्ट नहीं है।


हम कितना विकसित हो पाए हैं यह इसी से पता चलता है कि फेशियल रिकग्निशन, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, सीसीटीवी, ड्रोन के तमाम तामझाम के बावजूद मरने वालों, घायलों, लापता लोगों की कोई निश्चित गिनती नहीं है। कितनी जगह भगदड़ हुई, यह तक सरकर को पता नहीं है, या बताने में शर्मिंदगी है।

हम मानसिक, सामाजिक और राष्ट्रीय रूप से कितना विकसित हुए हैं यह भगदड़ के चश्मदीदों के उन बयानों से जाहिर है जो बताते हैं कि किस तरह इंसानी भेड़िए भगदड़ में गिरी लाशों और बेसुध घायलों से रुपया पैसा,गहने, मोबाइल या कोई भी कीमती सामान छीनने, लूटने में लगे थे, लोग वीडियो बना रहे थे।


श्रद्धा, मोक्ष और पुण्य अर्जन के इस महा पर्व में हमारा यह व्यवहार? दंगों, ट्रेन हादसों विपदाओं में लूट के घिनौने व्यवहार से हम आज तक बाहर निकल नहीं पाए, यह कैसा विकास और जीडीपी है?

हम समाज के तौर पर कितना इवॉल्व हुए हैं यह इसी से साफ है कि समानता की बड़ी बड़ी बातें, लोकतंत्र और आधुनिक समाज के दावों के बावजूद हम वीआईपी का कलंक मिटा नहीं पाए हैं।

हमारा दावा है कि अब न राजा है न प्रजा, सब बराबर हैं।लेकिन हम संगम नोज़ पर न नहाएं इसका आदर्श प्रस्तुत करने वाला न कोई हमारा धर्मगुरु है, न राजनेता, न इंफ्लुएंसर और न सेलिब्रिटी। होंगे संगम किनारे दर्जनों घाट पर पर कोई नेता तो वहां जाता दिखा नहीं। कोई किसी भी तरह का आदर्श या उदाहरण पेश करता तो दिखा नहीं।

किस्से कहानियों में पढ़ा है कि किस तरह तमाम राजा, महाराजा, शहंशाह, साधु संतों और सूफियों के दर्शन को उनकी कुटियों में जा कर उनके चरणों में गिरते थे। लेकिन हमने तो कुम्भ में महंतों, महामंडलेश्वरों को नेताओं को नहलाते, चरण वंदन करते देखा। प्रवचकों और मठाधीशों को नेताओं सरीखी बयानबाजी, नारेबाजी करते सुना। धर्मगुरुओं और महंतों को किसी की दर्दनाक मौत को गंगा किनारे मोक्ष की प्राप्ति कह के उसे जायज ठहराते और जन समुदाय को इस पर ताली बजाते सुना। किसे सच मानें, किसे झूठ।

कुम्भ में जीवन के हर रंग नजर आते हैं। यह पूरी दुनिया का मंजर देता है। यह सच ही है। व्यापार, राजनीति, राजा-प्रजा, आस्था, उदासीनता, सच, झूठ, शोक, किलकारी, हताशा, आक्रोश, निराशा - सब कुछ तो देख लिया। इसके बाद बाकी ही क्या बचता है?


कहा जाता है कि इंसान का मूल स्वभाव या बेसिक इंस्टिंक्ट अमानवीय ही होता है। हर नस्ल और जीन में एक ही होता है। वो तो नियम कानून, सख्ती और सामाजिक व्यवस्थाओं ने इंसान को परिमार्जित, सुसंस्कृत, नियंत्रित, सभ्य, दयालु, अनुशासित इत्यादि बना रखा है। लेकिन बंदिशें हटते ही, मौका मिलते ही बेसिक इंस्टिंक्ट हावी हो जाता है, सब आवरण उतर जाते हैं। अगर यही सच है तब हमारा उदाहरण सबसे उत्तम है। क्योंकि हमने अपना बेसिक इंस्टिंक्ट कभी नहीं बदला है। हम वही हैं जैसे हमेशा से थे। हम परम संतोषी हैं। परम आस्थावान हैं। सब कुछ ईश्वर की देन और मर्जी मानते हैं। जीवन मरण सब कुछ। हर चीज को जायज मानने के हमारे पास हज़ारों कारण हैं।यहीं सत्य की खोज सरस्वती नदी की तरह कहीं विलुप्त हो जाती है, किसी संगम में मिलकर एकरूप हो जाती है। जो ढूंढने में लगेगा वह स्वयं ही अलौकिक हो जाएगा। यही हमारा परम् तथ्य है। परम् सत्य नहीं, क्योंकि वो तो विलुप्त है।

( लेखक पत्रकार हैं। साभार दैनिक पूर्वोदय।)

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