B. R. Ambedkar: आंबेडकर के धर्म नहीं, राष्ट्र निर्माण में योगदान को देखिए
Bhimrao Ramji Ambedkar: डॉ भीमराव आंबेडकर को यह धर्म इतना भाया कि उन्होंने नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।
Bhimrao Ramji Ambedkar Contribution: " बुद्धं शरणं गच्छामि:। धम्मं शरणं गच्छामि:।" शायद ही कोई ऐसा हिंदू हो जिसने अपने जीवन में कम से कम एक बार इस वाक्य का उद्घोष न किया हो। बौद्ध धर्म को लेकर हिंदुओं में कभी प्रकट तौर पर वैमनस्य नहीं देखा गया। वह भी तब, जब संस्कृत के प्रकांड पंडित यह बताते हुए नहीं थकते हैं कि बौद्धों ने हमारी धार्मिक किताबों में तमाम क्षेपक जोड़े हैं। वह भी ऐसे क्षेपक जिससे कि हमारी मान्यताएँ और आस्थाएँ कमजोर हों। बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय आज भी जो बाइस प्रतिज्ञाएँ कराई जाती हैं, उनमें शुरू की पाँच प्रतिज्ञाएँ हिंदू देवी देवताओं के बारे में नकारात्मक भाव से भरी हैं। इन प्रतिज्ञाओं में ब्रह्मा, विष्णु, महेश में विश्वास नहीं करना, इनकी पूजा नहीं करना, राम, कृष्ण, गौरी, गणपति व जिन भी देवी देवताओं को हिंदू धर्म में अवतार मानते हैं, उनके प्रति आस्था न रखने व पूजा न करने की बात है। बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानने के सनातन धर्म के विश्वास को पागलपन और झूठा प्रचार बताना भी शामिल है। यह भी कहना कि हिंदू धर्म मानवता के लिए हानिकारक व मानवता के विकास में बाधक है।
दरअसल, बौद्ध काल में सनातन धर्म की छवि इतनी ख़राब कर दी गयी थी कि इससे उबरने के लिए शंकराचार्य को अपना पूरा जीवन देना पड़ा। बौद्ध धर्माचार्य श्री निकेतन का शिष्य बन कर कुमारिल भट्ट को बौद्ध धर्म का अध्ययन करना पड़ा। इसके बाद बौद्ध विद्वानों व धर्माचार्यों को शास्त्रार्थ की चुनौती देकर पराजित करना पड़ा। सिद्ध करना पड़ा कि बौद्धों का सिद्धांत सर्वथा भ्रामक, भ्रांति मूलक और अनिष्टकारी है। अतः इनका प्रचार वैदिक आर्यावर्त में कदापि नहीं होना चाहिए। 63 साल की आयु तक कुमारिल भट्ट को बौद्धों से शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित करते रहना पड़ा। बाद में गुरू द्रोह की सजा में प्रयाग के त्रिवेणी के तट पर कुशानल में जल कर प्रायश्चित्त करना पड़ा।
आंबेडकर ने ग्रहण किया था बौद्ध धर्म
पर भारतीय समाज के प्रेरक व प्रेरणा पुरुष डॉ भीमराव आंबेडकर को यह धर्म इतना भाया कि उन्होंने इक्कीस साल तक विभिन्न धर्मों का अध्ययन करने के बाद 14 अक्टूबर, 1956 को सुबह तक़रीबन साढ़े नौ बजे त्रिशरण और पंचशील की पंक्तियों के पाली भाषा में पाठ के बीच नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। आंबेडकर के जीवनीकार वसंत मून ने लिखा है कि वे अपने समय में प्रचलित अन्य दूसरे धर्मों की संरचना पर विचार करने के पश्चात ही बौद्ध धर्म को अपनाने की ओर अग्रसर हुए थे।
दूसरे जीवनीकार, गेल ओमवेट ने भी लिखा है कि आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म को एक उचित धर्म मानने के पीछे इस धर्म में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता है। आंबेडकर के साथ करीब 3,80,000 और लोगों ने भी बौद्ध धर्म अपनाया था। दुनिया में एक साथ धर्म परिवर्तन की यह सबसे बड़ी घटना कही जाती है। जहां आंबेडकर ने "बुद्धं शरणं गच्छामि" किया था, वहां आज तक धर्म परिवर्तन का काम अनवरत हर साल चलता रहता है। इसे दीक्षा भूमि कहा जाता है।
एक बार बसपा की नेता मायावती ने यह धमकी दी थी कि वह बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेंगी। उनके कई राजनीतिक हमसफ़र रहे नेता तो बौद्ध बन चुके हैं, पर आरक्षण का लाभ मिलता रहे बस इसलिए उनका धर्मांतरण काग़ज़ों से बाहर नहीं निकल पाया। बीते पाँच अक्टूबर को बौद्ध धर्म के दीक्षा कार्यक्रम में केजरीवाल की पार्टी के दिल्ली के मंत्री राजेंद्र पाल गौतम भी मौजूद रहे। विवादों के चलते गौतम को बाद में मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा।
बौद्ध धर्म ग्रहण करना एक क्रिया नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया
आंबेडकर जी ने जो संविधान बनाया, उसमें किसी भी धर्म को स्वीकार करने या किसी भी धर्म में जीने की स्वतंत्रता है। फिर सवाल यह उठता है कि बौद्ध धर्म ग्रहण करते समय हिंदू धर्म व उसके देवी देवताओं को भला बुरा कहने की ज़रूरत ही क्या है? यह तो हिंदू धर्म के प्रतिगामी मुस्लिम व ईसाई धर्म को स्वीकारते समय नहीं करना पड़ता है। इसका सीधा सा मतलब है बौद्ध धर्म ग्रहण करना एक क्रिया नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया है। न्यूटन का गति का तीसरा नियम है - हर क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। शायद यही वजह है कि बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बहुत लंबे समय तक डॉ आंबेडकर को भी भारतीय इतिहास के अध्यायों में हेरा जाना पड़ा। उन्हें बहुत बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह निकाल कर लाये।
आम तौर पर आंबेडकरवादियों द्वारा यह फैलाया जाता है कि महात्मा गांधी दलित विरोधी थे। इसके लिए जो तर्क दिया जाता है वह केवल यह है कि महात्मा गांधी के कारण आंबेडकर पूना पैकेट लागू नहीं करवा पाये। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि पूना पैक्ट है क्या? इसके लागू नहीं होने से क्या सचमुच दलितों के रास्ते में अवरोध खड़े किये। इसके लिए आज़ादी के पहले के भारत सरकार अधिनियम 1909 को काल खंड में जाना चाहिए। जिसमें अछूत समाज के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 27 अगस्त 1932 को कम्यूनल अवार्ड की शुरूआत हुई। जिसमें दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार मिला। इसके साथ दलितों को दो वोट का अधिकार मिला। एक वोट से वह अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे, दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि का चयन कर सकते थे।
महात्मा गांधी का मानना था कि इससे हिंदू समाज बंट जायेगा। वह दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र तथा दो वोट के पक्षधर नहीं थे। नतीजतन, गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। 24 सितंबर,1932 को सायं पाँच बजे यरवदा जेल में पूना पैक्ट हुआ। जिसमें इसके बदले दलितों की आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय असेंबली में 71 से 140 कर दी गई। केंद्रीय विधायिका में 18 फ़ीसदी कर दी गयी। कहा जाता है कि 1932 में पूरा पैक्ट पर हस्ताक्षर आंबेडकर ने बड़े बेमन से किये थे। नेहरू कैबिनेट से 1951 में बीआर अंबेडकर ने इस्तीफ़ा दिया था। क्योंकि वह हिंदू कोड बिल में देरी नहीं चाहते थे। अंबेडकर भारत के इतिहास से खुश नहीं थे। उनका कहना था कि इसमें भारत में मुसलमानों की जीत पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है।
इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि जिन्हें आज दलित कहा जाता है, उनके साथ एक विशेष काल खंड में बहुत उत्पीड़न हुआ है। अछूत माने जाने के कारण इन्होंने गहरी उपेक्षा झेली है। पर कभी भी किसी भी गाड़ी का डेंट गाड़ी के अंदर से ही ठीक होता है। बाहर से नहीं। यही नहीं, जिन लोगों को आंबेडकर बौद्ध धर्म में ले गये, उन्हें इन दिक़्क़तों से कितनी निजात मिली, इसका वर्णन कहीं नहीं मिलता है।
आंबेडकर ब्राह्मण वाद का विरोध करते रहे। उनकी पहली पत्नी रमा बाई आंबेडकर दलित थीं। इनके पिता भीकू धात्रे थे। उनकी दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर मराठी सारस्वत ब्राह्मण थीं। आंबेडकर टाइटल महाराष्ट्र में ब्राह्मण की है। 25 दिसंबर, 1927 को डॉ आंबेडकर ने पहली बार मनुस्मृति दहन का कार्यक्रम किया था। इसका नेतृत्व चितपावन ब्राह्मण ने किया था। लेकिन जिस मनु स्मृति को जातिवाद का पोषक बताया जाता है, जिसके लिए ब्राह्मण गाली का पात्र बनता है, उसके लेखक मनु जी ब्राह्मण नहीं थे। रामायण के लेखक ऋषि वाल्मीकि भी दलित द्रविड़ समुदाय के थे।
राजनीति का भी हो धर्म
धर्म की राजनीति से परहेज़ करने की बात कही जाती है। पर हक़ीक़त यह है कि राजनीति का धर्म होना ही चाहिए। यानी राजनीति व धर्म को एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रिश्ते रखने चाहिए। मोदी की अगुवाई वाली भाजपा की प्रचंड सफलता का यही राज है। पर यह आवेगपूर्ण नहीं होना चाहिए । बल्कि इसके लिए पर्याप्त तैयारी की जानी चाहिए। देश व समाज की सभ्यतागत समीक्षा की जानी चाहिए। सामाजिक-आर्थिक ढांचे की बनावट को विश्लेषित किया जाना चाहिए। जिस धर्म का राजनीति से अन्योन्याश्रित संबंध बनाना हो उसे देखने का विवेक विकसित किया जाना चाहिए। नहीं तो वही गलती होगी जो अरविंद केजरीवाल के नेता नेता की। भाजपा और संघ इस सवाल पर विरोधाभासों को साधने की राजनीति कर रहे हैं।
आंबेडकर हिंदू राष्ट्र का विरोध करते थे। आंबेडकर न केवल हिंदुत्व को दुत्कारते थे। बल्कि हिदूंइज्म पर भी हमलावर रहते थे। उसी आंबेडकर को नया प्रतीक व प्रेरणा पुरुष, संघ व भाजपा बना रहा है। दरअसल, राष्ट्र कल्पना का ख़ास ढंग का संगठन ही है। इसलिए प्रतीकों का काफ़ी महत्व होता है। जिन प्रतीकों के माध्यम से हम अपनी राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करते हैं, उनकी जगह नए प्रतीक प्रस्तुत करके एक नई कल्पना को यथार्थ करने का प्रयास भी होता रहता है। पर इसमें विरोधाभास नहीं होना चाहिए। एकरूपता होनी चाहिए। आंबेडकर के बिना कांग्रेस दलितों का वोट लेती रही है। आंबेडकर का योगदान देश भुला नहीं सकता। पर हिंदुत्व पर उन्होंने जो चोट की, वोट के लिए उसे भी उस दल को नहीं भूलना चाहिए जिसने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को बीते जमाने की बात साबित कर दिया हो। जिसके नेता नरेन्द्र मोदी ने केवल हिंदू के बदौलत स्पष्ट बहुमत की सरकार केंद्र में नहीं तक़रीबन देश के हर कोने में बना कर दिखा दी हो।
राष्ट्र निर्माण में डॉ आंबेडकर के योगदान को नकारा नहीं जा सकता, सो बेहतर यही होगा कि इस दल को और उनके नेता को जनता के बीच आंबेडकर के योगदान को लेकर जाना चाहिए। डॉ आंबेडकर निर्विवाद रूप से एक आइकॉन हैं। उन्हें उसी तरह हाईलाइट किया जाना चाहिए, यही राष्ट्र, समाज और समग्र जन के हित में होगा। नहीं तो राजनीतिक सिद्धान्त दुधारी तलवार की मानिंद होते हैं जो एक को साधेंगे पर दूसरे को गिराएंगे भी। राजनीतिक "हाराकीरी" ये मुजाहिरा भला कांग्रेस से बेहतर कौन कर पाया है, इसे ध्यान में रखे रहिए।
( दैनिक पूर्वोदय से साभार)