Mahakumbh Viral Baba History: पैकेज पूछो वैरागी का...

Bharat Me Sanyasi Banane Ka Itihas: महाकुंभ की शुरुआत होने के बाद से ही मीडिया कवरेज में कई साधु-बैरागी छाए हुए हैं। कभी हर्षा रिछारिया, कभी रशियन बाबा, तो कभी आईआईटी बाबा की टीआरपी टॉप पर पहुँच जाती है।;

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2025-01-30 11:50 IST

Mahakumbh Viral Baba History 

Mahakumbh Viral Baba History: महाकुंभ (Mahakumbh) का समय है। प्रयागराज में संगम तट पर एक अलग ही दुनिया बसी हुई है। इस दुनिया में धर्म, आस्था, अध्यात्म, संस्कृति, अनुष्ठान, संस्कार, नदियाँ, मिथ, दंत कथाएं, इतिहास की अनवरत यात्रायें और पड़ाव की अनगिनत कहानियाँ हैं। जो श्रद्धा व विश्वास जगाती हैं। कई कौतुहल जनतीं हैं। ज्ञान-भक्ति-कर्म तथा सत- चित-आनंद इन सब का संगम गढ़ती हैं।

यहां करोड़ों की भीड़ में हर कोई कुछ न कुछ ढूंढ रहा है। दुनिया भर से लोग किसी तलाश में यहां एकत्र हुए हैं, वैसे ही जैसे हर कुम्भ में अनंत काल से होते आये होंगे। कुम्भ में जीवन के हर पहलू के दर्शन मिलते हैं। यहां धन्नासेठ भी हैं और फकीर मलंग भी।

यहां मीडिया भी तलाश में है। स्टोरी की तलाश में। कुछ अनोखा दिखाना है, सुनाना है, पढ़ाना है। 40 दिन का महाकुंभ मेला है, हर दिन कुछ नया चाहिए। इस नये की खोज में ज्यादातर साधु ही मिल पाते हैं। जो कौतूहल ज्यादा जगाते हैं। इसी की दरकार है। तभी तो कभी हर्षा रिछारिया, कभी रशियन बाबा, कभी आईआईटी बाबा स्पेस ले उड़ते हैं।

लाखों का पैकज छोड़ क्यों बनते हैं वैरागी

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

करोड़ों की कुम्भ की भीड़ में ये एक नायाब खोज हो उठते हैं। पूरा मीडिया उन्हीं पर टूट पड़ता है। कभी आईआईटी बाबा की टीआरपी टॉप पर पहुँच जाती है। कभी हर्षा रिछारिया की। कभी रशियन बाबा की। हर जगह उनके इंटरव्यू होने लगते हैं। सबको कौतूहल, विस्मय और हैरानी सिर्फ एक बात की होती है। एक ही सवाल होता है। लाखों का पैकज छोड़ कर, जमेजमाये कैरियर से छुट्टी लेकर भला कोई साधु बनता है क्या? आईआईटी पढ़ कर भला कोई बैरागी बनता है क्या? ये कैसे मुमकिन है? ये कैसे अजूबे इंसान है?


बात सही है। यह अजूबा ही है। जहां आईआईटी की एक एक सीट के लिए लाखों कैंडिडेट्स के बीच घमासान हो, जहां बढ़िया पैकेज जीवन का अंतिम उद्देश्य हो वहां आईआईटी बाबा एक अजूबा तो होगा ही। हमारे चश्में में तो साधु, संन्यासी, भिक्षुक या बैरागी बनना तो नाकारों, अनपढ़ों, निकम्मों का काम है। पढ़े लिखों का इनसे क्या लेना देना? भला कोई लाखों का पैकेज यूँ ही कैसे छोड़ सकता है?

कुम्भ की भीड़ में लाखों साधु संत हैं, जो गांव देहात की भीड़ की हमारी नियत परिभाषा में फिट बैठते हैं। उनसे क्या लेना देना? क्या समय बर्बाद करना? वे तो बोर्ड परीक्षा के फेल कैंडिडेट हैं या थर्ड डिवीजन पास हैं। उनकी फोटो क्या खींचनी। फोटो और बाइट तो टॉपर की चाहिए।


पढ़ाई लिखाई तो परीक्षा में टॉप करने, बढ़िया नौकरी पाने, जिंदगी सेट करने के लिए की जाती है। जब अध्यात्म, सत्य की खोज, वैराग्य अपनाना है, तो पढ़ाई में वक्त क्यों बर्बाद करना? इन बाबाओं के बारे में कौतूहल सिर्फ एक शख्स के बारे में कौतुक नहीं है। यह हमारे समाज का प्रतिबिंब है।

हमारी अवधारणाओं, हमारे उद्देश्यों और हमारी समझ का सच्चा वर्णन है। जो बात हम कहने में, चर्चा करने में और स्वीकारने में कतराते हैं, डरते हैं यह वही बात है। हमारी महान संस्कृति, महान परंपराओं और गौरवशाली इतिहास के सामने आज की हमारी स्थिति को सिर्फ इसी कौतूहल ने तार तार किया है।

देश के इतिहास में झांकने की जरुरत

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

हमारे भारत में एक से एक चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं। वैभवशाली और परमशक्तिशाली भी। महादानी और चिंतक भी। इतिहास हमें इनके साम्राज्य, युद्ध कौशल और ताकत के बारे में बताता है। इनके त्याग और परमार्थ के बारे में भी। सिद्धार्थ को हम कम जानते हैं लेकिन बुद्ध को ज्यादा जानते हैं। सिद्धार्थ राजपाट छोड़ कर बुद्ध बने थे।

वर्धमान का जन्म भी वैशाली के राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ था। वह राज वैभव छोड़ महावीर स्वामी बने। उज्जैन के महाराज भर्तृहरि ने अपना राजपाट छोटे भाई विक्रमादित्य के हवाले कर गुरु गोरखनाथ का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। बीते सालों में ही गुजरात के हीरे के कारोबारी व दिल्ली के प्लास्टिक किंग ने अपनी अरबों की संपत्ति छोड़ जैन श्वेतांबर बनने को तरजीह दी।


चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, इत्यादि अनेक राजाओं, सम्राटों, राजकुमारों की स्मृति उनके युद्धों और साम्राज्य से ज्यादा उनके साधु-वैरागी-मुनि बन जाने की है। याद इस बात की होती है कि किस तरह इन्होंने सिंहासन त्याग कर संन्यास ले लिया। किस तरह राजा साधु बन गए, भिक्षाटन करने लगे। उनके बारे में अब वो कौतूहल नहीं जगता जो आईआईटी बाबा जगाता है। क्योंकि आज वैराग्य की कीमत नहीं, पैकेज की है।

हमने वैरागी कथावाचक नहीं देखे। जो देखे, सब ऐशोआराम वाले, अमीरों के सान्निध्य वाले देखे। हमें तो कोई वैरागी योग गुरू नहीं मिला, जो मिला है वो बिजनेसमैन है। आज कोई सूफी नहीं मिलता। सूफियाना अब सिर्फ सूफी बैंड तक सीमित है। धर्म प्रचारक अब अच्छी बातें नहीं सिखाते, फोकस अब धर्म बदलवाने में है।

क्या मानेंगे हम?

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

जब हमारे इर्दगिर्द की दुनिया ऐसी है तो क्या मानेंगे हम? हमें वही सब सच्चा लगेगा। बैरागी जीवन वाला, आसमान निहारने वाला, प्रकृति से बात करने वाला, जिससे तनिक भी सीख मिले उसे अपना गुरू मानने वाला, बिना बात हंसने वाला, सिर्फ और सिर्फ एक पागल या ड्रग एडिक्ट ही लगेगा। यही लग भी रहा है।

तभी तो बाबा का आलीशान टेंट, उनके सेलिब्रिटी शिष्य, साइकिल से ऑफिस जाता हुआ आईएएस खबर बन जाता है। मंत्री मेट्रो ट्रेन में सफर कर ले तो इवेंट हो जाता है। आईपीएस सड़क पर गाड़ी चेक करने लगे तो फोटो खिंचती है। डीएम किसी फरियादी को कुर्सी पर बैठने को कह दे तो दयावान घोषित हो जाता है। अफसर कमरे से निकल कर जनता के बीच निकल जाए तो जयकारे होने लगते हैं। हमें विधायक - मंत्री फॉरच्यूनर में ही भाते हैं। आटो में चलेंगे तो कोई पहचानेगा भी नहीं। हम अपने हक की चीज को सरकार की सौगात मानते हैं।

यही वजह है कि पैकेज वाला आईआईटियन गमछा लपेटे, बैरागी बना दिखता है तो दिलो दिमाग़ उसे स्वीकार नहीं करता। कोई शख्स ऐसा कैसे कर सकता है। जरूर कुछ गड़बड़ है। गड़बड़ी तलाश की जाने लगती है।

जबकि राजा से भिक्षु बनने की सबसे ज्यादा कहानियां हमारे पास हैं। बाकी देशों समाजों में भी ऐसे बहुत हुए हैं। लेकिन हमसे काफी कम। रईस पश्चिमी देशों में भी उदाहरण हैं लेकिन कम हैं। उनके लिए बैरागी और टेक सीईओ बराबर हैं। लेकिन हम बीच में हैं। अधर में। अभी हम डिग्री, नौकरी और पैकेज के स्तर पर जूझने को विवश हैं।

चाह कर भी बैराग नहीं ले सकते। मन होते हुए भी जंगल, पहाड़, नदी समुद्र किनारे प्रकृति से बात नहीं कर सकते। क्योंकि हमारी विवशता परीक्षा में टॉप करने, सरकारी नौकरी पाने की, विदेश जा कर सेटल हो जाने की है। हम खुद अपने लिए और अपने परिवार के लिए आध्यात्म और बैराग एफोर्ड नहीं कर सकते। तभी हमें बैरागी, साधु, संत उसी वर्ग के लोग चाहियें जो मुफ्त सरकारी राशन पर पलने को मजबूर होते हैं।


आईआईटियन वहां मिसफिट है। सिर्फ वो ही क्यों, समाज के बहाव से विपरीत न सिर्फ चलने बल्कि सोच मात्र रखने वाले बहुत से लोग मिसफिट हैं। क्या सही है और क्या गलत, बता सकना असंभव सा है। क्योंकि तर्क सभी के मजबूत हैं।

लेकिन इतना जरूर है कि 144 साल बाद पड़े इस बार के महाकुंभ से इस विचार का अमृत मंथन अवश्य करिएगा। क्योंकि यह शैव, शाक्त व वैष्णव संप्रदायों का मिलन है। मंत्र, यंत्र व तंत्र का उद्गम स्थल है। कला, साहित्य व संस्कृति के अभ्युदय का सूत्रधार है। यहां धर्म की सिद्धी होती है। अर्थ की पुष्टि होती है। काम को संतुष्टि मिलती है। भव्यता, दिव्यता व नवीनता तीनों की त्रिवेणी दिखेगी। यह सब आपके लिए आपके बच्चों के लिए जरूरी है। जरूरी होगा।

(लेखक पत्रकार हैं।)

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