Politics 2025: सियासी दलों की चुनौतियों का वर्ष 2025
Politics 2025: भाजपा के लिए भी एक नहीं तमाम खतरे हैं। बीते 2024 के जाते-जाते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने - कोई नया मंदिर-मस्जिद विवाद ना पैदा करने के बयान से संकेत दिए है कि भाजपा और संघ के विचारों में मतभिन्नता शुरू हो गई है।
Politics 2025: भाजपा, कांग्रेस और सपा जैसे दलों में जो आपसी रिश्तों का संतुलन बना सकेगा वही 2027 में यूपी विधानसभा चुनाव की नैय्या पार लगा सकेगा। सपा और कांग्रेस के बीच रिश्तों की कड़वाहट मिठास में तब्दील नहीं हुई तो पीडीए वोट बिखरने और इस वर्ष ही इंडिया गठबंधन के बाकायदा खात्मे का खतरा बन सकता है। जहां कांग्रेस का साथ छूटा वहीं समाजवादी पार्टी का आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में अकेले बूते पर सत्ता में आने की कम संभावना समाजवादी पार्टी के टूटने का रिस्क भी पैदा कर सकती है। ताज्जुब नहीं कि विधानसभा चुनाव से पहले सपा का वो अंजाम हो जो महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी का हुआ था। कांग्रेस से दूरी बनाने के किसी फैसले से पहले इन बातों को सपा मुखिया अखिलेश यादव को ग़ौर करना होगा।
दूसरी तरफ भाजपा के लिए भी एक नहीं तमाम खतरे हैं। बीते 2024 के जाते-जाते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने - कोई नया मंदिर-मस्जिद विवाद ना पैदा करने के बयान से संकेत दिए है कि भाजपा और संघ के विचारों में मतभिन्नता शुरू हो गई है। भाजपा को संघ से किसी भी दूरी को मिटाना होगा।
दूसरी चुनौती भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और प्रदेश नेतृत्व के बीच सामंजस्य बना कर रखने की है। डबल इंजन टकराए तो दोनों इंजनों का सत्ता की पटरी पर उतरने का खतरा है। केंद्र सरकार की स्थिरता के लिए भाजपा को नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को नागवार गुजरने वाला कोई कदम नहीं उठाना होगा।
केंद्र और यूपी सरकार के सहयोगी दल
यूपी में एनडीए के सहयोगी संजय निषाद, ओम प्रकाश राजभर,पल्लवी पटेल और चौधरी जयंत चौधरी से भी मुख्यमंत्री योगी को रिश्तों की मधुरता को बनाए रखना होगा। केंद्र और यूपी सरकार के सहयोगी दलों द्वारा विभिन्न पिछड़ी जातियों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के हित की मांगों को पूरा करना पड़ेगा। क्योंकि चुनावी वर्ष आने से पहले ही एनडीए के सहयोगी अपने-अपने वोट बैंक को साधने के लिए आरक्षण और तमाम मांगे करके राजनीतिक दबाव बनाएंगे।
इस बीच डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के सम्मान से जुड़ा मुद्दा आगे भी तूल पकड़ा तो यूपी में भाजपा के हिन्दुत्व की सियासत की उपजाऊ भूमि की जड़ों में अम्बेडकर वाद की लहर मट्ठा बनकर हिन्दुत्व की सियासी हरियाली को मुरझा सकता है। यदि सपा और कांग्रेस मौके की नजाकत देख कर आपसी तल्खियां खत्म कर मिलजुलकर अम्बेडकर सम्मान, जाति जनगणना की मांग, संविधान की रक्षा और निजीकरण खत्म करने या प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करने का जमीनी संघर्ष शुरू कर दें तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
मंडल-कमंडल (अगड़े,पिछड़े,दलित) सबको साथ लेकर चलने वाली भाजपा अब तक नीले आसमान पर भी भगवा छटाएं बिखेरने में कामयाब होती रही हैं। किंतु डाक्टर बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों को उकेरने में समूचा विपक्ष सफल हो गया तो अम्बेडकरवाद और हिन्दुत्व के एजेंडे को साथ लेकर चलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। इसलिए यहां संतुलन बनाना भाजपा के लिए बेहद बड़ी चुनौती है।
मस्जिद में मंदिर ना खोजें
समय-समय पर तरह-तरह की चर्चाओं में यह भी कहा जाता रहा था कि लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा की हार के बाद मुख्यमंत्री को संघ प्रमुख मोहन भागवत का मजबूत साथ मिला था, किंतु अब - "हिंदुओं का नेता बनने के लिए हर मस्जिद में मंदिर ना खोजें".. जैसा भागवत का बयान पलटते हुए रुख की आशंकाएं पैदा कर रहा है। संघ ही नहीं कानूनी फैसले ने भी फिलहाल मस्जिदों में सर्वे पर रोक लगा दी है। बुल्डोजर कारवाई पर भी न्यायालय का सख्त रुख़ आ चुका है। यूपी की राज्यपाल आनंदीबेन ने भी सूबे में कानून व्यवस्था को पूरी तरह से दुरुस्त ना होने का बयान दिया है। अभी भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिन्दुत्व की बयार आगे बढ़ाएंगे या विकास, रोजगार और कानून व्यवस्था को और भी बेहतर बनाने के प्रयासों पर ज्यादा ध्यान देगे। या फिर हिन्दुत्व,विकास, संघ व केंद्रीय नेतृत्व के बीच संतुलन बनाने की चुनौती में कामयाब होकर सफलता का सफर जारी रख सकेंगे। लोकसभा चुनाव को नज़ीर मानिए तो यहां यूपी में भाजपा से दलित वोट खिसक रहा है। बसपा की असफलताओं का फायदा उठाकर कांग्रेस और सपा दलित वोट को हासिल करने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। ऐसे में विपक्षियों द्वारा बाबा साहब अंबेडकर के विचारों को बुलंद करने के बीच हिन्दुत्व की बयार में दलित वोटों को भी संजोना योगी आदित्यनाथ के लिए बड़ी चुनौती है।
इधर बसपा तो सबसे मुश्किल दौर में गुजर रही है। 2027 से पहले बसपा ने अपने खोए जनाधार को वापस लाने में सफलता हासिल नहीं की तो आगे इसका अस्तित्व ही समाप्त होने का खतरा बन सकता है। यदि बसपा सुप्रीमो मायावती खुद जमीनी संघर्ष में नहीं उतरीं और किसी स्थापित दल से उन्होंने घोषित तालमेल नहीं किया तो उनका हाशिए से बाहर आना बेहद मुश्किल है।
इंडिया गठबंधन
समाजवादी और कांग्रेस सहित पूरे इंडिया गठबंधन की राहें भी बेहद कठिन है। यूपी में हाथ ने साइकिल का हैंडल छोड़ दिया तो साइकिल डिसबैलेंस होकर गिरेगी ही हाथ भी टूट सकता है। यहां सत्रह फीसद मुसलमान तभी एकजुट होकर सपा का साथ दे सकता है जब सपा और कांग्रेस एक साथ हों। जैसे कि लोकसभा चुनाव में यूपी में इंडिया गठबंधन को अप्रत्याशित सफलता मिली थी। लेकिन सफलता का उत्साह भी दोनों दलों के बीच मधुर रिश्ता नहीं बना सका। लोकसभा चुनाव के बाद सपा-कांग्रेस ने सामाजिक न्याय या जनता के बुनियादी मुद्दों को लेकर सरकार के विरुद्ध एक भी सांझा प्रदर्शन तक नहीं किया। आगे भी दोनों की राहें और भी जुदा हो गईं तो सत्ता/भाजपा विरोधी व धर्मनिरपेक्ष विचार धारा का वोट बंटेगा। सपा जिस वोट बैंक पर एकछत्र राज करती है उस मुस्लिम वोट का कुछ हिस्सा कांग्रेस में खिसक गया तो ना कांग्रेस को कोई बड़ी सफलता मिलेगी और ना ही सपा की साइकिल चल सकेगी। आगामी विधानसभा चुनाव में दलित वोट भी सपा को तब ही मिल सकता है जब कांग्रेस उसके साथ हो। दलित समाज का सपा सरकारों का अनुभव अच्छा नहीं रहा था। बड़ी तादाद में दलितों का सीधे सपा के साथ आना अभी थोड़ा मुश्किल है। लोकसभा चुनाव में सपा की जीत में दलितों का साथ मिला था, जिसका कारण इंडिया गठबंधन और उसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका के प्रति दलित समाज का विश्वास था।
भविष्य में क्या हो नहीं पता, पर हिलहाल आसार नहीं लग रहे कि आगे सपा और कांग्रेस के बीच मधुर रिश्ता बना रहेगा और दोनों मिलकर सांझा मुद्दों पर यूपी में जमीनी संघर्ष करेंगे ! यहां समय समय पर सपा प्रवक्ता कांग्रेस पर हमलावर हैं और कांग्रेस वाले सपा पर कड़वे बयानों के बाण चला रहे हैं। संसद से लेकर सड़क तक दोनों दल साथ-साथ नजर नहीं आ रहे। जबकि भाजपा जैसी बड़ी शक्ति के लिए कम-से-कम यूपी में सपा को एक और एक ग्यारह बनकर काम करने की जरूरत है।
सपा, कांग्रेस और बसपा की मुश्किलों और चुनौतियों की श्रृंखला में भाजपा के यूपी में विभिन्न खतरों के जिक्र के साथ इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि दिल्ली की कुर्सी की स्थिरता के लिए भी भाजपा को सतर्कता बरतनी होगी। भाजपा संसद में कई ऐसे बिल पास करवाना चाहती है जिसे शायद मुख्यमंत्री नीतीश और चंद्रबाबू नायडू पसंद ना करें। एनडीए के इन दोनों सहयोगियों के साथ अल्पसंख्यक समाज का विश्वास का रिश्ता बना है। संसद में ऐसे किसी भी कानून के बनने या संशोधित होने से अल्पसंख्यक समाज नाखुश होगा तो नीतीश और नायडू उस बिल के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। 2025 ऐसी तमाम मुश्किलें भी पैदा कर सकता है। जहां कहीं सहयोगियों से खटपट शुरू हुई वहीं राज्य की भाजपा इकाइयों में भी खतरे भरी हलचलें पैदा हो जाएंगी।
राजनीतिक पार्टी और गठबंधन
कुल मिलाकर हर राजनीतिक पार्टी और गठबंधन को 2025 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चर्चित नारे- " "बटोगे तो कटोगे", पर अमल करना होगा। डबल इंजन टकराए, संघ से मतभेद रहे या एनडीए बंटे तो भाजपा को सत्ता से हाथ धोने के खतरे का सामना भी करना पड़ सकता है। इंडिया गठबंधन बंटा या बिखरा तो कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की ऐसी स्थिति हो सकती है कि भविष्य में सत्ता के सपने भी आना बंद हो जाएं।
जो पार्टी और जो गठबंधन एक रहेगा वही सेफ रहेगा। 'बंटोगे तो कटो'गे या 'एक रहोगे सेफ रहोगे'.. जैसे योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी के नारों पर अमल ना सिर्फ भाजपा या एनडीए को बल्कि कांग्रेस, सपा व संपूर्ण विपक्ष को भी करना होगा।
( लेखक पत्रकार हैं।)