Ramcharitmanas Row: चंद्रशेखर व स्वामी मौर्य, जाकी रही भावना जैसी, मानस को समझे वो वैसी
Ramcharitmanas Row: रामचरितमानस को दलित व स्त्री विरोधी करार देने में भी कोई कोताही नहीं हुई है। यह भी कहा गया है कि रामचरितमानस एक साहित्यिक रचना है।
Ramcharitmanas Row:
ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
और
अधम जाति मैं बिद्या पाए।
भयउँ जथा अहि दूध पिआए।।
और
पूजहि विप्र सकल गुण हीना।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।।
इन दिनों इन लाइनों के मार्फ़त रामचरितमानस पर नेता हमलावर हैं। इनमें बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर और भाजपा, सपा, बसपा सभी दलों में रहकर अपनी राजनीति चमका चुके उत्तर प्रदेश के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का नाम आजकल लिया जा सकता है। वैसे तो तुलसीदास और उनकी धर्मकृति रामचरितमानस पर हमेशा कुछ प्रसंगों को लेकर हमला होता रहता है। रामचरितमानस को दलित व स्त्री विरोधी करार देने में भी कोई कोताही नहीं हुई है। यह भी कहा गया है कि रामचरितमानस एक साहित्यिक रचना है। रामचरितमानस को साहित्यिक कृति के रूप में पढ़ा जाए। धार्मिक नहीं। भक्ति काव्य और धर्मग्रंथ एक नहीं हैं। भक्त कवि धर्म गुरु नहीं हैं। यह सत्य है।तथ्य है कि यह भक्तिकाल की रचना है। लेकिन जब भक्तिकाल से ही निकला गुरु ग्रंथ साहिब धर्मग्रंथ बना। तो रामचरितमानस क्यों नही? रामचरितमानस धर्म ग्रंथ नहीं है। जो ऐसा कहते हैं उन्हें भारतीय परंपरा और समाज की समझ नहीं है।
अब मानस के उन प्रसंगों, जिन्हें विवादित बता कर अपनी सियासत चमकाई जा रही है, का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है। इन दोहों कों संदर्भ और प्रसंग से हटाकर स्वतंत्र रूप में देखा जा रहा है। जो इन दोहों का इस्तेमाल तुलसीदास को घेरने के लिए करते हैं, वे संदर्भ उड़ा देते हैं। यही नहीं, इस तरह की शरारत करते समय यह भी नहीं बताया जाता है कि मानस के किस पात्र ने कब यह बात कही, जिसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
चंद्रशेखर ने कहा,"मानस में कहा गया है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करके ज़हरीले हो जाते हैं, जैसे कि साँप दूध पीने के बाद होता है।"
अधम जाति मैं बिद्या पाए।
भयउँ जथा अहि दूध पिआए।।
इस दोहे का प्रसंग यह है कि रामचरितमानस के उत्तर कांड में गरुड़ और काकभुशुण्डि के बीच संवाद हो रहा है। दरअसल काकभुशुण्डि विनम्रता से अपने घमंड को स्वीकार करने के लिए ख़ुद को अधम यानी नीच बता रहे हैं।काकभुशुण्डि अपने भटकाव को स्वीकार रहे हैं।इसी क्रम में ख़ुद को अधम बताते हैं।
हिन्दी आलोचक दिवंगत नामवर सिंह ने भी अपने एक व्याख्यान में कहा है कि गरुड़ और काकभुशुण्डि संवाद के रूप में तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति में क्या महत्वपूर्ण है। दोनों में क्या संबंध है, इसे बताया है।भक्ति क्यों ज्ञान से श्रेष्ठ है, यह दिखाने के लिए गरुड़ और काकभुशुण्डि को चुना। गरुड़ देवताओं के वाहन हैं।काकभुशुण्डि कौवा हैं। तुलसीदास ने काकभुशुण्डि को श्रेष्ठ दिखाया क्योंकि वो भक्त थे। काकभुशुण्डि पक्षियों में क्षुद्र हैं। पर काकभुशुण्डि जीतते हैं।गरुड़ हारते हैं।
पूजहि विप्र सकल गुण हीना।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।।
प्रसंग यह है कि राम सीता की तलाश में हैं। रावण जटायु को मार देता है। इसी बीच कबंध राक्षस आ जाता है।राम उस पर ग़ुस्से में तीर चला देते हैं। कबंध पहले गंधर्व थे। ऋषि दुर्वासा ने छेड़खानी को लेकर राक्षस बनने का श्राप दिया था।
राम ने जब तीर मारा तो कबंध फिर से गंधर्व बन गए। राम का तीर तो कबंध के लिए उद्धारक था। कबंध के गंधर्व बनने के बाद ही राम ने कहा था- पूजहि विप्र शील गुण हीना. शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा। पर सवाल यह उठता है कि राम ने जिस व्यक्ति का उद्धार किया, उसके बारे में ऐसा क्यों कहेंगे?
इसी के साथ चंद्रशेखर भूल गये कि तुलसीदास के राम एक तरफ़ यहाँ वेद के ज्ञाता शूद्रों की भी पूजा नहीं करने की बात कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ़ उत्तरकांड में यही राम कहते हैं-
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी।
मोहिं प्रानप्रिय अस मम बानी।।
यानी, भक्ति और भाव से युक्त अति नीच कहा जाने वाला प्राणी भी मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय है।
तुलसीदास को दलित और स्त्री विरोधी बताने के लिए आए दिन इस चौपाई का उल्लेख किया जाता है-
ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
दोहे को इस रूप में पेश किया
प्रसंग से काटकर इस दोहे को इस रूप में पेश किया जाता है । मानो तुलसीदास ने दलितों के बारे में ख़ुद ही कहा है। पर दृश्य यह है कि राम लंका के रास्ते में हैं।बीच में समंदर पड़ता है। राम तीन दिन समंदर से रास्ता मांगते हैं।समंदर सुनता नहीं है। राम नाराज़ हो जाते हैं।लक्ष्मण से अग्निबाण निकालने का आदेश देते हैं। समंदर को सुखाने के हद तक नाराज़ हो जाते हैं।इसी ग़ुस्से में कहते हैं-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।
अग्निबाण छूटने से पहले ही समंदर राम के सामने प्रकट होता है। कहता है, 'प्रभु हम तो जड़ हैं।प्रार्थना समझ में नहीं आती है।समंदर इसी प्रसंग में राम से कहता है- ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
यहाँ समंदर अपनी बता रहा है। यह न तो तुलसीदास कह रहे हैं और न ही राम।
रामचरितमानस नारी सम्मान का शिखर है। राम ने किष्किंधा के राजा बालि को मार दिया था। घायल बालि ने राम से पूछा-
"मैं बैरी सुग्रीव पियारा।
अवगुण कवन नाथ मोहि मारा। "
श्रीराम का उतर ध्यान देने योग्य है-
"अनुज वधू भगिनी सुत नारी।
सुन सठ ये कन्या समचारी।
इनहि कुदृष्टि विलोकई जोई।
ताहि बधे कुछ पाप न होई।''
स्त्रियों से छेड़खानी आदि की घटनाओं पर कानूनों को कड़ा करने की मांग उठती है। रामचरितमानस में सीधे मृत्युदण्ड की बात कही गई है।
वैदिक साहित्य की आलोचना से आगे बढ़ कर प्रतिक्रियावदी ताक़तें भक्ति काल के साहित्य पर कीचड़ उछालने लगी है। ये ताक़तें यह भूल गयीं कि वैदिक काल में जिस ब्राह्मण को लेकर विरोध था। वह भक्ति काल में तिरोहित हो गया। वैदिक साहित्य में ईश्वर और भक्त के बीच एक मध्यस्थ होता था। वह ब्राह्मण था।भक्ति आंदोलन और उसके बाद भगवान और भक्त के बीच इस मध्यस्थ की भूमिका ख़त्म हो गई।किसी भी जाति का व्यक्ति भक्त बन सकता है। यही नहीं, भक्ति काल ने ईश्वर के लिए संस्कृत भाषा में बोलने व समझने की अनिवार्यता भी ख़त्म की। भक्ति आंदोलन के बाद ईश्वर अवधी, ब्रज, तमिल तेलुगू सबमें बात करने लगे।
तभी तो पाँचवीं सदी ईसा पूर्व से पहली सदी ईसा पूर्व के बीच बाल्मिकी द्वारा रचित रामायण पर अवधि में तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस लोकप्रियता में मूल रामायण पर भारी पड़ी। तुलसीदास ने अयोध्या में रामनवमी के दिन साल 1574 से रामचरितमानस लिखने की शुरुआत की थी।आकार में छोटा होने के बावजूद इसे महाकाव्य का दर्जा हासिल है।रामचरितमानस में 12,800 पंक्तियाँ हैं। जो 1,073 दोहों और सात कांड में विभाजित है। यह गेय है। इस में हिन्दू धर्म व दर्शन की गूढ़ता है। सगुण और निर्गुण भक्ति के बीच का विभाजन है। राम के प्रति भक्ति में समर्पण है। गहरे दर्शन, सहज ज्ञान और इन सबके ऊपर महान भक्ति भाव है। तुलसी ने जिस तरह से छंदों का इस्तेमाल किया है वह अद्भुत है। उन्होंने अपनी रचनाओं में अवधी, ब्रज, संस्कृति, फ़ारसी, अरबी और तुर्की के क़रीब 22 हज़ार शब्दों का इस्तेमाल किया है।
नफरत को बोने वाले ग्रंथ
यह सब जाने समझे बिना बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर ने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के 15वें दीक्षांत समारोह में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा, 'मनुस्मृति में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके के खिलाफ गालियां दी गई। रामचरितमानस के उत्तर कांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं। यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं। एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का बंच ऑफ थॉट। ये सभी देश व समाज को नफरत में बांटते हैं। नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी। देश को महान केवल मोहब्बत बनाएगी।'
स्वामी प्रसाद मौर्य ने तुलसीदास रचित रामचरितमानस की एक चौपाई ढोल-गंवार-शूद्र-पशु-नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी। का जिक्र करते हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि इस तरह की पुस्तकें अनुमन्य कैसे हैं? इनको तो जब्त किया जाना चाहिए। खत्म कर देना चाहिए। मौर्य ने कहा कि महिलाएं सभी वर्ग की हैं। क्या उनकी भावनाएं आहत नहीं हो रही हैं। इन महिलाओं में सभी वर्ग की महिलाएं शामिल हैं। एक तरफ कहोगे- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता। दूसरी ओर तुलसी बाबा से गाली दिलवाकर उनको कहोगे कि नहीं, इनको डंडा बरसाइए। मारिये-पीटिये। अगर यही धर्म है, तो ऐसे धर्म से हम तौबा करते हैं।
रामचरितमानस में दलितों और महिलाओं का अपमान
सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा, रामचरितमानस में दलितों और महिलाओं का अपमान किया गया है। तुलसीदास ने ग्रंथ को अपनी खुशी के लिए लिखा था। करोड़ों लोग इसे नहीं पढ़ते। इस ग्रंथ को बकवास बताते हुए उन्होंने कहा, सरकार को इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। सपा नेता ने एक न्यूज चैनल से बातचीत में मानस के एक अंश को उद्धृत करते हुए कहा, ब्राह्मण भले ही दुराचारी, अनपढ़ हो, लेकिन वह ब्राह्मण है। उसको पूजनीय कहा गया है। लेकिन शूद्र कितना भी ज्ञानी हो, उसका सम्मान मत कीजिए। मौर्य ने सवाल उठाया, क्या यही धर्म है? जो धर्म हमारा सत्यानाश चाहता है, उसका सत्यानाश हो।
सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा 'धर्म का वास्तविक अर्थ मानवता के कल्याण और उसकी मजबूती से है। अगर रामचरितमानस की किन्हीं पंक्तियों के कारण समाज के एक वर्ग का जाति, वर्ण और वर्ग के आधार पर अपमान होता हो तो यह निश्चित रूप से धर्म नहीं बल्कि अधर्म है। रामचरितमानस में कुछ पंक्तियों में कुछ जातियों जैसे कि 'तेली' और 'कुम्हार' का नाम लिया गया है।' मौर्य ने कहा 'इन जातियों के लाखों लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं। इसी तरह से रामचरितमानस की एक चौपाई यह कहती है कि महिलाओं को दंड दिया जाना चाहिए। यह उन महिलाओं की भावनाओं को आहत करने वाली बात है जो हमारे समाज का आधा हिस्सा हैं।'
पर इन जड़ बुद्धि लोगों को समझाना कठिन है। वे रटे जा रहे हैं। स्वामी पर भरोसा किया जाये तो वह धर्म से बौद्ध है। हालाँकि राजनेता भरोसे लायक़ होते नहीं। कुरसी उनका धर्म होती है। स्वामी व चंद्रशेखर जैसे नेता जो पल पल दिल व दल बदल लेते हों उनके बारे में कहना ही क्या ? मानस की किसी लाइन पर सवाल उठाने से पहले यह देख लेना चाहिए कि कौन कह रहा है, कब कहा जा रहा है और कहाँ कह रहा है? विमर्श हमारी संस्कृति का हिस्सा है। पर ये विद्वेष कर रहे हैं। विमर्श नहीं। कहा जाता है कि कोई भी रचना आलोचना से परे नहीं हो सकती पर ज़रा क़ुरान की आलोचना करें तो पता लग जायेगा।फिर भी इन ओछी मानसिकता के नेताओं को तुलसीदास की इन लाइनों को याद रखना चाहिए- जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। इन्हें मानस को संपादित करने की जगह समाज में व्याप्त इन बुराइयों को दूर करने में अपना समय लगाना चाहिए। मानस की कथा-मंगल करनि कलिमल हरनि है। पर इन जैसे जातिवादी, स्वार्थी और कुर्सी को धर्म मानने वालों का रामचरितमानस कलिमल नहीं हर पा रही है। केवल यही वेदना और विवाद या विमर्श का विषय होना चाहिए ।
( लेखक पत्रकार हैं।)