कोविड-19 के दौरान भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका
कोविड-19 के प्रभाव का आकलन महज स्वास्थ्य या अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है।
कोविड-19 के प्रभाव का आकलन महज स्वास्थ्य या अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है। इस संकट ने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के प्रभाव का भी आकलन किया है। केन्द्र और राज्य सरकारों का क्या प्रर्दशन रहा है के साथ-साथ यह समय संस्थाओं के मुल्यांकन का भी रहा है। सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग जैसे तमाम संस्थाओं ने इस दौरान निराश और प्रयास दोनों किया है।
जब देश में कोरोना की सुनामी क़हर बनकर टूट रही थी तब देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां जनसभा कर चुनावी हुंकार भर रही थी। कोरोना के तेज़ी से बढ़ते मामलों को देखते हुए भी चुनाव आयोग ने जिस प्रकार पहले विधानसभा चुनाव और फिर पंचायती राज चुनाव कराएं उससे चुनाव आयोग की कार्यशैली और दूरदृष्टि पर स्वाभाविक प्रश्न उठते है। शायद चुनाव आयोग आइसोलेशन में था। इस दौरान केरल हाई कोर्ट को तल्ख टिप्पणी करते हुए यह तक कहना पड़ा कि क्यों ना चुनाव आयोग पर हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाए। कोरोना की दूसरी लहर ने हमारे सामने दो बड़े प्रश्न खड़े किए थे। पहला, जब देश में दवाओं, आक्सीजन, एम्बुलेन्स आदि की गुहार लगायी जा रही थी तब क्या सरकार अपने संवैधानिक दायित्वों को पूरा कर पाई? दूसरा, क्या विपक्ष का काम सिर्फ़ संसद में चिल्लाना, पेपर उड़ाना और माइक तोड़ना ही है? दोनों प्रश्नों के जवाब एक ही है "नहीं"। विश्व के सबसे संवेदनशील देशों में शुमार भारत ने इस कोरोना काल में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को देखा है। इस दौरान हमने अपनों को अपने सामने दम तोड़ते देखा है। लाशों को गंगा में बहते देखा है। जन प्रतिनिधियों को दवाओं की जमाखोरी करते देखा है। प्रधान सेवक को विडीओ कॉन्फ़्रेन्स में मास्क लगाते देखा है । विपक्ष को ट्विटर पर आरोप - प्रत्यारोप लगाते देखा है।
जब शासन- प्रशासन की व्यवस्था धराशायी होती दिख रही थी ऐसे समय में न्यायालय ने संवैधानिक मूल्यों को आगे रखते हुए इस महामारी में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है उसे आने वाले दशकों में याद रखा जाएगा। लेकिन यह भी याद रखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहली लहर के दौरान मजदूरों के मानवाधिकारों का संरक्षण करने में विलंब कर दिया था। लेकिन दूसरी लहर के दौरान माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी भूमिका का सबसे सर्वोत्तम उदाहरण पेश करते हुए संकट के दौरान ऑक्सिजन सप्लाई, दवाओं, एम्बुलेंस, अनाथ बच्चों, जेलों की भीड़ को कम करने को लेकर जो ऐतिहासिक दिशानिर्देशों जारी किए है, इससे ना सिर्फ़ हज़ारों लोगों की जान बचाने में मदद मिली बल्कि सत्ता को न्यायालय की खनक का भी आभास हुआ।
सुप्रीम कोर्ट और वैक्सीन पॉलिसी
वर्तमान समय में आप महसूस करेंगे कि सरकार की कोविड-19 के खिलाफ नीतियां सुप्रीम कोर्ट के जरिए तय हो रही है। अप्रैल महीने में केंद्र सरकार ने बिना ठोस तैयारी के राज्य सरकारों को 18-44 वर्ष की आयु के लोगों के वैक्सिनेशन की पूरी ज़िम्मेदारी दे दी। राज्य सरकारों को वैक्सीन का इंतज़ाम भी ख़ुद बख़ुद करने को निर्देशित किया गया। वैक्सीन के जो नये दाम केंद्र ने जारी किए वो भी पहले के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा थे। ऐसे में जब राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय वैक्सीन निर्माताओँ से वैक्सीन के लिए गुहार लगायी तो उन्हें ख़ाली हाथ लौटना पड़ा। कई राज्यों को तो अपने कई वैक्सीनेशन सेंटर तक बंद करने पड़े। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार की वैक्सीन नीति को कटघरे में खड़ा किया। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस चंद्रचूड, जस्टिस नागेश्वर राव और जस्टिस रविंद्र भट वाली बेंच ने सरकार की नीति को प्रथम दृष्टया तर्कहीन और मनमाना पाया। साथ ही कोर्ट ने सरकार को संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 की मूल अवधारणा के अनुरूप वैक्सिनेशन नीति बनाने को दिशानिर्देशित किया। सरकार की दलीलों को दरकीनार करते हुए कोर्ट ने सरकार को दुबारा से एक वैक्सिनेशन पॉलिसी पर विचार करने को कहा। फलस्वरूप केंद्र सरकार को 21 जून से वैक्सिनेशन की ज़िम्मेदारी फिर से अपने कंधों पर लेनी पड़ी।
कोरोना से हुई मौत में मुआवजे नहीं
30 जून को सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया की राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम (एनडीएमए) में कोविड जैसी बीमारियों से मृत्यु होने मुआवज़े का कोई प्रावधान नहीं है। हलफ़नामे में ये भी बताया की अभी सरकार के मौजूदा संसाधनों को देखते हुए सरकार इतनी बड़ी संख्या में लोगों को मुआवज़ा देने की स्थिति नहीं है। हालाँकि जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एम.आर. शाह की बेंच ने इस दलील को कमजोर माना और पीड़ित परिवारों को न्यूनतम राहत के रूप में मुआवज़े देने को निर्देशित किया है। कोर्ट ने 6 हफ़्तों के अंदर एनडीएमए को मुआवजे की राशि तय करने का कार्य दिया गया है। इस फ़ैसले से उन लोगों को बहुत सहारा मिलेगा जिन्होंने अपने परिवार के भरण पोषण करने वाले को खोया है। मुआवज़े की राशि समय तय करेगा लेकिन इस फ़ैसले ने एक बार फिर न्यायपालिका के महत्व को उजागर किया है।
न्यायालय का हस्तक्षेप कितना उचित?
सुप्रीम कोर्ट संविधान के संरक्षक की भूमिका भी अदा करता है। जब भी विधायिका और कार्यपालिका अपने संवैधानिक दायित्वों में अप्रभावी रवैया, राजनीतिक बाध्यता या लेटलतीफ़ी करती हैं तो न्यायपालिका इन कमियों को दूर करने के लिए आगे आती है। पिछले चार दशकों में न्यायिक सक्रियता से न्यायालय ने कार्यपालिका और विधायिका को समय समय पर सामाजिक स्वतंत्रता, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण, थर्ड जेंडर जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर नज़ीर फ़ैसले सुनाए हैं। इससे लोगों का विश्वास न्यायपालिका में और बढ़ा है। हालाँकि कई मामलों में न्यायिक सक्रियता का दायरा इतना ज़्यादा बढ़ जाता है कि वो विधायिका और कार्यपालिका के कामों में आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप करना शुरू कर देती है। दरअसल सामाजिक हितों के आदेश कब नीतिगत मामलों में तब्दील हो जाते हैं इसका अनुमान कठिन है। ऐसे में संविधान की मूल भावना शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत आहत होता है और लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में टकराव की स्थिति पैदा होती है। ऐसे में ये समझना ज़रूरी है कि भारत जैसे लोकतंत्र को और मज़बूत करने में विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका की बराबर और प्रभावी भूमिका है। इसलिए न्यायालय को न्यायिक सक्रियता और न्यायिक अति सक्रियता के बीच की दूरी को समझना होगा और लोकतंत्र की मूल संरचना से चलते हुए अपनी भूमिका निर्धारित करनी चाहिये। साथ ही साथ केंद्र सरकार को भी अपने दायित्वों को समझना चाहिए कि हर विषय पर सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी का सामना ना करना पड़े। अगर कोविड-19 के दौरान जरूरी व्यवस्थाओं को सुचारू ढंग से सरकार ने चलाया होता और टीकाकरण की नीति सुनियोजित तरीके से बनाई होती तो शायद सुप्रीम कोर्ट की आलोचनाओं से बचा जा सकता था। लेकिन एक लोकतंत्र के रूप में न्यायपालिका और विधायिका के बीच में नीतियां का यह टकराव जनता के हित में भी देखा जा सकता है।
लेखक - विपिन विहारी राम त्रिपाठी , मुख्य सलाहकार, फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल।