दुविधा अब मनुष्य और मशीन के बीच चुनाव करने की है !

कोरोना संकट से निपटने के आरम्भिक काल में दुनिया भर की सत्ताओं की दुविधा यह तय करने को लेकर थी कि पहले नागरिकों की जान बचाना ज़रूरी है या कि अर्थव्यवस्था ? अब जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था खुल रही है ,दुविधा यह तय करने की हो गई है कि कितना धन किस तरह के नागरिक को बचाने पर खर्च किया जाए !

Update:2020-05-23 11:38 IST

श्रवण गर्ग

एक सवाल जो अब तक पूछा नहीं गया है और जिसे संवेदनशीलता के साथ उठाया जाना चाहिए वह यह है कि इस समय ‘ज़्यादा’ ज़रूरी क्या होना चाहिए? मशीन कि इंसान ? यहाँ बात उन नक़ली मशीनों की नहीं है जिन्हें कि गुजरात माडल के विकास की धज्जियाँ उड़ते हुए राज्य सरकार द्वारा राजकोट स्थित एक परिचित फ़र्म से मरीज़ों के इलाज के नाम पर ख़रीदा गया है या कि जिन्हें दो सौ की संख्या में अब इतने दिनों बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत को दान में दिया है। बावजूद इस सच्चाई के कि उनके खुद के देश में इन मशीनों की भारी कमी है।

पीएम केयर्स फंड के खर्च की चर्चा

हम यहाँ पी एम केयर्स फंड से कोरोना स्पेशल अस्पतालों के लिए ख़रीदे जाने वाले वेंटिलेटर्स के लिए दो हज़ार करोड़ रुपए और अपने पैरों को तोड़ते हुए पैदल निकले लाखों-करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की सभी तरह की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किए गए एक हज़ार करोड़ के प्रावधान की चर्चा कर रहे हैं।

पचास हज़ार निर्जीव मशीनों के लिए दो हज़ार करोड़ और हाड़-माँस के लाखों-करोड़ों सजीव पुतलों के लिए उसका आधा ! हो सकता है उचित जवाब न मिल पाए पर पूछा तो जा ही सकता है कि क्या ज़्यादा ज़रूरी वे मशीनें हैं जिनके बिना घोर संकट के क्षणों में भी काम चल गया और वे उन अस्पतालों को ही दी जाएँगीं जहाँ मरीज़ों के लिए बाक़ी सभी साधन पहले से उपलब्ध हैं या वे ‘स्वस्थ’ मज़दूर जो समुचित देखभाल की अनुपस्थिति में सड़कों पर ही बीमार पड़कर उन्हीं अस्पतालों का मुँह देखने के लिए बाध्य हो जाएँगे?

ओम प्रकाश माथुर का मजदूरों के लिए पत्र

ओम् प्रकाश माथुर की गिनती भाजपा और संघ दोनों के ही क्षेत्रों में सम्मान के साथ की जाती है। वे वर्तमान में राजस्थान से राज्य सभा के सदस्य और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। प्रधानमंत्री के नज़दीकी माने जाने वाले माथुर ने सत्तर के दशक में उनके साथ संघ के प्रचारक के रूप में कार्य किया है। माथुर को लेकर इतनी भूमिका बांधने का कारण उनके द्वारा गृहमंत्री अमित शाह को हाल ही में लिखा गया एक मार्मिक पत्र है।

पत्र का एक पंक्ति में सार यह है कि :’ये सब (मज़दूर) हमारे ही लोग हैं । उनके दुख-दर्द व्यापक चर्चा का विषय बन गए हैं जिससे कि पार्टी की छवि को नुक़सान पहुँच सकता है।’ उन्होंने गृह मंत्री का ध्यान टेलिविज़न पर मज़दूरों की यात्रा के प्रसारित हो रहे ‘चल-चित्रों’ और अख़बारों में प्रकाशित हो रहे वर्णनों की ओर भी दिलाया।

माथुर का सुझाव था कि एक हज़ार करोड़ की सम्पूर्ण राशि को मज़दूरों के ट्रांसपोर्ट पर खर्च कर दिया जाए। माथुर ने यह भी कहा कि राशि बजाय राज्यों को देने के केंद्र स्वयं मज़दूरों के ट्रांसपोर्ट पर खर्च करे। माथुर के पत्र का क्या जवाब दिया गया पता चलना बाक़ी है।

सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी

औरंगाबाद में सोलह मज़दूरों के एक मालगाड़ी के नीचे आकर कट जाने से सम्बंधित एक याचिका को पिछले सप्ताह ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि अगर लोग पैदल चल रहे हैं या रेल की पटरियों पर सोए हुए हैं तो उन्हें कैसे रोका जा सकता है !

याचिका में माँग की गई थी कि देश भर के ज़िला मैजिस्ट्रेट को निर्देशित किया जाए कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। कोर्ट ने कहा कि :’वे (मज़दूर) पटरियों पर सो जाएँ तो कोई कैसे रोक सकता है ?

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के आसपास ही देश में मज़दूरों की स्थिति विषय पर सुनवाई के दौरान मद्रास हाई कोर्ट ने उनके साथ हो रहे बर्ताव पर सख़्त नाराज़गी जताते हुए कहा कि उनकी घोर उपेक्षा हुई है।

कोर्ट ने कहा कि मज़दूरों की देखभाल की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उस राज्य की नहीं है जहाँ के कि वे रहने वाले हैं बल्कि उस राज्य की भी है जहाँ वे काम करते हैं। कोर्ट ने कहा कि किसी भी राज्य ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया।

नागरिकों में भेदभाव का बीजारोपण

कोरोना की महामारी ने नागरिक-नागरिक के बीच सम्बन्धों में भीतर ही भीतर पनप रहे स्वार्थ और साम्प्रदायिक ज़हर को उजागर करने के साथ-साथ सरकारों और नागरिकों के बीच टूटते हुए रिश्तों को भी सड़कों पर ला दिया है।

सत्ताएँ छुपकर खेले जा रहे खेल में बेनक़ाब हो रही हैं कि उन्हें किन नागरिकों की ज़रूरत है और किन की नहीं । विश्वयुद्ध के दौरान चुने हुए कुछ नागरिकों के ख़िलाफ़ किए गए प्रयोग वैश्विक महामारी के दौरान अलग तरीक़ों से दोहराए जा रहे हैं।

कोरोना संकट से निपटने के आरम्भिक काल में दुनिया भर की सत्ताओं की दुविधा यह तय करने को लेकर थी कि पहले नागरिकों की जान बचाना ज़रूरी है या कि अर्थव्यवस्था ? अब जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था खुल रही है ,दुविधा यह तय करने की हो गई है कि कितना धन किस तरह के नागरिक को बचाने पर खर्च किया जाए !

कुछ हज़ार वेंटिलेटर के लिए दो हज़ार करोड़ रुपए और करोड़ों मज़दूरों लिए एक हज़ार करोड़ रुपए के प्रावधान का रहस्य भी व्यवस्था की इसी दुविधा और नियत में छुपा हुआ है।

ये लेखक के निजी विचार हैं

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