अंतत: हड़ताल, धरना-प्रदर्शन उत्तराखंड के डीएनए में है....

Update:2018-01-27 16:58 IST

आलोक अवस्थी

आंदोलन उत्तराखंड के डीएनए में है। मैं हैरान था कि इतनी ज्यादा हड़ताल, धरना-प्रदर्शन आखिर उत्तराखंड में ही क्यों होते हैं। कल एक ज्ञानी पुरुष ने बताया कि चौथी शताब्दी से ही इस भूमि में संघर्ष जारी है... बाप रे बाप तब जाके आंख खुली..समझ में आ गया कि भाई जी हमने पूरे देश में होने वाली हड़तालों के रिकार्ड को कैसे तोड़ा। भाई जी परेशान न हो, जब उत्तराखण्ड के बड़े नेताओं का ही संघर्ष नहीं खत्म हुआ, तो बेचारे आम आदमी की क्या बात करें। समझने के लिए चलिए कुछ उन लोगों की चर्चा कर लेते हैं, जिन्हें आपके हिसाब से सबसे ज्यादा मौके मिल गए। आप अकेले ही संघर्ष नहीं कर रहे यहां भी सिलसिलेवार लड़ाई जारी है। एक-एक कर समझते जाइए।

कांग्रेस के ऐसे ही एक संघर्षवान नेता है। श्रीमान किशोर उपाध्याय जी। ये भी १९८४ से संघर्षरत हैं। गांधी परिवार के सबसे करीब होने के बाद भी इनका संघर्ष खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा.. जब किशोर भाई जीतते हैं तो कांग्रेस की सरकार नहीं बनती। जब बनती है तो बेचार कुछ वोट से पीछे रह जाते हैं। पिछली बार जीत जाते तो बहुगुणा जी का नंबर ही नहीं आता। अब समझ में आया सारे खेल डीएनए का है। अब उत्तराखंड में जन्मे हैं तो संघर्ष तो तकदीर में लिखाके ही आए हैं।

ऐसे ही है बीजेपी के अध्यक्षजी यानी अजय दा वो भी इस डीएनए के शिकार हैं। जब जीतते हैं तो उनकी पार्टी की सरकार नहीं बनती। पिछली बार जीते नेता प्रतिपक्ष बने... पार्टी से अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी भी मिली। जी-तोड़ मेहनत करी... कोई पहाड़ नहीं छोड़ा। पचपन सीटें जिता लाए लेकिन अपनी नहीं बचा पाए। हाय रे डीएनए। सरकार के मुखिया बनते बनते रह गये। संघर्ष आंदोलन बस यही इनकी भी तकदीर में है, क्या करें। इन्होंने भी तो उत्तराखंड की धरती से ही जन्म लिया है। ये तो थे ताजे वाले उदाहरण । कुछ पीछे चलते हैं। उत्तराखंड के निर्माण के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष करने वाली पार्टी को ही ले लें। अरे अपनी यूकेडी यानी उत्तराखंड क्रांति दल। इन्हें तो चुनाव आयोग ने कुर्सी तक बतौर निशान दे दी थी लेकिन बेचारे अभी तक संघर्ष कर रहे हैं। कुर्सी नहीं मिली तो नहीं मिली चुनाव चिन्ह से ही समझौता करना पड़ रहा है।

अब भगत दा के बिना तो मामला ही अधूरा है। भगत दा भी कितने पुराने हैं। संघर्ष इनका पीछा भी नहीं छोड़ रहा। संघी-जनसंघी बेचारे भगत दा को भी कुर्सी बड़े संघर्ष के बाद मिली लेकिन उसके बाद तो जैसे हाय लग गई। तबसे लेकर अब तक हाय-हाय क्या क्या संघर्ष नहीं किया दादा ने, नहीं मिली तो नहीं मिली..। अब मोदी जी के दौर में क्या उम्मीद करें। संघर्ष करना था किया। आज भी जारी है। भगत दा परेशान न हों। ये सारा खेल डीएनए का है। संघर्ष ही कराएगा। सत्रह साल के उत्तराखंड का इतिहास देख लो दाजू... एक तिवारी जी को छोड़ कर किसी को भी उत्तराखंड फला नहीं ... वो भी बड़े पराक्रमी थे जब तक कुर्सी पर रहे संघर्ष करते ही रहे। क्या कुछ नहीं हुआ उनके साथ।

पुराने खिलाड़ी थे किसी प्रकार समय पूरे कर गये। अरे हां! हरदा तो रह ही गये। ..उन्होंने कम संघर्ष किया.. नम्बर उनका था कुर्सी ले गये तिवारी जी। पूरे पांच साल हरदा लगे रहे। तकदीर में संघर्ष जारी रहा। फिर मौका आया तो जज साहेब..दस जनपथ का आर्डर अपने पक्ष में कराकर आ गये.. फिर संघर्ष। बड़ी मुश्किल से तकदीर ने अवसर दिया तो आगे की कहानी एकदम ताजी ही है.. इतना संघर्ष हुआ कि बस आफत बनी नहीं। लेकिन हरदा ने इस बार वो किया जो कोई कांग्रेसी नहीं कर पाया। पूरी पार्टी को ही हरदा ने कमल का फूल पकड़ा दिया। लगा अब चैन मिला।

हरदा प्राइवेट लिमिटेड का रजिस्टे्रशन अभी करवाया ही था कि उत्तराखंड की जनता ने फिर संघर्ष का झण्डा हाथ में पकड़ा दिया। इतने पराक्रमी नेता से बताओ विधानसभा में घुसने तक का मौका भी छीन लिया। हरदा आप परेशान मत होईए कारण मैंने ढूंढ लिया है। आपका कोई दोष नहीं है। आप अपनी पार्टी के तमाम संघर्षवान नेताओं को तसल्ली दे सकते हैं मामला जब डीएनए का हो तो आप क्या कर लोगे और भगत के वशंज क्या कर लेंगे?

ये उत्तराखंड है यहां जो भी आएगा जब तक रहेगा, संघर्ष करेगा और करते करते, मौन साधना में चला जाएगा। चाहे वो भगत दा हों, हरदा हों या अपने नौजवान साहित्यकार डॉक्टर रमेश.. कोई ‘निशंक’ नहीं हो सकता। शंका हर क्षण हर पल उत्तराखण्ड के डी.एन.ए. में शामिल हैं। समझ रहे हैं न त्रिवेंद्र दा?

(संपादक उत्तराखंड संस्करण)

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