कानपुर: क्रिकेट फैंस बड़ी बेसब्री से 19 मई को पहली बार ग्रीन पार्क में होने आईपीएल मैच का इंतजार कर रहे हैं। सबके नजरें पिच पर भी टिकी हुई हैं कि आखिर मेहमान टीम को किस तरह की पिच दी जाएगी। इस बारे में newztrack.com ने पिच क्यूरेटर शिवकुमार से की। उन्होंने बताया,''मैच के लिए ऐसी पिच तैयार की जा रही है, जिसका एडवांटेज दोनों टीमें उठा सकें। 20-20 के लिए यह एक अच्छा विकेट साबित होगा। इस पिच पर जमकर रन भी बरसेंगे तो गेंदबाज स्टंप भी उखाड़ेंगे। तेज गर्मी की वजह से पिच पर लगातार पानी डाला जा रहा है, ताकि विकेट पूरी तरह ड्राई न हो और नमी बनी रहे। डे-नाइट मैच होने की वजह से टॉस और ओस का रोल काफी अहम होगा।''
पिच क्यूरेटर शिवकुमार के मुताबिक,''ओस का मैच में कितना रोल होगा, यह उस दिन के टेम्पेचर पर डिपेंड करेगा। अगर दिन में गर्मी ज्यादा हुई हो सकता है कि रात में ओस ज्यादा गिरे।गंगा नदी के पास स्टेडियम होने की वजह से हवा में नमी रहती है, जिसका ज्यादातर फायदा तेज गेंदबाजों को मिलता है। ऐसी कंडीशन में गेंद स्विंग होती है और बल्लेबाजी करना आसान नहीं होता है। उन्होंने बताया कि ग्रीन पार्क की पिच में एक तय वक्त के बाद ही बदलाव होते हैं और पिच का मिजाज जल्दी नहीं बदलता है। उम्मीद यही है कि इस पिच पर क्रिकेट फैंस को एक रोमांचक मुकाबला देखने को मिलेगा।''
अलग-अलग वजन के इस्तेमाल होते हैं रोलर्स
एक आइडियल पिच बनाने में 6 अलग-अलग वजन के हैवी रोलर्स का इस्तेमाल किया जाता है। पिच क्यूरेटर शिवकुमार ने बताया कि एक रोलर को 7 से 8 पासेज ( पिच के एक छोर से दूसरे छोर तक) चलाया जाता है। सबसे पहले पिच पर 300 किलो. के रोलर का इस्तेमाल किया जाता है। इससे पिच की सबसे ऊपरी लेयर पर पड़ी काली मिट्टी एक बराबर हो जाती है। इसके बाद 500 किलो., 750 किलो., 1 टन , 2 टन और 2.5 टन वजन तक का रोलर चलाया जाता है। एक परफेक्ट पिच बनाने में रोलिंग का अहम रोल होता है। इससे विकेट पर पेस और बाउंस आता है। रोलिंग सही समय पर और सही तरीके से की जानी बेहद जरूरी होती है। हर पिच क्यूरेटर अपने मुताबिक पिच पर रोलर्स का इस्तेमाल करता है। उन्होंने बताया कि ग्रीन पार्क की पिच पर रोलिंग होने के बाद 45 से 50 फीसदी घास खत्म हो जाएगी। वहीं, पिच को फाइनल टच देने के बाद इस पर केवल 3 से 4 मिमी. ही घास बचेगी।
गंगा की वजह से ग्रीन है ग्रीन पार्क
गीन पार्क स्टेडियम के ठीक पीछे गंगा नदी बहती है। इसकी वजह से वहां आसपास का ग्राउंड वॉटर लेवल काफी ऊंचा है। इसका सीधा असर पिच पर भी पड़ता है। कम घास रहने के बावजूद सतह पर नमी जल्दी आ जाती है। शिवकुमार ने बताया कि गंगा नदी की वजह से क्लाइमेट पर काफी असर पड़ता है और मैच में पिच के साथ-साथ टॉस का रोल भी अहम हो जाता है।
ऐसे बनती है पिच
शिवकुमार ने बताया कि बीसीसीआई की नई गाइडलाइंस के मुताबिक पिच बनाने में थ्री लेयर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाता है। सबसे पहले 4 इंच की लेयर ग्रेवल (स्टोन पार्टिकल्स/गिट्टी) की बिछाई जाती है। इसके बाद इतने ही इंच की पीले रंग की लोमी सॉयल (मिट्टी) की लेयर उस पर डाली जाती है। ये बाग-बगीचों में इस्तेमाल होने वाली मिट्टी से थोड़ी ज्यादा रिफाइंड होती है। इन दो लेयरों को बिछाने के बाद इस पर 8 इंच की मोटी ब्लैक सॉयल (काली मिट्टी) की लेयर डाली जाती है, लेकिन इसे एक साथ नहीं डाला जाता है। 5 इंच तक ब्लैक सॉयल की लेयर डालने के बाद ग्रास प्लांटेशन का काम किया जाता है। इसके बाद फिर बाकी बची तीन इंच की मोटी ब्लैक सॉयल लेयर को इस पर बिछाया जाता है। तीनों लेयरों को डालने के बाद वॉटरिंग और रोलिंग का काम किया जाता है।
3 महीने में बनती है नई पिच
शिवकुमार के मुताबिक, उनके पिच बनाने का तरीका थोड़ा सा अलग है। वो लोमी सॉयल की लेयर बिछाने के बाद ही ग्रास प्लांट कर देते हैं। ऐसा करने से विकेट जल्दी ड्राई होता है। एक नई पिच बनाने में जहां तीन महीने का वक्त लगता है, वहीं मुकाबले से पहले बनी हुई पिच के रेनोवेशन में 45 दिन लगते हैं। उन्होंने बताया कि जिस मिट्टी में क्ले की मात्रा जितनी ज्यादा होगी, वो उतनी ही ठोस और उसमें कसावट भी बाकी मिट्टियों से ज्यादा होती है। ऐसी मिट्टी से बनी क्रिकेट पिच जल्दी टूटती नहीं है।