Amritsar Ke Red Tower Ki Kahani: 82 वर्षों तक कायम खड़े रहे गिरजाघर जैसे दिखने वाले रेड टावर की कहानी
Amritsar Red Tower History: श्री दरबार साहिब की परिक्रमा की पुरानी तस्वीरों में आपने एक लाल रंग के ऊँचे टावर की उपस्थिति को नोटिस किया होगा। हालांकि ये टावर आज वहां मौजूद नहीं है, लेकिन यह अपनी अमिट छाप और कहानी छोड़ गया है।;
Red Tower Ki Kahani (फोटो साभार- सोशल मीडिया)
Red Tower History: बँटवारे से पहले के अमृतसर की पुरानी तस्वीरों में श्री दरबार साहिब की परिक्रमा (Sri Darbar Sahib Parikrama) में एक गिरजाघर- जैसे लाल रंग के ऊँचे टावर की उपस्थिति अक्सर दिखाई देती है। यह टावर, जिसे लोग आमतौर पर ‘रेड टावर’ (Red Tower) या ‘घंटाघर’ (Ghantaghar) के नाम से जानते थे, आज भले ही मौजूद न हो, लेकिन यह अपने पीछे एक लंबी ऐतिहासिक और राजनीतिक कहानी छोड़ गया है।
श्री दरबार साहिब की बढ़ती धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को देखकर अंग्रेज़ों ने पंजाब पर नियंत्रण स्थापित करने के कुछ ही समय बाद अमृतसर में ईसाई धर्म से जुड़ी कई इमारतों का निर्माण करवाना शुरू कर दिया था। इस सिलसिले की शुरुआत श्री दरबार साहिब की परिक्रमा से सटे ‘बुंगा सरकार’ अथवा ‘बुंगा महाराजा रणजीत सिंह’ को अमृतसर मिशन स्कूल की ईसाई मिशनरी की संपत्ति घोषित करके की गई। जल्द ही इस बुंगे में अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर एम.सी. सांडर्स ने पुलिस थाना, एक छोटी जेल और एक कचहरी की स्थापना कर दी।
गिरजाघर बना रेड टॉवर
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
कुछ वर्षों के भीतर, श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में मौजूद बाकी बुंगों में से सबसे खूबसूरत और भव्य बुंगे को गिरा दिया गया। इसके तुरंत बाद, उसके साथ सटे ‘बुंगा कंवर नौनिहाल सिंह’ और ‘बुंगा लाडुवालिया’ को भी ढहा दिया गया। इसी स्थान पर वर्ष 1863 में एक चबूतरे का निर्माण शुरू हुआ, जो 50,000 रुपये की लागत से 1874 में पूर्ण हुआ। यह चबूतरा एक ईसाई गिरजाघर जैसा प्रतीत होता था और धीरे-धीरे ‘रेड टावर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस टावर की सीढ़ियों के माध्यम से बड़ी संख्या में श्रद्धालु बेरी बाबा बुढ़ा साहिब के पीछे से श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में प्रवेश करते थे।
रेड टावर का निर्माण ब्रिटिश सरकार की एक सोची-समझी योजना का हिस्सा था। यह केवल एक स्थापत्य संरचना नहीं था, बल्कि एक औपनिवेशिक प्रतीक था, जिसके ज़रिए ब्रिटिश श्री दरबार साहिब पर अपनी निगरानी बढ़ाना चाहते थे। ऐसा माना जाता है कि इस टावर के माध्यम से सिख धर्मस्थल की गतिविधियों पर निगरानी रखी जाती थी। साथ ही, अंग्रेजों की योजना इस टावर में एक छोटा गिरजाघर स्थापित करने की भी थी, हालांकि वह योजना पूरी नहीं हो सकी।
‘चबूतरा घंटाघर'
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
यूरोपीय गोथिक शैली में बने इस चबूतरे की डिज़ाइन अमृतसर नगर निगम की सार्वजनिक निर्माण विभाग (DPW) के एग्जीक्यूटिव चीफ इंजीनियर जॉन गार्डन ने तैयार किया था। इसके निर्माण का ज़िम्मा अमृतसर के प्रसिद्ध राजमिस्त्री शर्फदीन को दिया गया। यह टावर लगभग 145 फीट ऊँचा था और इसे पूरी तरह से लाल रंग से रंगा गया था। इसी कारण इसे शुरू में 'लाल चबूतरा' या ‘रेड टावर’ कहा गया। बाद में, इसमें एक बड़ी घड़ी लगाए जाने के बाद इसे ‘घंटाघर’ और 'चबूतरा घंटाघर' के नाम से जाना जाने लगा।
इस प्रकार, रेड टावर केवल ईंट और पत्थर की एक संरचना नहीं थी, बल्कि यह उस समय के धार्मिक, सांस्कृतिक और औपनिवेशिक तनावों का जीवंत प्रतीक थी। इसकी कहानी न केवल अमृतसर के ऐतिहासिक परिदृश्य का हिस्सा है, बल्कि यह सिख इतिहास और ब्रिटिश औपनिवेशिक रणनीतियों की भी गवाही देती है।
एक औपनिवेशिक प्रतीक के इर्द-गिर्द सिख चेतना की कहानी
अमृतसर में स्थित रेड टावर, जिसे ‘घंटाघर’ के नाम से भी जाना जाता है, केवल एक घड़ी लगाने का स्थान नहीं था। यह ब्रिटिश हुकूमत की एक ऐसी स्थापत्य योजना थी जो उनकी सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक मानसिकता को दर्शाती है। भारत के अन्य शहरों की तुलना में इस टावर को लेकर अमृतसर में विशेष विरोध सामने आया—और इसके पीछे गहरी धार्मिक और सामाजिक भावना थी।
भारत के अन्य शहरों में घंटाघरों का निर्माण (Clock Towers In Other Cities Of India)
लखनऊ घंटाघर (फोटो साभार- सोशल मी़डिया)
ब्रिटिश शासनकाल में पूरे भारत में अलग-अलग शहरों में घंटाघरों का निर्माण कराया गया। इनमें शामिल हैं:
पंजाब और पाकिस्तान के शहर: फाजिल्का, लुधियाना, अमृतसर, सियालकोट, मुल्तान, फैसलाबाद (तत्कालीन लायलपुर), सख्खर (सिंध), हैदराबाद।
उत्तर भारत: हुसैनाबाद (लखनऊ), अलीगढ़, मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश), सब्जी मंडी और हरी नगर (दिल्ली), देहरादून।
दक्षिण भारत और पश्चिम भारत: हैदराबाद (दक्षिण), मुंबई, ऊटी।
अन्य महत्वपूर्ण शहर: पिलानी।
इन सभी स्थानों पर घंटाघर आमतौर पर किसी चौराहे, सरकारी भवन, या नगर प्रशासनिक परिसर में बनाए गए। उनके निर्माण पर न जनता का विरोध हुआ और न ही स्थानीय धार्मिक भावनाओं को आहत किया गया।
अमृतसर: जहां घंटाघर बना प्रतिरोध का प्रतीक
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
जब अमृतसर में इसी तरह का घंटाघर बनाने की योजना बनी, तो इसका स्थान विवादास्पद था। यह श्री दरबार साहिब की परिक्रमा से बिलकुल सटा हुआ था। सिखों और हिंदुओं ने इसका जोरदार विरोध किया क्योंकि यह स्थल उनके धर्म और आत्मा का केन्द्र था। शेष भारत के घंटाघर धार्मिक स्थलों से दूर बने थे। लेकिन अमृतसर में ब्रिटिशों ने जान-बूझकर इसे दरबार साहिब की परिक्रमा से जुड़ी भूमि पर बनाना चाहा। यही वजह थी कि स्थानीय लोगों ने इसे सख्त अपमान समझा और विरोध जताया।
गिरजाघर की योजना और स्थानीय विरोध
ब्रिटिश शासन के इरादे स्पष्ट थे—वे इस टावर में एक छोटा गिरजाघर शुरू करना चाहते थे। लेकिन अमृतसर के निवासियों के प्रतिरोध ने उनकी यह योजना विफल कर दी। भारी जनआक्रोश और धार्मिक भावनाओं को देखकर अंग्रेज़ों को इसमें गिरजाघर खोलने का साहस नहीं हुआ। हालांकि, उन्होंने इसका निर्माण कार्य पूरा करवाया।
स्थापत्य विवरण: एक औपनिवेशिक शैली का नमूना
आंतरिक संरचना: इस टावर के निचले कक्ष का आकार लगभग 20 x 20 फुट था।
निर्माण ऊँचाई: जबकि श्री दरबार साहिब को सिख विनम्रता के प्रतीक स्वरूप भूमि के निचले स्तर पर बनाया गया, रेड टावर को जमीन से लगभग 10 फुट ऊँचा बनाकर ब्रिटिशों ने अपने औपनिवेशिक घमंड को दर्शाया।
मूल ऊंचाई: प्रारंभ में टावर की ऊंचाई सीमित थी, लेकिन बाद में इसमें और मंजिलें जोड़ी गईं और चारों ओर बड़े पत्थरों की घड़ियां लगा दी गईं।
पुनर्निर्माण लागत: इस टावर के विस्तार और पुनर्निर्माण पर लगभग ₹23,000 खर्च हुए।
घंटाघर की कार्यप्रणाली और प्रभाव (Functioning and Effect of Clock Tower)
इस टावर में रात के समय रोशनी की व्यवस्था की जाती थी जिससे दूर-दूर तक समय की जानकारी मिलती थी। हर घंटे के बाद घड़ी से ‘टल’ की आवाज़ निकलती थी, जो कई मीलों तक सुनी जा सकती थी। यह टावर केवल समय बताने का माध्यम नहीं था, बल्कि एक औपनिवेशिक निगरानी और प्रभुत्व का प्रतीक भी बन गया था।
सामाजिक उपयोग और अंग्रेज़ों की भागीदारी
सन् 1923–24 में घंटाघर के प्लेटफॉर्म और इसके सामने स्थित तांगा स्टैंड के फर्श को पक्का करने पर ₹4,000 का खर्च किया गया। यह हिस्सा टावर के पूर्वी दरवाजे के आगे बना हुआ था। विशेष अवसरों जैसे दीवाली और गुरुपर्व पर जब श्री दरबार साहिब में दीपमालाएं और आतिशबाजी होती थीं, तो ब्रिटिश अधिकारी और स्थानीय अमीर वर्ग इस थड़े ( प्लेटफार्म) पर कुर्सियां लगाकर उस दृश्य का आनंद लेते थे।
रेड टावर—एक विवादास्पद औपनिवेशिक स्मारक
रेड टावर या घंटाघर केवल एक स्थापत्य संरचना नहीं था, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत की उस मानसिकता का प्रतीक था जिसमें धार्मिक संवेदनाओं की अनदेखी कर सत्ता और प्रभुत्व स्थापित करना प्राथमिकता थी। अमृतसरवासियों के विरोध ने इस स्मारक को एक राजनीतिक और धार्मिक चेतना का केंद्र बना दिया।
जहां अन्य शहरों में ऐसे टावर सहमति और उपयोग का विषय बने, वहीं अमृतसर का रेड टावर लोगों के आत्मसम्मान और धार्मिक अधिकारों की लड़ाई का मूक गवाह बनकर इतिहास में दर्ज हो गया।
सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
घंटा-घर के सामने बने विशाल थड़े (प्लेटफार्म) पर, छुट्टी वाले दिनों में स्थानीय लोग खास तौर पर एकत्रित होते थे। यहाँ का वातावरण जीवंत और मेलों जैसा होता था।
कबूतरों को दाना डालना: यह स्थान उन बुजुर्गों का भी प्रिय अड्डा था जो शांति से बैठकर कबूतरों को दाना डालते और दिन बिताते थे।
मनोरंजन और खरीदारी: मेलों और खास दिनों पर यहां खाने-पीने की छाबड़ियाँ (स्टॉल), नटों के करतब, तमाशे और लोक कलाकारों की भीड़ रहती थी। यह स्थल लोगों के लिए एक सामूहिक मनोरंजन और मेलजोल का केंद्र बन गया था.
आसपास की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाएं
रेड टावर के निकट ही श्री हरमंदिर साहिब की परिक्रमा होती थी। इस परिसर में:
कड़ाह प्रसाद बनाने वाले हलवाई: श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए गए प्रसाद को तैयार करने के लिए हलवाई की दुकानों की पंक्तियाँ थीं।
छोटी-छोटी सरायें: यात्रियों और तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए पास में अनेक छोटी सरायें बनाई गई थीं, जो उस समय की सिख अतिथि-संस्कृति का हिस्सा थीं।
परिक्रमा की संकीर्णता और परिवर्तन की आवश्यकता
श्री दरबार साहिब की परिक्रमा, जो धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, समय के साथ संकरी होती जा रही थी। इसका एक बड़ा कारण था रेड टावर और उसके आसपास बने अन्य बुंगे (प्राचीन भवन), जिनकी उपस्थिति रास्ते को बाधित कर रही थी। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए, धार्मिक प्रशासन ने इन पुराने और जर्जर हो चुकी इमारतों को हटाने का निर्णय लिया। 29 अक्टूबर, 1943 को प्रातः 10 बजे, इस परिवर्तन की शुरुआत घड़ियालिया बुंगे को गिराकर की गई।
रेड टावर का अंत: एक युग की समाप्ति
करीब 82 वर्षों तक, श्री दरबार साहिब की परिक्रमा में “मखमल में टाट के पाबंद” की तरह खड़ा यह रेड टावर, अंततः सन् 1945 के अंत में विधिपूर्वक गिरा दिया गया। इसके साथ ही, एक औपनिवेशिक दंभ के प्रतीक का अंत हुआ और दरबार साहिब की परिक्रमा को उसके मूल स्वरूप के करीब लाने की दिशा में बड़ा कदम उठाया गया।
स्वतंत्र भारत का नया प्रतीक
घंटा-घर की नई इमारत का निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद आरंभ हुआ। सन् 1947 के अंत में, श्रद्धेय श्री 108 बाबा गुरमुख सिंह ने नई घंटा-घर इमारत की आधारशिला रखी। यह निर्माण भारतीय धार्मिक भावनाओं और स्वाभिमान का प्रतिनिधित्व करता था, जो उपनिवेशवाद के विरुद्ध सिख चेतना का नया प्रतीक बना।
विरासत का प्रभाव: नाम आज भी जीवित
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
यद्यपि रेड टावर को समाप्त हुए 75 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन उसकी स्मृति आज भी शहर में जीवित है। जिस बाज़ार के सामने वह खड़ा था, उसे आज भी ‘घंटा-घर बाजार’ कहा जाता है। वहीं उससे जुड़ा चौराहा आज भी स्थानीय लोगों की ज़ुबान पर ‘घंटा-घर चौंक’ के नाम से जाना जाता है।
अमृतसर का घंटा-घर सिर्फ एक भवन नहीं था, बल्कि एक कालखंड का गवाह, सामाजिक मेलजोल का केंद्र, धार्मिक परिक्रमा में हस्तक्षेप करने वाला उपनिवेशिक प्रतीक, और अंततः सिख धार्मिक चेतना की जीत का संकेत बन गया। उसका पतन और पुनर्निर्माण भारत की सांस्कृतिक पुनरुत्थान की यात्रा में एक ऐतिहासिक अध्याय के रूप में दर्ज है।