Rajasthan Vrindavan History: क्या आप जानते हैं राजस्थान में भी है वृंदावन, यहां जानिए इसका पूरा इतिहास
Rajasthan Mein Vrindavan: जिस प्रकार मेवाड़ में उदयपुर अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, उसी प्रकार मारवाड़ में मारोठ को इसकी प्राकृतिक भव्यता और ऐतिहासिक महत्व के लिए विशेष स्थान प्राप्त है।;
Rajasthan Vrindavan History
Rajasthan Vrindavan History: राजस्थान के नागौर ज़िले में स्थित ऐतिहासिक कस्बा मारोठ (Maroth), जिसे कभी महाराष्ट्र नगर, महारोठ और मारवाड़ का वृंदावन (Vrindavan of Marwar) जैसे नामों से भी पुकारा गया, अपने समृद्ध इतिहास, शिलालेखों और पुरातात्विक धरोहरों के लिए प्रसिद्ध रहा है। इस स्थान को ‘महारोठ’, ‘महाराष्ट्र नगर’, या ‘मारवाड़ का वृंदावन’ जैसे कई नामों से जाना जाता है। राजस्थान के नागौर ज़िले (Nagaur) में स्थित यह ऐतिहासिक कस्बा अपने भौगोलिक सौंदर्य और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। साहित्यकार संग्राम सिंह मेड़तिया के अनुसार, यह कस्बा चारों ओर से फूलों की सुगंधित घाटियों और पर्वतीय श्रृंखलाओं से घिरा है, जहाँ सुंदर किले और प्राचीन दुर्ग इसकी ऐतिहासिक गरिमा को दर्शाते हैं।
जिस प्रकार मेवाड़ में उदयपुर अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, उसी प्रकार मारवाड़ में मारोठ को इसकी प्राकृतिक भव्यता और ऐतिहासिक महत्व के लिए विशेष स्थान प्राप्त है। यह स्थान नावा रेलवे स्टेशन से मात्र 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
चंदेल और चौहान काल का प्रभाव
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
11वीं-12वीं शताब्दी में यहाँ चंदेल सामंतों का शासन था, जो चौहानों के अधीन कार्यरत थे। इनकी राजधानी रेवासा थी। चंदेल शासक केसरी सिंह ने मारोठ के समीप गड़ा गाँव में भैरव मंदिर का निर्माण करवाया था, जो आज भी श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है।
आज भी चंदेल काल के अवशेष, जैसे– पुराने कुएँ, जिन्हें ‘चंदेलों के कुएँ’ कहा जाता है – मारोठ के इतिहास को जीवंत बनाए रखते हैं। बाद में यह क्षेत्र चौहान वंश के डाला वंशजों के अधीन आया, जिन्हें डालिया या डालाटी भी कहा जाता था। हालांकि इनका शासन लंबे समय तक नहीं टिक पाया।
दहिया वंश का वर्चस्व
प्रसिद्ध किणसरिया अभिलेख (वि.सं. 1056 / ई. 999) के अनुसार, परबतसर के निकट दहिया चच्च के पुत्र विल्हण दहिया ने मारोठ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उसने अपने शासन का केंद्र देपाड़ा गाँव को बनाया। उसके शासनकाल के अवशेष आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में प्राचीन गोवर्धन स्तंभों, ईंटों से निर्मित दुर्गों, मूर्तियों और सरोवरों के रूप में देखे जा सकते हैं। दहिया वंश के कई लोग आज भी स्वयं को ‘देपाड़ा दहिए’ कहकर पहचानते हैं।
विल्हण दहिया न केवल एक शक्तिशाली शासक था, बल्कि उसकी घोड़ी ‘तेजण’ आज भी लोकगाथाओं और मांगलिक गीतों में अमर है। मारवाड़ क्षेत्र में विवाह अवसरों पर जब दूल्हा बारात लेकर निकलता है, तो स्त्रियाँ ‘तेजण है मारोठ री’ गीत गाकर उसकी वीरता को याद करती हैं।
गौड़ वंश का आगमन
मारोठ के ऐतिहासिक परिदृश्य में गौड़ राजवंश की उपस्थिति भी महत्वपूर्ण रही है। ऐसा माना जाता है कि यह राजवंश मूलतः बंगाल (गौड़ बंगाला) से आया था और उसने देशभर में छोटे-छोटे राज्य स्थापित किए। मारोठ, मंगलाना और किणसरिया जैसे क्षेत्रों में इन्होंने दहिया वंश को पराजित कर शासन स्थापित किया।
यह वही समय था जब अजमेर और आसपास के क्षेत्र में प्रसिद्ध राजा पृथ्वीराज चौहान-तृतीय (1177–1192) का शासन था। गौड़ों का शासनकाल अपेक्षाकृत अल्पकालिक रहा। लेकिन उन्होंने स्थानीय प्रशासन, स्थापत्य और सांस्कृतिक जीवन में उल्लेखनीय योगदान दिया।
दिल्ली सल्तनत के विस्तार के समय मारोठ की स्थिति
1210 के दशक में जब दिल्ली सल्तनत धीरे-धीरे मज़बूत होती जा रही थी, उसी समय मारोठ ने अपने ऐतिहासिक गौरव की छाप छोड़ी। मंगलाना के शिलालेख (1215 ई.) के अनुसार, रणथंभौर दुर्ग के प्रमुख वल्हणदेव के समय दाधीच वंशीय महामंडलेश्वर कदवुराज देव के पौत्र और पद्मसिंह के पुत्र जयत्रसिंह देव ने मारोठ में एक भव्य बावड़ी का निर्माण करवाया था। यह बावड़ी न केवल जल स्रोत के रूप में, बल्कि स्थापत्य कला के एक अद्वितीय उदाहरण के रूप में भी जानी जाती है।
चौहानों की विजयों में मारोठ की झलक
एक अन्य शिलालेख (1282 ई.) से पता चलता है कि रणथंभौर के प्रसिद्ध चौहान शासक हम्मीर देव ने अपनी विजयों का विस्तार करते हुए मारोठ तक पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। 14वीं शताब्दी के प्रतिष्ठित जैन कवि नयचन्द्रसूरि ने अपनी रचना हम्मीर महाकाव्य में मारोठ का उल्लेख ‘महाराष्ट्र नगर’ के रूप में किया है। यह नाम 18वीं सदी के ग्रंथों में भी मिलता है, जिससे इस स्थान की सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है।
मुग़ल युग और मारोठ की राजनीतिक उठापटक
17वीं शताब्दी में मुग़ल सम्राट जहाँगीर (1605–1627) ने मारोठ के शासक गोपालदास को आसेरा का किलेदार नियुक्त किया था। जहाँगीर के विरुद्ध हुए विद्रोह के समय गोपालदास और उनके पुत्र विक्रम ने शाहज़ादा ख़ुर्रम (बाद में शाहजहाँ) की ओर से युद्ध किया था। उनकी इस वफ़ादारी का इनाम गोपालदास के अन्य पुत्र विट्ठलदास को मिला, जिसे न केवल मारोठ की गद्दी मिली, बल्कि उसे 1630 ई. में रणथंभौर का शासक भी बना दिया गया।
विट्ठलदास और उसके उत्तराधिकारियों का शासन
शाहजहाँ के तख़्तारूढ़ होने के बाद विट्ठलदास को 1660 में रणथंभौर का हाकिम तथा 1640 में आगरा का सूबेदार एवं किलेदार नियुक्त किया गया। विट्ठलदास के पुत्र अर्जुन गौड़ के शासनकाल में मारोठ ने राजनीतिक और भौगोलिक दोनों रूपों में काफी विस्तार देखा। अर्जुन गौड़ की महत्वाकांक्षा ने मारोठ को एक मज़बूत सत्ता के रूप में खड़ा किया।
1658 का युद्ध: गौड़ बनाम शेखावत
1658 ई. में मारोठ से 24 किलोमीटर दूर घाटवा के मैदान में एक निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें गौड़ और शेखावत सेनाओं ने आमने-सामने की टक्कर ली। मारोठ के गौड़ शासकों की खंडेला के शेखावतों से गहरी दुश्मनी थी। इसी दौरान रघुनाथ सिंह मेड़तिया का नाम उभरकर सामने आया, जो मेड़ता के शासक वीर जयमल्ल मेड़तिया के प्रपौत्र थे।
रघुनाथ सिंह को शाहजहाँ द्वारा ‘नरेश’ की उपाधि, मारोठ की 168 तथा सांभर जागीर के 36 गांव प्रदान किए गए थे। इसके अतिरिक्त जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह ने भी उन्हें नरेश की मान्यता दी थी।
औरंगज़ेब का हस्तक्षेप और सत्ता परिवर्तन
घाटवा युद्ध में रघुनाथ सिंह को अपने ननिहाल और ससुराल पक्ष के शेखावत सरदारों की सैन्य सहायता प्राप्त थी। मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने इस संघर्ष में शेखावत पक्ष का समर्थन करते हुए गौड़ सैनिकों को पराजित कर दिया। विजय के पश्चात 1659 ई. में औरंगज़ेब ने मारोठ परगने को अजमेर सूबे में सम्मिलित कर रघुनाथ सिंह को सौंप दिया।
हालांकि, गौड़ सैनिकों ने हार नहीं मानी और गांगवा से लेकर रोहिणी गांव तक संघर्ष जारी रखा। परंतु अन्ततः रघुनाथ सिंह मेड़तिया की निर्णायक जीत ने मारोठ के भविष्य की दिशा तय कर दी।
मारोठ के पंचमहल और राजा रघुनाथसिंह का युग
राजा रघुनाथसिंह ने अपने पांच पुत्रों को ताज़ीम ठिकाना और जागीरें प्रदान की थीं, जो मींडा, जिलिया, लूणवा, पांचोता और मारोठ की रियासतें थीं। इन पांच रियासतों को मिलाकर इन्हें ‘मारोठ के पंचमहल’ के नाम से जाना गया। विशेष रूप से मींडा और जिलिया, मारोठ राज्य की डेढ़ सौ घोड़ों की वतन जागीर के समकक्ष मानी जाती थीं।
‘वतन जागीर’ उन जागीरों को कहा जाता था जो किसी एक प्रांत में स्थायी रूप से दी जाती थीं, जबकि अन्य मनसबदारों की जागीरें स्थानान्तरित की जा सकती थीं। रघुनाथसिंह ने 17वीं शताब्दी के दौरान कई युद्धों का नेतृत्व किया और वीरता का प्रदर्शन किया। अंततः वे सन 1680 में पुष्कर स्थित ब्रह्मा मंदिर और अन्य पवित्र स्थलों की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी स्मृति में हर वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष की तेरस को मारोठ में एक भव्य समारोह का आयोजन होता है।
ब्रिटिश काल और आधुनिक युग में मारोठ
19वीं शताब्दी में मारोठ अंग्रेज़ी शासन के अधीन आ गया। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात्, सन 1947 में यह राजस्थान राज्य का अभिन्न अंग बन गया।
ढूंढाड़ और मारवाड़ का प्रवेश द्वार
भौगोलिक दृष्टि से मारोठ राजस्थान के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों—ढूंढाड़ (जयपुर) और मारवाड़—के बीच एक प्रमुख प्रवेश द्वार के रूप में स्थित है। यह कस्बा अरावली की तलहटी में बसा है। इसके चारों ओर के पहाड़, झरने और रेतीले टीलों का संगम एक अद्भुत प्राकृतिक छटा प्रस्तुत करता है।
कभी यह क्षेत्र चंदेल, दहिया, गौड़ और मेड़तिया (राठौड़) वंशों के अधीन रहा, जिन्होंने यहां अनेक भवनों और मंदिरों का निर्माण कराया, जो आज भी अपनी भव्यता के साथ खड़े हैं।
धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
मारोठ कस्बे की सबसे बड़ी विशेषता इसका धार्मिक समन्वय है। यहां सभी जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के धार्मिक स्थल मौजूद हैं। हर गली और मोहल्ले में मंदिरों की भरमार है, जिससे यह स्थान मानो वृंदावन जैसा प्रतीत होता है।
यहां स्थित प्रसिद्ध भैरव मंदिर में देश-विदेश से श्रद्धालु, नवविवाहित युगल और नवजात शिशुओं का मुंडन संस्कार कराने आते हैं। इसके अलावा यहां स्थित भगवान महावीर की 31 फ़ुट ऊंची प्रतिमा और देश की एकमात्र बक्रशाला (जहां बकरे पाले जाते हैं) इसकी विशिष्ट पहचान हैं।
इस कस्बे में अनेक कबूतरखाने, गौशालाएं और मंदिरों में बनी सुनहरी चित्रकारी इसकी सांस्कृतिक संपन्नता और आध्यात्मिक माहौल को उजागर करती हैं।
अहिंसा की परंपरा
मारोठ, राजस्थान में ‘अहिंसा परमो धर्म :’ के आदर्श का पालन करने वाले गिने-चुने क्षेत्रों में से एक है। यहां अहिंसा की भावना केवल धार्मिक उपदेशों तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यवहार में भी दिखाई देती है—जैसे बकरे और कबूतरों के लिए अलग से विश्रामगृह बनाए गए हैं।
मारोठ का वर्तमान और ऐतिहासिक मूल्य
(फोटो साभार- सोशल मीडिया)
आज का मारोठ भले ही एक छोटा सा कस्बा प्रतीत होता हो। लेकिन इसके हर पत्थर में इतिहास की गूंज सुनाई देती है। यहाँ की पहाड़ियाँ, मंदिर, तालाब और लोकगीत – सभी मिलकर एक ऐसे अतीत की कहानी कहते हैं जो गौरवशाली, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।
यह कस्बा न केवल अपने पुरातात्विक महत्व के लिए जाना जाता है, बल्कि इसकी लोकसंस्कृति, संगीत, स्थापत्य और साहित्य में भी इसकी गहरी छाप दिखाई देती है।
इस प्रकार, मारोठ न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्ध है, बल्कि धार्मिक समरसता, सांस्कृतिक विविधता और प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य से भी परिपूर्ण है। इसकी पुरातात्विक धरोहरों का संरक्षण एवं प्रचार न केवल स्थानीय पहचान को मज़बूती देगा, बल्कि भावी पीढ़ियों को भी अपने गौरवशाली अतीत से जोड़ने में सहायक होगा।