Jawar Ka Itihas: जावर, मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि का हिस्सा, कैसे हुई इस खजाने की खोज, क्या थी पूरी कहानी, आइए जानते हैं

Jawar: A Historical Heritage: ज़ावर अरावली की ऊबड़-खाबड़ पर्वत श्रृंखला में बसा हुआ है। यह, वहीं स्थान है, जहां दुनिया की सबसे पुरानी जस्ते की खान मौजूद है। आइए जानते हैं मेवाड़ के इस खजाने के बारे में।;

Written By :  Akshita Pidiha
Update:2025-04-10 12:02 IST

Jawar Ka Itihas (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Jawar Mountain: A Mewar Treasure: प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक धरोहरों के कारण उदयपुर देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण केंद्र है। झीलों और महलों के इस शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर एक अनोखा भूगर्भीय खजाना छिपा है, जिसे हर प्रकृति प्रेमी और इतिहास उत्साही को अवश्य देखना चाहिए।

खजाने का नाम (Jawar Parvat)

यह खजाना है ज़ावर— जो अरावली की ऊबड़-खाबड़ पर्वत श्रृंखला में बसा हुआ है। इस क्षेत्र में कुल सात प्रमुख पर्वत स्थित हैं:- ज़ावर, बरोई, हारणा, मोचिया, बलारिया, कठोलिया और धानताली। इनमें सबसे विशिष्ट है ज़ावर पर्वत (Jawar Mountain), क्योंकि यही वह स्थान है जहां दुनिया की सबसे पुरानी जस्ते की खान (World's Oldest Zinc Mine) मौजूद है। माना जाता है कि यह खान लगभग 2,500 वर्ष पुरानी है। हैरानी की बात यह है कि इन खानों से आज भी जस्ता और सीसा निकाला जा रहा है।

उदयपुर का इतिहास मेवाड़ साम्राज्य की राजधानी के रूप में दर्ज है, जिसमें वर्तमान समय के दक्षिणी राजस्थान का बड़ा हिस्सा शामिल था। उदयपुर से पहले नागदा और चित्तौड़ जैसे समृद्ध नगर मेवाड़ शासकों की राजधानी रहे थे। लेकिन 16वीं शताब्दी में बारूद के प्रयोग से युद्ध की शैली में बदलाव आया और चित्तौड़गढ़ का दुर्ग सामरिक दृष्टि से असुरक्षित माना जाने लगा। इसी कारण महाराणा उदय सिंह द्वितीय (1540–1572) ने पिछोला झील के किनारे वर्ष 1553 से 1559 के बीच एक नई राजधानी की स्थापना की, जिसे आज हम उदयपुर के नाम से जानते हैं।

मेवाड़ साम्राज्य न केवल शक्तिशाली था, बल्कि अत्यंत समृद्ध भी था। विशेष रूप से 15वीं और 16वीं शताब्दी में महाराणा कुंभा और महाराणा सांगा जैसे महान शासकों के शासनकाल में यह क्षेत्र गौरव की चरम सीमा पर पहुंचा। परंतु एक महत्वपूर्ण पहलू जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, वह है – मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि में इस क्षेत्र की भूगर्भीय संपदा की भूमिका।

ज़ावर की खानों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है, जिसका प्रमाण यहां की गई कई पुरातात्विक खोजों से मिलता है। इन खानों से लोहे की प्राचीन छेनियां और मूसल जैसे हथौड़े प्राप्त हुए हैं, जो इन्हीं खनन गतिविधियों से जुड़े माने जाते हैं। कई खानों में अब भी लकड़ी की सीढ़ियों और खनिजों को बाहर लाने के लिए बने ढांचे के अवशेष देखे जा सकते हैं।

जावर एक एतिहासिक धरोहर (Jawar: A Historical Heritage)

ज़ावर सिर्फ खनन केंद्र (Mining Center) नहीं, बल्कि एक समृद्ध ऐतिहासिक धरोहर भी है। यहां प्राचीन मंदिर, एक किला, पत्थरों की चिनाई से बना गुरुत्वाकर्षण बांध, धातुओं के ढेर, अर्क निकालने के मिट्टी के बर्तन, पुराने मकानों और झोपड़ियों के अवशेष आज भी मौजूद हैं। इन सभी विशेषताओं के चलते ज़ावर न केवल मेवाड़ की संपन्नता का साक्षी है, बल्कि यह एक अद्वितीय पुरातात्विक और सांस्कृतिक धरोहर स्थल भी बन गया है।

प्राचीन अभिलेख

ज़ावर के इतिहास की जानकारी हमें चट्टानों पर अंकित प्राचीन अभिलेखों, पारिवारिक पोथियों और आधुनिक डेटिंग तकनीकों से मिलती है। विशेष रूप से मसोली गांव में प्राप्त राजा शिलादित्य गहलोत का समोली अभिलेख (वर्ष 646 ईस्वी) इस क्षेत्र की खनिज संपन्नता और प्राचीन खनन परंपरा का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस अभिलेख से यह स्पष्ट होता है कि उस समय ज़ावर एक समृद्ध और जीवंत नगर था, जहाँ धनवान लोग निवास करते थे और बाहर से भी लोग व्यापार व अन्य उद्देश्यों से यहाँ आया करते थे।

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रीमा हूजा अपनी पुस्तक ‘A History of Rajasthan’ (2006) में लिखती हैं कि समोली अभिलेख से यह संकेत मिलता है कि एक संगठित व्यापारिक समुदाय ने अरण्यकुपागिरि (आज का ज़ावर) में एक "अगारा" यानी खान की शुरुआत की थी, जो धीरे-धीरे स्थानीय लोगों की आजीविका का प्रमुख स्रोत बन गई। अभिलेख में 18 कुशल इंजीनियरों और सैकड़ों स्वस्थ एवं प्रशिक्षित श्रमिकों का उल्लेख भी किया गया है, जो इस बात का प्रमाण है कि 7वीं शताब्दी में गुहिल वंश के शासनकाल के दौरान ज़ावर में संगठित और विकसित खनन गतिविधियाँ संचालित हो रही थीं।

खान, न सिर्फ खनिज की खोज बल्कि सामाजिक संगठन

इस प्रकार, ज़ावर की खानों का इतिहास केवल खनिज दोहन की कहानी नहीं है, बल्कि यह एक प्राचीन तकनीकी और सामाजिक संगठन की मिसाल भी पेश करता है, जिसने सदियों पहले ही खनन को एक व्यावसायिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधि के रूप में विकसित कर लिया था।

चांदी की खोज

ज़ावर न केवल जस्ता और सीसे के लिए प्रसिद्ध रहा है, बल्कि यह चांदी के उत्पादन के लिए भी ऐतिहासिक रूप से जाना जाता है। यहां की खानों से निकलने वाला चांदी मुख्यतः सीसे के अयस्क से प्राप्त होता है, क्योंकि इस क्षेत्र में चांदी का पृथक अयस्क नहीं पाया जाता। माना जाता है कि ‘ज़ावर’ नाम की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘ज़ेवर’ से हुई है, जिसका अर्थ होता है – आभूषण। यह धारणा इसलिए भी बल पाती है क्योंकि अतीत में यहां चांदी के गहनों का निर्माण होता था, और अरब व्यापारी इन्हें गुजरात के बंदरगाहों के माध्यम से विश्व के अन्य हिस्सों में व्यापार हेतु भेजते थे।

महाराणा लाखा (1382–1421 ई.) के शासनकाल में ज़ावर की खानों से प्राप्त चांदी का उपयोग गहनों के निर्माण में बड़े पैमाने पर होता था। कुशल कारीगर इस धातु से आकर्षक ज़ेवर बनाते थे, जिनका निर्यात दूर-दराज़ के इलाक़ों तक होता था। उस काल में ज़ावर एक समृद्ध और जीवंत व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर चुका था।

हालांकि इस क्षेत्र की खानों की खोज कब हुई, इस संबंध में कोई सटीक ऐतिहासिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है, लेकिन पुरातात्विक अवशेषों और स्थानीय स्थापत्य से यह प्रमाणित होता है कि मध्यकालीन युग में ज़ावर एक घनी आबादी वाला, संपन्न नगर रहा होगा। यहां आज भी कई प्राचीन मंदिरों, मकानों और बस्तियों के अवशेष देखे जा सकते हैं, जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक समृद्धि की गवाही देते हैं।

इसके अलावा, इस क्षेत्र में व्यापार और खनन पर जैन समुदाय के प्रभाव के भी कई प्रमाण मिलते हैं। यहां पाए गए अभिलेखों और जैन मंदिरों से संकेत मिलता है कि खनन उद्योग में महाजन और व्यापारी वर्ग की मजबूत भागीदारी थी, और उन्होंने ज़ावर को एक समृद्ध व्यापारिक नगर में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

महाराणा लाखा

कुछ इतिहासकार ज़ावर की खानों की खोज का श्रेय महाराणा लाखा को देते हैं, लेकिन इसके पीछे की वजह 19वीं सदी के ब्रिटिश इतिहासकार जैम्स टॉड हैं। टॉड ने राजपूताना रियासतों पर विस्तृत अध्ययन कर ‘एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा। इस वृत्तांत में उन्होंने उल्लेख किया कि महाराणा लाखा (1382–1421) के शासनकाल में ज़ावर क्षेत्र की टिन और चांदी की खानों की खोज हुई थी। हालांकि, डॉ. रीमा हूजा का मानना है कि संभवतः महाराणा लाखा पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने इन खानों के खनन को संगठित रूप में बढ़ावा दिया और इसे एक आर्थिक गतिविधि में परिवर्तित किया।

ज़ावर की खानों की महत्ता केवल जस्ता या चांदी तक सीमित नहीं थी। मेवाड़ की धरती में तांबा, सीसा, चांदी और जस्ता जैसे कीमती खनिजों के साथ-साथ भवन निर्माण में उपयोगी बालू-पत्थर, चूना-पत्थर, क्वार्टज़ाइट, संगमरमर और सर्पेनटिनाइट जैसे खनिजों का भी भरपूर भंडार था। 15वीं और 16वीं शताब्दियों में मेवाड़ साम्राज्य के उत्कर्ष में इन भूगर्भीय संपदाओं का बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहा।

जल संग्रहण की तकनीक

यह क्षेत्र जल संसाधनों के मामले में भी आत्मनिर्भर था। वर्षा जल का संग्रहण तालाबों और झीलों में इस कुशलता से किया जाता था कि कमज़ोर मानसून के बावजूद पूरे वर्ष पानी की कोई कमी नहीं होती थी। ज़ावर और इसके आसपास की भौगोलिक बनावट, खनिज संपदा, और जल संरचनाओं ने मेवाड़ के शासकों को भव्य दुर्ग, महल और नगरों के निर्माण में सहायता प्रदान की और इन्हीं संसाधनों के चलते वे वैश्विक व्यापार एवं वाणिज्य में भी आगे बढ़ सके।

1950 के दशक में ज़ावर को भारत में सीसा, जस्ता और चांदी के सबसे बड़े भंडारों में से एक माना गया। आज भी इन खानों से सक्रिय रूप से जस्ता और सीसा निकाला जा रहा है। हिंदुस्तान ज़िंक लिमिटेड इस क्षेत्र की चार प्रमुख खानों – मोचिया, बलारिया, ज़ावर माला और बरोई – में खनन का कार्य करती है।

ज़ावर पर वैश्विक ध्यान वर्ष 1983 में तब गया, जब लंदन स्थित ब्रिटिश म्यूज़ियम ने भारतीय शिक्षाविदों और खनिज वैज्ञानिकों के सहयोग से यह मान्यता दी कि ज़ावर विश्व की सबसे पुरानी जस्ता गलाने वाली खान है। यहां से प्राप्त लकड़ी, कोयले और गलन अवशेषों के रेडियोकार्बन डेटिंग से यह प्रमाणित हुआ कि ये गतिविधियां ईसा पूर्व 430 से 100 के बीच की हैं। इस ऐतिहासिक मान्यता ने ज़ावर को वैश्विक खनन विरासत के मानचित्र पर स्थापित कर दिया।

द अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मेटल्स (ए.एस.एम. इंटरनेशनल) ने वर्ष 1988 में ज़ावर क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखा था- “यहां जस्ता गलाने की भट्टियों और संबंधित गतिविधियों के प्राचीन अवशेष मौजूद हैं। गांव की कलात्मक धरोहरें और मंदिरों के अवशेष इस क्षेत्र की धातु-तकनीक की सफलता का प्रमाण हैं। यहां से जस्ता यूरोप निर्यात किया जाता था, जहां उस समय औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हो रही थी, और इसका प्रयोग मुख्यतः पीतल की वस्तुएं बनाने में होता था।”

पुष्पेंद्र राणावत का भूगर्भीय पार्क

पिछले कुछ वर्षों से ज़ावर को भू-विरासत स्थल के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के प्रयास तेज़ हो चुके हैं। एम.एल.एस. विश्वविद्यालय, उदयपुर के भूविज्ञान विभाग के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र राणावत वर्ष 2016 से इस दिशा में सक्रिय हैं। उनका उद्देश्य यहां एक भूगर्भीय पार्क की स्थापना करना है। उनके अनुसार, यह पार्क न केवल ज़ावर की ऐतिहासिक और तकनीकी धरोहर को संरक्षित करेगा, बल्कि वैश्विक मंच पर इसे प्रस्तुत कर भू-पर्यटन को भी बढ़ावा देगा।

गौरतलब है कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने राजस्थान के कुल 10 स्थलों को अब तक राष्ट्रीय भूगर्भीय स्मारक के रूप में मान्यता दी है। प्रो. राणावत और उनके सहयोगियों ने 2019 में ज़ावर क्षेत्र का औपचारिक सर्वेक्षण कर संबंधित कानूनी दस्तावेज भी तैयार कर लिए हैं। इसके साथ ही, महाराणा ऑफ मेवाड़ चैरिटेबल फाउंडेशन और उदयपुर स्थित सिटी पैलेस म्यूज़ियम ने भी ज़ावर के संरक्षण और विकास से जुड़े इन प्रयासों की सराहना की है। प्रो. पुष्पेंद्र राणावत का मानना है कि भविष्य में सिटी पैलेस म्यूज़ियम की सिल्वर गैलरी में ज़ावर की प्राकृतिक विरासत और खनन इतिहास को प्रदर्शित किया जा सकता है।उनके अनुसार, “इससे आम लोगों को यह समझने में मदद मिलेगी कि ज़ावर का भूविज्ञान न केवल मेवाड़ की आर्थिक समृद्धि बल्कि उसकी ऐतिहासिक प्रतिष्ठा के निर्माण में भी कितना अहम रहा है।”

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