Bharat Ka Rahsyamayi Mandir: इंद्र के हाथी का मंदिर, जहां सीढ़ियों से आती है संगीत की धुन

Airavatesvara Mahadev Mandir Ki Kahani: एरावतेश्वर महादेव मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक शांत क्षेत्र में स्थित है, जहां दूर-दूर तक हरियाली और पवित्रता का वातावरण दिखाई देता है। आइए जानें इस मंदिर का महत्व।;

Written By :  Akshita Pidiha
Update:2025-04-10 12:01 IST

Airavatesvara Mahadev Temple (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Airavatesvara Mahadev Temple: भारत की सांस्कृतिक धरोहरों में मंदिरों का स्थान सर्वोपरि है। यहां प्रत्येक मंदिर न केवल ईश्वर की उपासना का केंद्र होता है, बल्कि वह इतिहास, रहस्य और चमत्कारों से भी जुड़ा होता है। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के ओरछा क्षेत्र में स्थित एरावतेश्वर महादेव मंदिर (Airavatesvara Mahadev Mandir) भी इन्हीं रहस्यमयी मंदिरों में से एक है। यह मंदिर आज भी लाखों श्रद्धालुओं, इतिहास प्रेमियों और रहस्य खोजने वालों को अपनी ओर आकर्षित करता है।

मंदिर का भूगोल और अवस्थिति (Airavatesvara Mahadev Mandir Geography and Location)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

एरावतेश्वर महादेव मंदिर मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले (Tikamgarh) के ओरछा से लगभग 8 किलोमीटर दूर स्थित है। यह मंदिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक शांत क्षेत्र में स्थित है, जहां दूर-दूर तक हरियाली और पवित्रता का वातावरण दिखाई देता है। मंदिर तक पहुँचने के लिए ओरछा से एक सुंदर रास्ता जाता है, जिसमें ग्रामीण जीवन की झलक और मध्यकालीन स्थापत्य का प्रभाव देखा जा सकता है।

एरावतेश्वर महादेव नाम का अर्थ

'एरावतेश्वर' नाम अपने आप में एक रहस्य समेटे हुए है। यह नाम दो भागों में विभाजित है— 'एरावत' और 'ईश्वर'।

‘एरावत’ (Airavata) का संबंध इंद्र के हाथी से है, जिसे हिंदू धर्म में देवताओं का वाहन माना जाता है, और 'ईश्वर' अर्थात शिव से। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर में एरावत हाथी ने स्वयं आकर शिव की उपासना की थी और इसीलिए इस स्थान को एरावतेश्वर कहा गया।

प्राचीन काल से चोल शासन तक का इतिहास

मौजूदा समय का कुंभकोणम तालुक कई मंदिरों और मठों के लिए प्रसिद्ध है और इसका इतिहास बेहद समृद्ध है। माना जाता है कि तीसरी ईसा पूर्व सदी में संगम युग के दौरान यहां लोग बसना शुरू हुए थे।

यह क्षेत्र चोल राजाओं के शासनकाल में विशेष रूप से प्रसिद्ध हुआ। चोल राजवंश ने 9वीं से लेकर 12वीं सदी तक दक्षिण भारत पर शासन किया। कुंभकोणम से कुछ किलोमीटर दूर स्थित पज्हयराई शहर चोल राजवंश की राजधानी हुआ करता था।

चोलों के पतन के बाद 1290 ईस्वी में पंड्या राजवंश का और फिर विजयनगर साम्राज्य का शासन इस क्षेत्र में स्थापित हुआ। 16वीं से 18वीं सदी तक यहां नायक राजवंश का नियंत्रण रहा और बाद में मराठों का शासन हुआ। अंततः 1799 में यह क्षेत्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आ गया।

चोल राजाओं द्वारा कला और वास्तुकला का संरक्षण

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

चोल शासक सिर्फ कुशल प्रशासक ही नहीं थे, बल्कि कला और वास्तुकला के महान संरक्षक भी थे। चोल काल में मंदिर निर्माण की परंपरा ने जबरदस्त गति पकड़ी। विशेष रूप से राजराज चोल प्रथम (985-1014) और उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044) के काल में मंदिर स्थापत्य अपने चरम पर पहुंच गया।

इन दोनों शासकों ने पूर्वी चालुक्य राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। चालुक्य वंश 7वीं से 12वीं सदी तक आंध्र प्रदेश के वेंगी क्षेत्र में शासन करता था। मध्यकालीन चोल वंश का अंतिम शासक अधिराजेंद्र चोल था, जिसकी शासनकाल की अवधि बहुत अल्प रही। उसके निधन के बाद कुलोत्तुंग प्रथम ने सत्ता संभाली, जो राजेंद्र चोल प्रथम की पुत्री अम्मांगा देवी और चालुक्य राजा राजाराज नरेंद्र का पुत्र था।

राजाराज द्वितीय और चोल साम्राज्य का पतन

राजाराज द्वितीय (1146–1173 ई.) के शासनकाल में चोल साम्राज्य धीरे-धीरे कमजोर होने लगा। जागीरदार अधिक स्वायत्त हो गए और साम्राज्य की शक्ति क्षीण पड़ने लगी।

हालांकि, उनका शासनकाल तुलनात्मक रूप से शांतिपूर्ण था और इस दौरान साहित्य और कला का खूब विकास हुआ। राजाराज द्वितीय ने तमिल साहित्य को शाही संरक्षण दिया। इसी काल में उत्ताकुत्तर, सेककिज़ार और कंबर जैसे प्रसिद्ध कवियों का उदय हुआ।

चोल राजाओं द्वारा निर्मित मंदिरों में ऐरावतेश्वर मंदिर एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह उन चार मंदिरों में से एक है जिनके शिखर पर विमान-रूप आकृति है। अन्य तीन मंदिर हैं – तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर, गंगैकोंडा चोलेश्वर मंदिर और त्रिभुवनम का कामपेश्वर मंदिर।

हालांकि इसका गोपुरम (मुख्य प्रवेश द्वार) अब नहीं है। लेकिन एक छोटा प्रवेश द्वार अभी भी मौजूद है। मंदिर में गर्भगृह, अर्धमंडप और महामंडप की संरचना है। गर्भगृह में स्थित शिवलिंग को 'राजाराजेश्वरम' कहा जाता है।

निर्माण की पृष्ठभूमि और पार्वती मंदिर

ऐरावतेश्वर मंदिर के निर्माण के पीछे एक रोचक कथा है। कहा जाता है कि तंजावुर मंदिर के निर्माण में बड़ी शिला भेंट करने वाले गाय चरवाहों को प्रसन्न करने के लिए राजाराज द्वितीय ने यह मंदिर बनवाया था।

मुख्य मंदिर के समीप स्थित एक अन्य सुसज्जित मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है, जिसे देवनायकी अम्मान मंदिर कहा जाता है। इसका निर्माण राजा कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में हुआ था।

स्थापत्य और मूर्तिकला की विशेषताएं

हालांकि आकार में यह मंदिर अन्य चोल मंदिरों की तुलना में छोटा है। लेकिन इसकी वास्तुकला अत्यंत विशिष्ट है। मंदिर में शिव से संबंधित पौराणिक कथाओं को दर्शाने वाली मूर्तियां काले पॉलिश किये हुए बसाल्ट पत्थर की बनी हुई हैं।

कुछ प्रमुख मूर्तियां हैं:-

अर्धनारीश्वर: आठ भुजाओं और तीन मुखों वाली मूर्ति, जो शिव का आधा नर और आधा नारी रूप है।

मार्तण्ड भैरव: नृत्य करते हुए तीन मुख वाला शिव का रूप।

शरभ: विष्णु के नरसिंह रूप को शांत करने के लिए शिव द्वारा धारण किया गया रूप।

लिंगोद्भव: ब्रह्मा और विष्णु के विवाद को समाप्त करने के लिए प्रकट शिव का रूप।

मंदिर की दीवारों और मंडपों में 108 शिव संतों की छवियां बनी हुई हैं, जिनमें 63 नयनार संतों के जीवन का चित्रण प्रमुख है।

पेरियापुराण और मंदिर अभिलेख

ऐरावतेश्वर मंदिर में 63 नयनार संतों का चित्रण पेरियापुराण से लिया गया है। यह 12वीं सदी का ग्रंथ है जिसे सेककिज़ार ने लिखा था, जो कुलोत्तुंग द्वितीय के समकालीन थे।

इसके अतिरिक्त मंदिर में कई अभिलेख मिलते हैं, जिनमें राजा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा मंदिर की मरम्मत का उल्लेख है। मुख्य प्रवेश द्वार की बाहरी दीवार पर देवी-देवताओं के नाम अंकित हैं, जिनकी मूर्तियां मंदिर के आलों में स्थापित थीं। अब ये मूर्तियां नहीं हैं, लेकिन अभिलेख शेष हैं।

चोल साम्राज्य का अंतिम काल

राजाधिराज द्वितीय के बाद राजाराज द्वितीय चोल सिंहासन पर बैठे, जिनके शासनकाल में चोल साम्राज्य का पतन स्पष्ट होने लगा। प्रशासनिक कमजोरी, जागीरदारों का प्रभाव और बाहरी आक्रमण चोल साम्राज्य के अंत का कारण बने।

यूनेस्को विश्व धरोहर में स्थान

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

आज तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर, गंगैकोंडा चोलपुरम और ऐरावतेश्वर मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं। इन्हें 'ग्रेट लिविंग चोला टेम्पल्स' अर्थात् ‘महान जीवंत चोल मंदिर’ के नाम से जाना जाता है।

वास्तुकला की विशेषताएं

एरावतेश्वर मंदिर की वास्तुकला बुंदेला शैली का अद्भुत उदाहरण है। इसमें पत्थरों की नक्काशी, भित्तिचित्र, शिखर शैली और गर्भगृह की संरचना बेहद आकर्षक है। मंदिर में मुख्य मंडप, गर्भगृह और परिक्रमा पथ मौजूद हैं।

मंदिर का शिखर उत्तर भारतीय नागर शैली में निर्मित है, जो दूर से ही बहुत भव्य दिखाई देता है। मंदिर के चारों ओर मूर्तियाँ और देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं, जो उस काल की कला और धार्मिक भावना को दर्शाती हैं।

मंदिर से जुड़ी रहस्यमयी मान्यताएं (Airavatesvara Mahadev Temple Mysterious Beliefs)


1. एरावत हाथी की कथा

एक प्रसिद्ध मान्यता के अनुसार, जब इंद्र देव किसी श्राप के प्रभाव में थे, तो उन्होंने अपने वाहन एरावत हाथी के माध्यम से इस शिवलिंग की पूजा करवाई। एरावत ने कई वर्षों तक इस स्थल पर तपस्या की थी। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे मुक्ति दी और वहीं प्रकट हुए। इसलिए इस मंदिर को एरावतेश्वर कहा जाता है।

2. स्वयंभू शिवलिंग

स्थानीय कथाओं के अनुसार, मंदिर का शिवलिंग स्वयंभू यानी कि स्वयंसिद्ध है, जिसे किसी इंसान ने नहीं बनाया। यह शिवलिंग धरती से स्वयं प्रकट हुआ और तभी से यहां पूजा होती आ रही है।

3. चमत्कारी जलधारा

एक और रहस्य यह है कि सावन मास के दौरान मंदिर परिसर के पास स्थित एक चट्टान से जलधारा बहती है, जो सिर्फ श्रावण में ही दिखाई देती है और अन्य महीनों में अदृश्य हो जाती है। इस जलधारा को गंगाजल की तरह पवित्र माना जाता है।

4. संगीत सीढ़ी

एक खास चीज जो इस मंदिर को बेहद दिलचस्प और एकदम खास बनाती है, वो यहां की सीढ़ियां। मंदिर के एंट्री वाले द्वार पर एक पत्थर की सीढ़ी बनी हुई है, जिसके हर कदम पर अलग-अलग ध्वनि निकलती है। इन सीढ़ियों के माध्यम से आप आप संगीत के सातों सुर सुन सकते हैं। इसके लिए आपको लकड़ी या पत्थर से ऊपर से लेकर नीचे तक रगड़ना पड़ेगा। किसी चीज के टकराने से सीढ़ी से संगीत के स्वर निकलते हैं। वैसे आपको कुछ रगड़ने की जरूरत नहीं है, आप सीढ़ियों पर चलेंगे तब भी आपको धुन सुनने को मिल जाएंगे

धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व (Airavatesvara Mahadev Mandir Ka Mahatva)

एरावतेश्वर महादेव मंदिर न केवल एक ऐतिहासिक स्थल है, बल्कि यह तीर्थ स्थल भी माना जाता है। यहाँ पर भक्त विशेष रूप से महाशिवरात्रि, श्रावण सोमवार, और कार्तिक पूर्णिमा पर हजारों की संख्या में दर्शन करने आते हैं।

श्रावण मास में विशेष आयोजन

श्रावण महीने में यहाँ पर शिव अभिषेक, रुद्राभिषेक और पार्थिव पूजन विशेष रूप से किया जाता है। स्थानीय ग्रामीण जन तो पैदल यात्रा करके इस मंदिर तक पहुँचते हैं और जल चढ़ाते हैं।

भगवान शिव और एरावतेश्वर स्वरूप

भगवान शिव को त्रिदेवों में संहारक कहा गया है। लेकिन वे करुणा और तपस्या के भी प्रतीक हैं। एरावतेश्वर स्वरूप में शिव का यह मंदिर उनकी उपचारक, मुक्तिदाता और संकटमोचक छवि को दर्शाता है। यहाँ भगवान शिव भक्तों के दुख हरने वाले और मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले के रूप में पूजे जाते हैं।

शिवलिंग का विशेष महत्व

यहाँ का शिवलिंग सामान्य से कुछ भिन्न प्रतीत होता है—यह आकार में छोटा और अत्यंत प्राचीन है। यह इस बात का प्रतीक है कि यह स्थान पौराणिक काल से मौजूद रहा है और इसकी महिमा अनादि है।

मंदिर का वर्तमान स्वरूप और देखरेख

आज यह मंदिर टीकमगढ़ जिले का एक प्रमुख धार्मिक स्थल बन चुका है। हालाँकि, सरकारी स्तर पर इस मंदिर का बहुत व्यापक विकास नहीं हुआ है। लेकिन स्थानीय लोग और श्रद्धालु स्वयं इसके संरक्षण में लगे रहते हैं।

पंचायत स्तर पर यहाँ एक छोटा भक्त विश्राम गृह भी बनाया गया है। समय-समय पर भंडारे और धार्मिक उत्सव आयोजित किए जाते हैं। कई समाजसेवी संस्थाएँ अब मंदिर के प्रचार-प्रसार में योगदान देने लगी हैं।

एरावतेश्वर महादेव मंदिर न केवल एक साधारण शिव मंदिर है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और पौराणिक धरोहर का एक अमूल्य हिस्सा है। इसका रहस्य, इतिहास और भक्ति भाव इसे विशेष बनाते हैं।

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