Etikoppaka Toys History: लकड़ी के खिलौनों का गांव, आइये जाने इसका इतिहास ?
Etikoppaka Village Toys History: एटिकोप्पका अपने लाह-लेपित लकड़ी के खिलौनों के लिए मशहूर है। ऐटीकोप्पका खिलौने बनाने की कला लक्कपिडातालू (Lakkapidatalu) नाम से प्रचलित है।
Etikoppaka: भारत के आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) राज्य के अनकापल्ली जिले (Anakapalle) में वरहा नदी के तट पर स्थित एक छोटा सा गांव एटिकोप्पका अपने लाह-लेपित लकड़ी के खिलौनों (Village Of Wooden Toys) के लिए मशहूर है। लकड़ी के पारंपरिक ऐटीकोप्पका खिलौने (Etikoppaka Toys) बनाने की कला लक्कपिडातालू (Lakkapidatalu) नाम से प्रचलित है। खिलौने बनाने की यह कला तकरीबन 400 साल से अधिक पुरानी है। अपने बच्चों के लिए अनोखे ढंग के खिलौने देने की चाहत में इस कला को उस क्षेत्र के संपन्न जमींदारों ने संरक्षण दिया। यहां के खिलौने भारत के अलावा दुनिया के अन्य कई देशों में भी निर्यात किए जाते हैं।
इस तरह होता है इन खिलौनों का निर्माण
इन खिलौनों को पारंपरिक रूप से एटिकोप्पाका खिलौने या एटिकोप्पका बोम्मलु के नाम से लोग जानते हैं। इन पारंपरिक एटिकोप्पका खिलौनों को 2017 में, भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग प्राप्त हुआ। आंध्र प्रदेश तथा ऐटिकोप्पका के लिए ये गर्व की बात है। लकड़ी के आकर्षक और रंगीन खिलौने को उनका आकार देकर उन्हें बीज, लाख, छाल की जड़ों और पत्तियों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है। इन खिलौनों को बनाने के लिए बहुत नरम लकड़ी का उपयोग किया जाता है, इस पेड़ का नाम अंकुडू है और ये पेड़ उसी एटिकोप्पका क्षेत्र में पाए जाते हैं। ये पेड़ काटने के बाद फिर दो वर्ष में बड़े हो जाते हैं। इन खिलौने के बनाने की कला को टर्न्ड वुड लाह शिल्प के कला के नाम से भी जाना जाता है।
इन लकड़ी के लट्ठों को हफ्तों तक धूप में सुखाया जाता है ताकि उसके अंदर की सारी नमी सूख जाए। फिर उसकी छाल को निकाल कर लकड़ी को अलग अलग नाप के लट्ठों में काट दिया जाता है। खिलौने बनाने वाले कलाकार लाख का प्रयोग करते हैं, ये लाख कीड़ों के रंगहीन रालयुक्त स्राव से बनाया जाता है। इसे आस पास के जंगलों से आदिवासी द्वारा एकत्र कराया जाता है, फिर इसे रंगों के साथ मिलाया जाता है। सारे रंग ऑर्गेनिक होते हैं, जैसे चटक लाल रंग बिकसा के बीज का चूर्ण पानी में उबालकर, पीला रंग हल्दी से, नीला रंग हल्दी और नील को मिलाकर और काला रंग गुड़, लोहे की जंग और कारकरी के मिश्रण से बनाया जाता है।
खिलौनों के ऑक्सीकरण के दौरान लाख को रंगों के साथ मिलाया जाता है और इस लाख डाई का उपयोग खिलौनों को रंगने में किया जाता है। चूंकि राल एक ज्वलनशील पदार्थ है और यह बहुत जल्दी पिघल जाता है, इसलिए लकड़ी से बनाई गई विभिन्न वस्तुओं पर इसको मढ़ने का काम बहुत सावधानी और सतर्कता से किया जाता है। आजकल व्यवसाई कारण के दौर में कई व्यापारी केमिकल रंगों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।
खासकर ये खिलौने आस पास के गांवों की दैनिक दिनचर्या के ऊपर बनाए जाते थे, जिनमें प्रमुख थे: लकड़ी की तोप, बैलगाड़ी, टॉय ट्रेन, देवी देवताओं की मूर्तियां, लट्टू, रसोईघर का सेट - बर्तन, कलछी, नकली कोयले का चूल्हा, चक्की आदि। पूजा जैसे अवसर और दुल्हन को विवाह के अवसर पर दी जाने वाली वस्तुएं जैसे: हल्दी कुमकुम, सुपारी तथा अन्य सुगंधित द्रव्य रखने के लिए लकड़ी की बनी कटोरियां, गहने रखने के बॉक्स यहां बड़े आकर्षक रूप में दिखते हैं। एक बार आप इस गांव में आए और इन खिलौनों को देखते हैं तो बिना खरीदे रह नहीं सकते।
शिव मंदिर भी बहुत मशहूर
इन खिलौनों के अलावा इस गांव में प्रसिद्ध शिव मंदिर भी है, जिसकी नक्काशी देखते ही बनती है। महाशिवरात्रि और श्रावण महीने में यहां भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है।
कैसे पहुंचे?
यह जगह विशाखापत्तनम से महज 67 किमी की दूरी पर है। देश के किसी भी शहर से हवाई या रेल मार्ग से विशाखापत्तनम पहुंच कर सड़क मार्ग से एटिकोप्पका पहुंचा जा सकता है। अक्टूबर से फरवरी तक का महीना यहां घूमने के लिए सुहावना रहता है। गर्मियों के मौसम को घूमने के लिए न रखें तो अच्छा है, क्योंकि यहां के लोकल गांव में आप घूमकर घरों में खिलौने बनाने का काम खुद देख सकते हैं।
( लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।)