Kamakhya Mandir Ka Rahasya: पौराणिक कथाएं और रहस्यमई घटनाओं के प्रसिद्ध है ये मंदिर, जाने क्या है अविश्वसनीय घटनाओं का राज

Maa Kamakhya Devi Mandir Ka Rahasya: असम में स्तिथ कामाख्या मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। जो अपनी अद्भुत घटनाओं के लिए जाना जाता है।;

Written By :  Shivani Jawanjal
Update:2025-02-10 16:32 IST

Maa Kamakhya Devi Mandir Ka Rahasya (Photo Credit - Social Media)

Maa Kamakhya Devi Mandir Ka Rahasya: कामाख्या मंदिर(Kamakhya Temple), असम(Aasam) के गुवाहाटी(Guwahati) में स्थित एक प्राचीन शक्ति पीठ है, जिसे रहस्यमयी शक्तियों और तांत्रिक क्रियाओं के लिए जाना जाता है। यह मंदिर देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है, जहां कहा जाता है कि उनकी योनि और गर्भाशय गिरे थे। इस मंदिर की सबसे अनोखी बात यह है कि यहां देवी की कोई मूर्ति नहीं है, बल्कि एक प्राकृतिक चट्टान के रूप में देवी की पूजा की जाती है, जो साल में एक बार जून के महीने में स्वतः रक्तस्राव करती है। इस दौरान अंबुबाची मेले का आयोजन होता है, जिसे तांत्रिक परंपराओं और गुप्त विद्याओं का केंद्र माना जाता है। वैज्ञानिकों के लिए यह एक रहस्य बना हुआ है कि यह घटना कैसे होती है, लेकिन भक्तों की आस्था इसे देवी की अलौकिक शक्ति का प्रमाण मानती है।


यह लेख इस धार्मिक तथा रहस्यमई स्थल का विस्तृत वर्णन करता है।

कहा स्थित है कामाख्या देवी का मंदिर?

कामाख्या मंदिर भारत के सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थस्थलों में से एक है। भारत के असम राज्य की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 40 किलोमीटर दूर नीलाचल पहाड़ियों पर स्थित है। जहा शक्ति और उपसना का संगम रहस्यमी घटनाओं से होता है। यह मंदिर देवी सती के 51 शक्तिपीठों में प्रमुख है और यहाँ देवी कामाख्या की पूजा योनि रूप में की जाती है।इसी कारण इसे ‘योनि-स्थान’ के नाम से भी जाना जाता है। हजारों वर्षों से यह मंदिर असम का एक प्रमुख आध्यात्मिक और तांत्रिक केंद्र रहा है, जहां श्रद्धालु शक्ति साधना और देवी उपासना के लिए आते हैं।

कामाख्या मंदिर का पौराणिक इतिहास

इस रहस्यमई मंदिर के निर्माण जानकारी इतिहास में उपलब्ध नहीं है और नाही इसके निर्माण के कोई ठोस प्रमाण मौजूद है।लेकिन इस मंदिर और यहाँ की अलौकिक घटनाओं को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित है।

कलिका पुराण और अन्य हिंदू ग्रंथों के अनुसार, राजा दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे और उनकी पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से हुआ था। हालांकि, राजा दक्ष को भगवान शिव की तपस्वी जीवनशैली और उनके आचरण पसंद नहीं थे। इसलिए, दक्ष भगवान शिव से अप्रसन्न रहते थे। एक बार राजा दक्ष ने एक भव्य यज्ञ (अग्निहोत्र अनुष्ठान) का आयोजन किया। इस यज्ञ में उन्होंने समस्त देवताओं, ऋषियों, मुनियों और राजाओं को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा। सती ने जब अपने पिता के इस यज्ञ के बारे में सुना, तो वे बहुत उत्साहित हो गईं और भगवान शिव से अनुरोध किया कि वे उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दें। भगवान शिव ने सती को समझाया कि बिना निमंत्रण के जाना अनुचित होगा, लेकिन सती अपने मायके जाने की जिद पर अड़ गईं और अकेले ही यज्ञ में पहुंच गईं।


जब सती अपने पिता के पास पहुंचीं, तो उन्होंने देखा कि वहां सभी देवता, ऋषि-मुनि और बड़े-बड़े राजा उपस्थित हैं, लेकिन भगवान शिव का कोई उल्लेख नहीं किया गया। उन्होंने अपने पिता से भगवान शिव को न बुलाने का कारण पूछा। इस पर राजा दक्ष ने क्रोधित होकर भगवान शिव के प्रति अपमानजनक बातें कहीं और उनका अपमान किया। राजा दक्ष की यह बातें सुनकर सती अत्यंत दुखी और क्रोधित हो गईं। और इसीलिए सती ने अपनी योगशक्ति से अग्नि प्रकट की और उसी में स्वयं को भस्म कर लिया।

जब भगवान शिव को सती के आत्मदाह की खबर मिली, तो वे अत्यंत क्रोधित हो गए। उनके क्रोध से सृष्टि में हलचल मच गई। उन्होंने राजा दक्ष का अंत किया और शोकग्रस्त स्तिथि में सती के मृत शरीर को लेकर तांडव नृत्य करने लगे।इससे संपूर्ण सृष्टि में उथल-पुथल मच गई। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया। जहां-जहां सती के अंग गिरे, वहां-वहां शक्ति पीठों की स्थापना हुई। कामाख्या मंदिर को शक्ति पीठों में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि मान्यता है कि यहां देवी सती का योनि (गर्भाशय) गिरा था।

इसके बाद भगवान शिव ध्यान अवस्था में चले गए। इस बीच, तारकासुर नामक राक्षस ने कठोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे असीम शक्ति का वरदान मांगा। उसने वरदान में यह इच्छा जताई कि उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के पुत्र के हाथों ही हो। ब्रह्माजी के वरदान से वह अत्यंत शक्तिशाली हो गया और तीनों लोकों में आतंक मचाने लगा।

देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार बढ़ने। इस कारन लगे भगवान विष्णु, ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने कामदेव को यह जिम्मेदारी सौंपी कि वह शिव के ध्यान को भंग करें, ताकि वे पार्वती से विवाह करें और उनका पुत्र जन्म लेकर तारकासुर का वध कर सके। कामदेव ने अपने पुष्प बाण से भगवान शिव का ध्यान भंग करने का प्रयास किया, जिससे शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया।


कामदेव की पत्नी रति और अन्य देवी-देवताओं ने शिव से कामदेव को जीवनदान देने की पार्थना की।शिव का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने कामदेव को जीवन दान दिया लेकिन उनका पुराना रूप वापस नहीं दिया। इसपर रति और कामदेव ने भगवान शिव से फिर प्रार्थना की कि उन्हें सौंदर्यहीन जीवन न मिले। तब भगवान शिव ने एक शर्त रखी कामदेव को अपने सौंदर्य को पुनः प्राप्त करने के लिए नीलांचल पर्वत पर देवी सती के योनि-अंग की पूजा के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण करना होगा।कामदेव ने भगवान शिव की इस शर्त को स्वीकार किया और भगवान विश्वकर्मा की सहायता से एक दिव्य मंदिर का निर्माण किया, जो आज कामाख्या मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है। तो वही जहा भगवान शिव समाधी में लीन थे वहा उमानंद भैरव मंदिर की स्थापना की गई ।कहा जाता है की उमानंद भैरव मंदिर के दर्शन के बिना कामाख्या मंदिर की दर्शन यात्रा अधूरी है।

एक अन्य कथा के अनुसार, माँ कामाख्या मंदिर पर असुर राजा नरकासुर का शासन था। नरकासुर बहुत ही शक्तिशाली था और उसने स्वर्ग और पृथ्वी दोनों में अपना आतंक फैला रखा था। वह माता कामाख्या का परम भक्त था और चाहता था कि वह उनसे विवाह करे। नरकासुर ने माता से विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन देवी ने उसे एक कठिन शर्त दी। उन्होंने कहा कि यदि वह एक ही रात में नीलाचल पर्वत पर सीढ़ियों का निर्माण पूरा कर लेगा, तो वे उससे विवाह कर लेंगी लेकिन मुर्गे की बाँग देने से पहले निर्माण कार्य पूरा होना चाहिए।

नरकासुर ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपनी असुर शक्ति से तेजी से सीढ़ियों का निर्माण करने लगा। जब देवी ने देखा कि वह अपनी शर्त पूरी करने ही वाला है, तो उन्होंने एक चाल चली। उन्होंने एक मुर्गे को जल्दी सुबह की तरह बाँग देने के लिए प्रेरित किया।मुर्गे की बाँग सुनकर नरकासुर को लगा कि सुबह हो गई है और वह अपना काम अधूरा छोड़कर निराश हो गया।थोड़ी देर बाद उसे एहसास हुआ की यह माता कामाख्या की चाल थी।और क्रोधित होकर उसने माँ का भक्ति मार्ग बंद करने का संकल्प किया और सीढ़ियों के निर्माण कार्य को अधूरा छोड़ दिया। आज भी नीलांचल पर्वत पर अधूरी सीढ़ी मौजूद है जिसे मैकलॉच पाथ के नाम से जाना जाता है।तो वही जहां मुर्गे ने बाँग दी थी और नरकासुर ने मुर्गे वध किया था उस जगह को कुकुराकाटा कहा जाता है।

क्या कहता है मंदिर का ऐतिहासिक विवरण?


इतिहासकारों के अनुसार, कामाख्या मंदिर पहले खासी और गारो समुदायों के लिए एक प्राचीन बलि स्थल था, और इसका नाम "खासी देवी" से आया है। कालिका पुराण और योगिनी तंत्र में बताया गया है कि देवी कामाख्या किरात जाति की हैं, और उनकी पूजा कामरूप की स्थापना से पहले शुरू हो चुकी थी।

कामरूप के वर्मन राजवंश (350-650 ई.) और 7वीं शताब्दी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने कामाख्या का उल्लेख नहीं किया, जिससे यह संकेत मिलता है कि उस समय तक देवी की पूजा ब्राह्मण परंपरा से अलग थी। 8वीं शताब्दी के बौद्ध तंत्र "हेवज्र तंत्र" में कामरूप का उल्लेख एक पवित्र स्थान के रूप में किया गया। देवी कामाख्या का पहला शिलालेख 9वीं शताब्दी की तेजपुर प्लेटों में म्लेच्छ वंश के वनमालवर्मादेव से मिलता है। पुरातात्विक अवशेषों से यह पता चलता है कि मंदिर की संरचना 5वीं से 7वीं शताब्दी के बीच की हो सकती है, और म्लेच्छ वंश ने इसका निर्माण या पुनर्निर्माण किया होगा।

कामाख्या मंदिर के इतिहास से जुड़ी एक प्रमुख परंपरा के अनुसार, इसे सुलेमान कर्रानी के सेनापति कालापहाड़ ने 1566-1572 के बीच नष्ट किया था। हालांकि, अब यह माना जाता है कि मंदिर को कालापहाड़ ने नहीं बल्कि 1498 में हुसैन शाह के कामता साम्राज्य पर आक्रमण के दौरान नष्ट किया था। मंदिर के खंडहरों को कोच वंश के संस्थापक विश्वसिंह ने खोजा और यहां फिर से पूजा की शुरुआत की। लेकिन मंदिर का वास्तविक पुनर्निर्माण नारा नारायण के शासनकाल में 1565 में हुआ।

इस पुनर्निर्माण में मूल मंदिर की सामग्री का उपयोग किया गया। कोच कारीगर मेघमुकदम ने पत्थर के शिखर के असफल प्रयासों के बाद ईंट की चिनाई का सहारा लिया और वर्तमान गुंबद का निर्माण किया। यह गुंबद बंगाल की इस्लामी वास्तुकला से प्रभावित था, और नीलाचल-प्रकार की शैली में डिजाइन किया गया, जो बाद में अहोमों के बीच लोकप्रिय हो गया।

1658 तक, अहोम साम्राज्य ने कामरूप पर विजय प्राप्त की और इटाखुली की लड़ाई (1681) के बाद अहोमों का मंदिर पर स्थायी नियंत्रण हो गया। अहोम शासक, जिनमें राजा जयध्वज सिंह और उनके उत्तराधिकारी, शैव और शाक्त धर्म के समर्थक थे, ने मंदिर का पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार किया।

कामाख्या मंदिर में स्थित नटमंदिर की दीवारों पर कामरूप-कालीन पत्थर की मूर्तियाँ सन्निहित हैं, जो अहोम काल के दौरान बनाई गई थीं। रुद्र सिंह (1696-1714) ने शाक्त संप्रदाय के प्रसिद्ध महंत कृष्णराम भट्टाचार्य को मंदिर की देखभाल के लिए आमंत्रित किया। उनके उत्तराधिकारी सिबा सिंह (1714-1744) ने इस कार्य को पूरा किया और परबतिया गोसाईं के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी असम के कई पुजारी और शाक्त परंपरा के अनुयायी परबतिया गोसाईं के वंशज हैं।

क्या है कामाख्या मंदिर में बलिप्रथा की कहानी?

एक कथा के अनुसार, एक बार महर्षि वशिष्ठ माँ कामाख्या के दर्शन के लिए नीलाचल पर्वत की ओर चल पड़े। उनका उद्देश्य माँ कामाख्या से आशीर्वाद प्राप्त करना और उनके दिव्य ज्ञान से संपन्न होना था। मार्ग में जब वह नजदीक पहुंचे, तो असुर राजा नरकासुर ने उनका रास्ता रोक लिया। नरकासुर का उद्देश्य यह था कि वह माँ कामाख्या की पूजा-अर्चना में विघ्न डालकर उनके भक्तिमार्ग को बाधित कर सके, ताकि उसकी शक्ति और प्रभुत्व को कोई चुनौती न मिले।

नरकासुर ने महर्षि वशिष्ठ से कहा कि वह उन्हें आगे नहीं जाने देंगे और कामाख्या देवी से मिलने का उनका प्रयास विफल कर देंगे। महर्षि वशिष्ठ इस दुस्साहस को देखकर क्रोधित हो गए और उन्होंने नरकासुर को श्राप दे दिया। उन्होंने कहा, "तू इस समय अपनी शक्ति पर गर्व कर रहा है, लेकिन तेरी मृत्यु भगवान विष्णु के अवतार द्वारा होगी। और तेरी इस नाशक शक्ति के कारण माँ कामाख्या इस क्षेत्र को छोड़कर चली जाएँगी, और यहाँ की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।" और इसतरह माँ कामाख्या हमेशा के लिए इस क्षेत्र को छोड़कर चली गई।

नरकासुर के वध के बाद माँ को वापस इस क्षेत्र में बुलाने के ऋषि वसिष्ट को बुलाया गया।जिसके बाद ऋषि वसिष्ठ ने कहा की केवल वामाचार पद्धति से ही देवी को वापस बुलाया जा सकता है। इसिलए ऋषि वसिष्ठ ने वामाचार पद्धति से देवी का आवाहन किया और देवी पुनः इस क्षेत्र में विराजमान हुई।कहा जाता तभी से कामाख्या मंदिर में वामाचार और बलिप्रथा पद्धति शुरू हुई। इस मंदिर में केवल नर पशुओं की बलि दी जाती है जिसमे कबूतर, भैसे और बकरे इत्यादि शामिल है।

गर्भ गृह का रहस्य


मंदिर के गर्भ गृह में स्तिथ योनि आकार के पत्थर से पानी का बहाव होता रहता है जिसका आजतक कोई वैज्ञानिक कारण सामने नहीं आया है । तथा भक्त इसे देवी के कृपा स्वरुप इस जल का ग्रहण करते है।

क्या है अम्बुवाची मेले का रहस्य?

अम्बुवाची मेला कामाख्या मंदिर का प्रमुख धार्मिक और तांत्रिक मेला ह।पौराणिक कथा के अनुसार यह पर्व सतयुग में 16 वर्षों में एक बार, द्वापरयुग में 12 वर्षों में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्षों में एक बार तो वही कलयुग में वर्ष में एक बार मनाया जाता है।इस दौरान मंदिर में भक्तों तथा तांत्रिक और सिद्ध पुरुषों का जमावड़ा लगता है ।अम्बुवाची मेला देवी के रजस्वला उत्सव (मासिक धर्म ) के तौर पर मनाया जाता था है ।यह मेला जून महीने की 22 से 25 तारीख तक होता है ।इस दौरान मंदिर का गर्भ गुह के कपाट बंद रहते है और मंदिर में किसी भी प्रकार की पूजा या उपासना नहीं की जाती ।तथा 3 दिन तक मंदिर में पुरुषों का प्रवेश वर्जित रहता।


यह मान्यता है कि अम्बुवाची मेले के दौरान कामाख्या मंदिर में माता के दरबार में सफेद कपड़ा रखा जाता है, जो 3 दिनों के भीतर खुद-ब-खुद लाल और गिला हो जाता है। इस कपडे को अम्बुवाची वस्त्र या रक्त वस्त्र कहा जाता है। कपाट खुलने के बाद इस कपड़े के छोटे - छोटे तुकडे कर भक्तों में प्रसाद के तौर पर बाट दिए जाते है। इस 3 दिन के दौरान ब्रम्हपुत्रा नदी का पानी भी लाल रंग का हो जाता है ।

अम्बुवाची मेले के दौरान कामाख्या मंदिर में तंत्र-मंत्र, कालाजादु और वशीकरण से मुक्ति जैसी प्रक्रिया चरम सिमा पर होती है ।

इसके वैज्ञानिक करण


वैज्ञानिको के अनुसार असम के पानी में लोह तत्व की मात्रा अधिक है जिससे पानी का रंग हल्का लाल दिखाई देता है । यही तत्व ब्रम्हपुत्रा नदी के पानी में भी देखने को मिलते है । वैज्ञानिको के अनुसार इस रहस्य का दूसरा कारण है नीलांचल पर्वत की संरचना है जो सिनेबार यानि मर्क्युरी सल्फाइड से बना है जिसका रंग गहरा लाल होता है । मानसून के मौसम में जब ब्रम्हपुत्रा नदी का जलस्तर बढ़ जाता है तो इसके कण नदी के तल से ऊपर आ जाते है । जिससे पानी का रंग लाल हो जाता है ।

लेकिन यहाँ सवाल यह है की अगर इस रहस्य का कारन भूगर्भीय संरचना है तो केवल अम्बुवाची पर्व के ही दौरान नदी का पानी लाल क्यों होता है । जबकि मानसून काफी पहले शुरू होता है और कई महीनों तक चलता है ।

क्या है मान्यता ?

कामाख्या मंदिर में एक प्रचलित मान्यता है कि जो भक्त इस मंदिर में तीन बार दर्शन करते हैं, उन्हें जीवन के सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। इस मंदिर को तंत्र विद्या के अभ्यास और साधना के लिए भी प्रसिद्ध माना जाता है। मंदिर के कपाट खुलने के समय, साधु-संत और तांत्रिक दूर-दूर से यहां दर्शन और पूजा करने के लिए पहुंचते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास होता है कि यहां की शक्तियों से उन्हें विशेष लाभ मिलता है।


कामाख्या मंदिर न केवल एक प्रमुख शक्ति पीठ है, बल्कि यह आस्था, तांत्रिक साधना और सांस्कृतिक विरासत का अद्भुत संगम भी है।काल के प्रवाह में कई हमलों और पुनर्निर्माणों के बावजूद, यह मंदिर अपनी दिव्यता और रहस्यमय शक्तियों के कारण आज भी अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है।

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