वाराणसी: जलती हुई लाशें, उड़ता हुआ धुआं और जन्म-मरण के सवाल के बीच भला होली खेलना कौन पसंद करेगा। आपने बरसाना, मथुरा और वृंदावन की होली तो सुनी या देखी होगी, लेकिन क्या आपने कभी चिता की भस्म से होली खेलते देखा या पढ़ा है? अगर नहीं सुना तो शिव की नगरी काशी में चले आइए। वहां ऐसी ही होली देखने को मिलेगी, जिसे देखकर आप दंग रह जाएंगे। मणिकर्णिका घाट पर एक ओर अपनों के बिछड़ने का गम तो दूसरी तरफ होली के रंगों में सराबोर शिव के गण, यही है इस अनोखी होली का अनोखापन।
वीडियो में देखिए पं. छन्नूलाल मिश्रा की आवाज में 'खेले मसाने में होली दिगंबर, खेले मसाने में होली...
ये पंक्तियां इन्होंने भोले की होली के लिए लिखा और गाया है।
खेले मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी
भूत पिशाच बटोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी।
लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के,
चिता, भस्म भर झोरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी।
गोप न गोपी श्याम न राधा, ना कोई रोक ना, कौनाऊ बाधा
ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
नाचत गावत डमरूधारी, छोड़े सर्प-गरल पिचकारी
पीते प्रेत-धकोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी।
भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज की गोरी
धन-धन नाथ अघोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी
क्यों खेली जाती है ऐसी होली?
एकादशी के दिन भगवान शिव की पालकी निकाली जाती है और अगले दिन श्मशान में होली खेली जाती है। इस दौरान श्मशान में चिताएं जलती रहती हैं, भक्त हर-हर महादेव का नारा लगाते हैं और एक दूसरे को रंग के स्थान पर भस्म लगाते हैं।
ये भी कहा जाता है एकादशी के दिन भोले बाबा मां गौरी का गौना कराकर काशी पहुंचे थे और इसके दूसरे दिन बाबा अपने चहेतों भूत, प्रेत और पिशाचों के साथ श्मशान में भस्म और गुलाल के साथ होली खेले थे। ये होली अपने आप में इसलिए खास है कि इसमें सभी शिवभक्त रंग की जगह चिता की भस्म से होली खेलते हैं।