Tripura News: त्रिपुरा चुनाव में 'ग्रेटर त्रिपरालैंड' की मांग होगा बड़ा मुद्दा, जनजातीय गुटों का ये है तर्क

त्रिपुरा के जनजातीय गुटों ने अलग राज्य की मांग को लेकर हाल में दिल्ली में जंतर मंतर पर धरना दिया था और कांग्रेस, शिवसेना और आम आदमी पार्टी ने उनका सपोर्ट किया है।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Divyanshu Rao
Update: 2021-12-04 10:35 GMT

ग्रेटर त्रिपरालैंड राज्य की मांग करते लोग 

Tripura News:  त्रिपुरा एके अगले विधानसभा चुनाव (Assembly elections) में जनजातियों के लिए अलग राज्य का मुद्दा जरूर कुछ गुल खिलायेगा। ये मांग उठाने वाले हैं त्रिपुरा के विभिन्न जनजातीय ग्रुप जिनका कहना है कि जनजातियों के लिए एक अलग राज्य बनाया जाना चाहिए। इन ग्रुपों का तर्क है कि उनका अस्तित्व खतरे में है।

त्रिपुरा के जनजातीय गुटों ने अलग राज्य की मांग को लेकर हाल में दिल्ली में जंतर मंतर पर धरना दिया था और कांग्रेस, शिवसेना और आम आदमी पार्टी ने उनका सपोर्ट किया है। अलग राज्य की मांग के समर्थन में 'तिपरा मोठ (त्रिपहा इंडिजेनस प्रोग्रेसिव रीजनल अलायन्स) और आईपीएफटी (इंडिजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा) जैसे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल भी एक साथ आ गए हैं।

ये दल त्रिपुरा के जनजातीय समुदायों के लिए एक अलग 'ग्रेटर त्रिपरालैंड' (greater tripura land) राज्य की मांग कर रहे हैं। इनकी मांग है कि केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 के तहत एक अलग राज्य बनाए। संविधान के अनुच्छेद 2 में नए राज्यों की स्थापना की बात कही गयी है। इसके अनुसार – संसद नए राज्यों को संघ में शामिल कर सकता है या नए राज्य की स्थापना कर सकता है। अनुच्छेद 3 में विद्यमान राज्यों के नाम, क्षेत्र, सीमा में दलाव और नए राज्य के सीमांकन की व्यवस्था है।

त्रिपुरालैंड की मांग की तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

त्रिपुरा में कुल 19 अनुसूचित जनजातियाँ हैं जिनमें त्रिपुरी (तिपरा और तिपरासा) बहुन्संख्या में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में 5.92 लाख त्रिपुरी हैं। जिनके बाद 1.88 लाख रियांग और 83 हजार जमातिया हैं। दरअसल, त्रिपुरा पर 13 वीं शताब्दी से लेकर 15 अक्तूबर 1949 में भारत सरकार के साथ में विलय संधि पर हस्ताक्षर किये जाने तक माणिक्य राजवंश का राज रहा था।

समय के साथ त्रिपुरा की जनभौगोलिक स्थिति में काफी बदलाव आ चुका है जिसके चलते जनजातीय समुदाय चिंतित हैं क्योंकि वह अब अल्पसंख्य हो गया है। इसकी वजह पूर्वी पाकिस्तान से 1947 से 1971 के बीच बंगालियों का बड़े पैमाने पर पलायन है। यही कारण है कि जहाँ 1881 की जनगणना में जनजातीय समुदायों की संख्या 63.77 फीसदी थी वह 2011 में घट कर 31.80 फीसदी रह गयी। बांग्लादेश के साथ त्रिपुरा की 860 किलोमीटर सीमा लगती है।

त्रिपुरा के जनजातीय समूहों का कहना है कि माणिक्य राजवंश के अंतिम राजा बीर बिक्रम किशोर देबबर्मन ने जनजातीय लोगों के लिए जो जमीनें आरक्षित की थीं उनमें से उनको बेदखल कर दिया गया है।

त्रिपुरा में 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए पृथक राज्य की मांग ने जोर पकड़ा है। 'तिपरा मोठ' संगठन के नेता प्रद्योत देबबर्मन हैं जो माणिक्य राजशाही के प्रतीकात्मक प्रमुख हैं। उन्होंने इस साल हुए त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्तशासी जिला परिषद (टीटीएडीसी) के चुनाव में बहुमत हासिल किया था।

चुनाव में प्रतिद्वंद्वी दल आईपीएफटी बहुत पिछड़ गया था। आईपीएफटी सत्तारूढ़ भाजपा की सहयोगी पार्टी है। 2018 के विधानसभा चुनाव में आईपीएफटी ने पृथक 'त्विप्रालैंड' राज्य की मांग के साथ आक्रामक प्रचार अभियान चलाया था लेकिन चुनाव के बाद वह भाजपा सरकार में शामिल हो गया और अलग राज्य की मांग उठाना छोड़ दिया।

प्रद्योत देबबर्मन ने आईपीएफटी की जगह को सफलतापूर्वक भर दिया है और अलग राज्य की मांग का झंडा बखूबी बुलंद किया है। अब मजबूरन आईपीएफटी को भी देबबर्मन के एपर्टी के साथ आना पड़ा है।

बहरहाल, अलग राज्य का मुद्दा अलगे चुनाव में क्या गुल खिलायेगा ये देखने वाली बात है। अब कांग्रेस, आप और शिवसेना ने भी इस मुद्दे से अपने को जोड़ कर अपना रुख साफ़ कर दिया है।

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