सत्ता की ललक में क्षेत्रीय दल के सामने एक बार फिर झुकी कांग्रेस पार्टी

Update: 2017-01-23 08:20 GMT

Vinod Kapoor

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में पिछले 28 साल से सत्ता से बाहर कांग्रेस को अपनी जमीन पाने की छटपटाहट के कारण एक बार फिर किसी क्षेत्रीय दल के सामने झुककर गठबंधन करना पड़ा है। ये तीसरा मौका है जब कांग्रेस ने यूपी विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल के साथ गठबंधन किया है। और दूसरा अवसर जब कांग्रेस ने इस तरह गठबंधन के लिए घुटने टेके हैं।

1996 में बसपा से किया था गठबंधन

विधानसभा के 1996 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन कर मैदान में उतरी थी। उस वक्त बसपा 296 और कांग्रेस 126 सीटों पर चुनाव लड़ी थी लेकिन बसपा को इसका नुकसान हुआ। मायावती ने तौबा कर ली, कि अब वो किसी भी पार्टी के साथ किसी भी तरह का तालमेल या गठबंधन नहीं करेंगी। उस चुनाव में बसपा को 67 और कांग्रेस को 33 सीटें मिली थीं। मायावती ने कहा था कि 'बसपा के वोट तो कांग्रेस को ट्रांसफर हो गए लेकिन कांग्रेस के समर्थकों ने बसपा को वोट नहीं दिया।'

2012 में रालोद के साथ उतरी थी मैदान में

साल 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के साथ मैदान में उतरी थी। कांग्रेस ने 355 सीटों पर प्रत्याशी उतारे और 46 सीटें रालोद को दी। रालोद का प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जाट इलाकों तक ही सीमित है। इस चुनाव के परिणाम आए तो कांग्रेस 28 और लोकदल 9 सीटें ही जीत स​की।

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अबकी बार 'अखिलेश सरकार' के साथ

अब बारी थी इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव की। इस बार चुनाव से काफी पहले से सीएम अखिलेश यादव कई मौकों पर कांग्रेस के साथ गठबंधन के इशारे देते रहे थे। वो लगातार ये कह रहे थे कि सपा पूरे बहुमत से सरकारी बनाएगी लेकिन यदि कांग्रेस के साथ गठबंधन हुआ तो कम से कम 300 सीटें आएंगी। दोनों दलों के बीच बात होती रही और बिगडती भी रही। बातचीत में एक मोड़ तो वो आया जब दोनों दलों के बड़े नेताओं ने कह दिया कि अब गठबंधन की उम्मीद नहीं बची है।

सपा ने बातों-बातों में कांग्रेस को दिखाई औकात

दरअसल, पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव से पार्टी पर कब्जे की जंग जीतने के बाद अखिलेश के स्वभाव में 'एरोगेंस' आता दिखा। कांग्रेस के एक बड़े नेता के अनुसार बातचीत इस शर्त पर हो रही थी कि कांग्रेस को कम से कम 125 सीटें दी जाएंगी। लेकिन सपा के उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की हैसियत 54 सीट के लायक है लेकिन उसे 25-30 सीटें ज्यादा दी जा सकती हैं। ये बयान ऐसा था जो किसी गठबंधन की मर्यादा के खिलाफ था।

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105 सीटें दी, लेकिन पेंच फंसाया

बाद में गठबंधन पर सहमति बनी और सपा ने 105 सीटें दी लेकिन पिछले चुनाव में कांग्रेस की जीती कम से कम सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारकर पेंच फंसा दिया। अब या तो सपा अपने प्रत्याशी वापस ले या कांग्रेस अपनी जीती सीट छोड दे । गठबंधन तो हो गया लेकिन उसकी मर्यादा तार तार हो गई ।

दल तो मिले, क्या दिल मिले?

अब दोनों दल कह रहे हैं कि बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए ये जरूरी था। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या दोनों दलों के कार्यकर्ता दूसरे दल के प्रत्याशी को जिताने में उतना ही जोर लगाएंगे, जितना गठबंधन को बचाए रखने के लिए जरूरी है।

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