अनोखा था लोहे के झूलते पुलों का रोमांच, पार करते समय हलक में अटकी सांस

Update: 2016-07-24 09:14 GMT

लखनऊ: दोस्तों आशा करता हूं कि आपको मेरी रोमांचक यात्रा खूब पसंद आ रही होगी। फिर वह चाहे लुकला के एअरपोर्ट पर उंचाइयों का जोखिम हो या फिर दूधकोसी के दर्शन या फिर हो फाकडिंग की खूबसूरती। खैर बताते हैं आपको आगे की यात्रा के बारे में। फाकडिंग से आगे की यात्रा में यह बताया गया था कि यदि हम आज सकुशल नामचे बाजार बच गए तो फिर आगे की यात्रा में हमें कोई दिक्कत नहीं होगी। यह पूरा मार्ग बार-बार उतार और चढ़ाईयों के बाद नामचे बाजार की खड़ी चढ़ाई के लिए तो जाना ही जाता है।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

दूधकोशी नदी पर बने पांच लोहे के झूला पुलों लिए भी इसे भूला नहीं जा सकता। इन झूला पुलों से गुजरने का रोमांच ही एकदम अलग तरह का होता है। लोहे के मोटे रस्सों से आर पार बंधे ये पुल चलने वाले के वजन के हिसाब से ऊपर नीचे झूलते हैं। नीचे देखने पर तेज प्रवाह वाली नदी का भयावह गर्जन। पुल पर हवाओं की रफ्तार भी बहुत तेज होती है। इन पुलों में नामचे बाजार के ठीक नीचे दो खड़ी चट्टानों के बीच 400 फुट से ज्यादा लंबा हिलेरी ब्रिज सबसे खास है।

पहले यह पुल नदी की सतह से लगभग 200 फुट ऊंचाई पर था, मगर उस पुल के कमजोर हो जाने के बाद जो नया पुल बना है, वह पुराने पुल से भी करीब 200 फुट और ऊपर है। यानी जितना लंबा लगभग उतना ही ऊंचा। इस पुल तक पहुंचने के लिए दूधकोशी के दाएं किनारे से एक खड़ी चट्टान से होकर लगभग 425 फुट ऊपर चढ़ना पड़ता है। यह चढ़ाई आरोही की पहली परीक्षा लेती है। मगर इस परीक्षा से निकलते ही पुल को पार करने का इम्तिहान शुरू हो जाता है।

झूले की तरह हिलते पुल में तेज हवाओं के कारण पीठ में रकसेक होने के बावजूद ऐसा लगता था कि कहीं हवा के थपेड़े में गिर ही न जाएं। हालांकि एवरेस्ट मार्ग के अन्य लोहे के झूला पुलों की तरह ही यह पुल भी एकदम सुरक्षित है, फिर भी इस पुल पर होकर गुजरने का रोमांच अविस्मरणीय है। इन पुलों की नियमित देख रेख होती है और ये सोलखुम्भू की जीवन रेखा हैं। इन पर चलने के कुछ नियम हैं और कुछ मर्यादायें भी। आरोही इन पुलों पर झंडियां और तिब्बती प्रतीक बांध कर यात्रा की सकुशलता की कामना करते हैं।

बहरहाल पुल पार करने का आनन्द लेने के बाद हमने थोड़ी राहत महसूस की। राजेन्द्र ने टॉफियां निकाली और सबको दीं। अरूण ने अपनी वाकिंग स्टिक संभाली और हम फिर चल दिए नामचे बाजार की ओर। लगातार चढ़ते रहने के बाद भी ऐसा लगता नहीं था कि नामचे बाजार कहीं आस पास है। पहाड़ हमसे छोटे होते जा रहे थे और नए पहाड़ दिखने लगते थे। सूर्य ठीक सर पर था। मोंजो में हमने जो कुछ खाया पिया था वो सब पस्त हो चुका था।

सूरज चमक रहा था और पहाड़ों के शुद्ध वातावरण में नीला आसमान जैसे किसी रिफ्लेक्टर की तरह सारी गर्मी को हम पर ही वापस फेंक रहा था। एक बड़ी समस्या रास्ते की धूल भी थी क्योंकि तेज धूप में तपी मिट्टी की सतह धूल की मोटी पर्त में बदल गई थी। इस सबसे जूझते हुए ताशी की अतिरिक्त बोतल से एक एक घूंट भरते हुए हम जब एक समतल स्थान पर पहुंचे तो हमें थोड़ी ऊपर कुछ लोग दिखाई दिए। वो व्यू पाइंट था।

एवरेस्ट की पहली झलक

दूधकोशी घाटी में एवरेस्ट की ओर जाते हुए इसी जगह से एवरेस्ट की पहली झलक मिलती है। हमारी सारी थकान एकाएक गायब हो गई। फेफड़ों में फिर से जान आ गई। घुटनों की अकड़ खत्म हो गई। मौसम साफ था और एवरेस्ट का नजारा अद्भुत! यहां पर पीने के पानी का एक नल और एक शौचालय भी है। कूड़ा फेंकने के लिए भी व्यवस्था है। नामचे बाजार के ही कुछ बुजुर्ग यहां पर सेब, जूस, बिस्किट व चाकलेट आदि लेकर बैठे थे।

हम लोग भी दस मिनट तक वहां पर रूके और एवरेस्ट को जमकर निहारते रहे। नवांग ने ऊपर से लौट रहे स्थानीय भारवाहियों से एक वैकल्पिक रास्ते के बारे में पता कर लिया था। इस वजह से इससे आगे की चढ़ाई हमारे लिए उतनी कष्टकारक नहीं रही। हम अब जिस मार्ग से चल रहे थे वो जंगल के बीच से था। इस कारण हम तेज धूप से बच गए थे। हालांकि यह ज्यादा चढ़ाई वाला और अधिक खतरनाक रास्ता था मगर हमें धूल और धूप दोनों से छुटकारा मिल गया था।

इस चढ़ाई से निकल कर हम जैसे ही ऊपर एक चौड़ी जगह में पहुंचे तो सगरमाथा नेशनल पार्क का स्वागत कक्ष दिखा। वैसे तो फाकडिंग से कुछ आगे निकलते ही हम अपनी यात्रा के दस्तावेज बनवा चुके थे। लेकिन इस स्थान पर हमें पार्क का प्रवेश शुल्क देकर पुनः दस्तावेजों का परीक्षण करवाना था। वहां काफी भीड़ थी और एक चाय की दुकान भी थी। हमने भी गर्मागर्म चाय का आनन्द लिया और जैसे ही काम पूरा हुआ हम फिर आगे बढ़ चले।

थोड़ी देर बार ही जैसे ही एक बड़ा सा मोड़ हमने पार किया तो हमारे सामने था भव्य नामचे बाजार। 1950 के बाद के एवरेस्ट के हर आरोहण के विवरण में नामचे बाजार का नाम जरूर सुनाई देता है। एवरेस्ट के शेरपाओं का घर है नामचे बाजार। उनके सपनों का सबसे बड़ा शहर है नामचे बाजार। प्रवेश द्वार से गुजरते हुए श्रद्धा से सिर झुकाते हुए मैं याद कर रहा था अपनी स्मृतियों में छिपी नामचे बाजार की अनगिनत कहानियों को। जिसमें न जाने किन किन के नाम थे, किन-किन के अनुभवों की दास्तान थीं।

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