UP: सरकारी खर्च भारी भरकम लेकिन नतीजा सिफर, ऐसे पढ़ेंगे तो कैसे बढ़ेंगे बच्चे
योगेश मिश्र/राजकुमार उपाध्याय
लखनऊ: बच्चों की शिक्षा पर सरकार खूब खर्च करती है। शिक्षक, यूनीफार्म, किताबें, मिड-डे मील, व्यवस्था के लिए भारी भरकम अमला इन सबके लिए अच्छा खासा बजट रखा जाता है, जो हर साल बढ़ता ही है। लेकिन जिस हिसाब से खर्च है उस अनुपात में नतीजे निराशाजनक ही हैं।
औसतन एक बच्चे पर जितना खर्च हो रहा है उससे कहीं कम खर्च में बड़े निजी स्कूलों में पढ़ाई दी जा रही है। पिछले साल प्राथमिक शिक्षा महकमे का बजट 42 हजार 205 करोड़ रुपए था। बजट में हर साल तकरीबन 10-12 फीसदी का इजाफा हो रहा है।
शिक्षकों के करीब साढ़े चार लाख पद खाली
ये हालत तब हैं जब प्रदेश के कक्षा 1 से 8 तक के परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों के तकरीबन साढ़े चार लाख पद खाली हैं। अगर इन पदों को भी भर दिया जाए तो बजट में तकरीबन 20 से 22 हजार करोड़ रुपए का और इजाफा हो जाएगा। इस लिहाज से एक बच्चे पर औसत खर्च 35,569 रुपए सालाना के आसपास बैठेगा। इतना सब होने के बावजूद सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या उत्साहजनक कतई नहीं है।
बड़ी धनराशि खर्च, नतीजा निराशाजनक
शिक्षा के क्षेत्र में खर्च की जा रही धनराशि पानी में चली जाती है, यह कहना शायद उन लोगों को न सुहाए जो शिक्षा के कामकाज से जुड़े हैं। लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि राज्य सरकार प्राथमिक शिक्षा के मद में जो भी धनराशि खर्च करती है उसका कोई नतीजा नहीं निकल पा रहा है। सरकार द्वारा प्राथमिक शिक्षा के लिए कक्षा एक से आठ के एक बच्चे पर जो पैसा खर्च किया जा रहा है वह तमाम प्राइवेट नर्सरी स्कूलों की फीस से ज्यादा है।
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एक बच्चे पर सालभर में 23,447 रुपए खर्च
राज्य सरकार परिषदीय विद्यालयों में 1 से 8 तक की पढ़ाई करने वाले हर बच्चे पर सालभर में 23,447 रुपए की धनराशि खर्च करती है। यानि, महीने में करीब दो हजार रुपए। यह इस विभाग के पिछले साल के बजट से पता चलता है। पिछले साल प्राथमिक शिक्षा महकमे का बजट 42 हजार 205 करोड़ रुपए था। हालांकि, इस महकमे के बजट की धनराशि में हर साल तकरीबन 10-12 फीसदी का इजाफा हो रहा है।
सरकार बेहतर तालीम दिला सकती है
यह हालत तब है जब उत्तर प्रदेश के कक्षा 1 से 8 तक के परिषदीय विद्यालयों में शिक्षकों के तकरीबन साढ़े चार लाख पद खाली हैं। अगर इन पदों को भी भर दिया जाए तो बजट में तकरीबन 20 से 22 हजार करोड़ रुपए का और इजाफा हो जाएगा। इस लिहाज से एक बच्चे पर औसत खर्च 35,569 रुपए सालाना के आसपास बैठेगा। इससे कम पैसा खर्च करके सरकार एक अच्छे प्राइवेट नर्सरी स्कूल में एक बच्चे को तालीम दिला सकती है, पर ऐसा नहीं हो रहा।
बच्चों को आकर्षित करने के कई तरीके
लेकिन, सरकार लकीर पीट रही है। कभी यूनीफार्म के नाम पर बच्चों को आकर्षित किया जाता है और इस मद में तकरीबन 720 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। 450 करोड़ रुपए की किताबें इन बच्चों को बांटी जाती हैं। तकरीबन, 1,900 करोड़ रुपए मिड-डे मील के मद में जाता है। यह भारी-भरकम धनराशि 1.80 करोड़ बच्चों और फिलहाल प्राथमिक स्कूलों में तैनात 3,99,273 शिक्षकों और उच्च प्राथमिक स्कूलों में तैनात 1,64,003 शिक्षकों के हवाले होती है।
पड़ताल में निराशाजनक चित्र
सूबे में प्राथमिक स्कूलों की संख्या 1,13,249 है और उच्च प्राथमिक स्कूलों की तादाद 45,590 है। परंतु हमारे परिषदीय विद्यालयों से निकलने वाले बच्चे बेहद कमजोर होते हैं। अपना भारत और newstrack.com की टीम ने परिषदीय विद्यालयों और शिक्षकों की योग्यता और बच्चों की पढ़ाई की पड़ताल की, तो बेहद निराशाजनक चित्र देखने को मिले।
पीएम-सीएम तक के नाम नहीं जानते बच्चे
परिषदीय विद्यालयों के बच्चे मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के नाम तक नहीं जानते। शिक्षकों का हाल यह है कि वह समय पर आते नहीं, स्कूलों में कहीं बहुत कम, तो कहीं मानक से कहीं ज्यादा शिक्षक तैनात किए गए हैं। शिक्षकों से उम्मीद की जाती है कि उन्हें विषय के अलावा सामान्य ज्ञान बेहतर होगा लेकिन हमारी पड़ताल में पता चलता है कि शिक्षकों में भी जानकारियों का नितांत अभाव है।
गांवों के स्कूलों की हालत बेहद खराब
पड़ताल में गांवों के स्कूलों की तो हालत बेहद खराब निकल कर आई। सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि पंजीकृत बच्चों की संख्या बेहद कम है। एक-एक क्लास में कहीं दस तो कहीं पंद्रह। शिक्षक भी मानते हैं इसका दोष अभिभावकों पर या निजी स्कूलों पर मढ़ते हैं। दूसरी ओर, अभिभावकों का कहना है कि शिक्षक ढंग से पढ़ाते नहीं हैं। समय से स्कूल चलते नहीं हैं तो ऐसी जगह बच्चे को क्यों भेजें। सरकार इन स्कूलों में मुफ्त शिक्षा देती है यानि कोई फीस तो पड़ती नहीं बल्कि यूनीफार्म, किताबें और साथ में दोपहर का खाना मिलता है। अच्छी तनख्वाह पाने वाले शिक्षक हैं लेकिन नतीजा बेहद निराशाजनक है।