Lucknow News: नेताओं के अभाव के चलते बसपा में सोशल इंजीनियिरिंग का तानाबाना बुनने में दिक्कत

बहुजन समाज पार्टी इस बार यूपी के विधानसभा चुनाव में फिर अपनी 2007 वाली ताकत को दिखाना चाहती है।

Published By :  Raghvendra Prasad Mishra
Update: 2021-09-08 11:00 GMT

बसपा सुप्रीमो मायावती की फाइल तस्वीर (फोटो-न्यूजट्रैक)

Lucknow News: पिछले तीन चुनाव से कमजोर पड़ती जा रही बहुजन समाज पार्टी इस बार यूपी के विधानसभा चुनाव में फिर अपनी 2007 वाली ताकत को दिखाना चाहती है। इसके लिए पार्टी अध्यक्ष मायावती की तरफ से सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। फिर चाहे वो प्रदेश अध्यक्ष बदलने की बात हो, अथवा सेक्टर प्रभारियों का मामला ही क्यों न हो।

दो महीने पहले जुलाई में बसपा सुप्रीमो मायावती ने कई-कई मंडलों पर सेक्टर प्रभारियों की व्यवस्था समाप्त कर मंडल स्तर पर मुख्य सेक्टर प्रभारियों को तैनात किया है। इसके अलावा जिले स्तर पर भी सेक्टर प्रभारी बनाए गए हैं। खास बात यह है पिछले कई वर्षों से दूसरे प्रदेशों में प्रभारी के रूप में काम देख रहे कई वरिष्ठ नेताओं को फिर से प्रदेश के मंडलों की सांगठनिक जिम्मेदारी से जोड़ दिया गया है।

बसपा सुप्रीमों मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की सफलता को फिर से दोहराने के लिए सोशल इंजीनियिरिंग का फार्मूला अपनाना चाह रही है। इसलिए वह दलित मुस्लिम के साथ ब्राम्हणों को भी जोड़ने के प्रयास में हैं। उसी तर्ज पर मायावती पूरे प्रदेश में ब्राम्हण सम्मेलनों का जिलेवार आयोजन कराने के बाद अब मंडल स्तर पर भी ब्राम्हण सम्मेलन कराए जाने की बात कह चुकी है।

सोशल इंजीनियरिंग के तहत ही मायावती मुस्लिमों को जोड़ने के प्रयास में भी हैं। इसलिए उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विधानमंडल गुड्डू जमाली को बनाकर एक संदेश देने का प्रयास किया है। दरसअल 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले मुस्लिम यह समझने में नाकाम था कि किस पार्टी का दामन पकड़ा जाए जो भाजपा को कमजोर कर सके। लेकिन इस चुनाव में सपा- बसपा गठबन्धन हुआ तो 6 मुस्लिम सांसद बने। जबकि इसके पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं बन सका  था।

बसपा ने लोकसभा चुनाव 2014 मे सभी 80 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। तब ब्राह्मण मुस्लिम और अनुसूचित जाति को केंद्र में रखकर 21 सीटे ब्राह्मण प्रत्याशियों को, 19 सीटें मुस्लिम प्रत्याशियों को दी गई थीं। अन्य पिछड़ा वर्ग को 15 तथा क्षत्रियों को सिर्फ 8 सीटें दी थीं। लेकिन मोदी लहर के चलते उसे एक भी सीट नहीं मिल पायी। यह बात अलग है कि उसका वोट प्रतिशत 19.78 रहा। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने बड़े ही चतुराई से सीटों का बंटवारा किया। सपा से ऐसी सीटे ले ली जिन पर वह दूसरे स्थान पर थी।

जहां तक विधानसभा चुनाव की बात है तो 2012 में जब प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की सरकार का गठन हुआ तो सब से ज्यादा 64 मुसलमान विधायक चुनाव जीत कर आए थे। इनमें से 41 समाजवादी पार्टी, 15 बसपा, दो कांग्रेस और छह विधायक अन्य दलों से विधानसभा में थे। इससे पहले 2007 के विधानसभा चुनाव में 56 मुसलमान विधायक बने थे जिनमें से 29 बसपा, 21 सपा व छह अन्य दलों के थे। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा ने सबसे ज्यादा 102 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे लेकिन सिर्फ 5 मुस्लिम प्रत्याशी ही चुनाव जीत पाए।

उत्तर प्रदेश में जब 2007 में मायावती की पूर्ण बहुमत की सरकार थी। तब मायावती का सोशल इंजीनियिरिंग के फार्मूल के तहत ब्राम्हण नेता सतीश चन्द्र मिश्र आल इण्डिया लीगल सेल के अध्यक्ष के तौर काम कर रहे थे। जबकि ब्राम्हणों को पार्टी से जोड़े जाने का कार्य ओपी त्रिपाठी, गोपाल नारायण मिश्र तथा रामवीर उपाध्याय देखते थें। इसके अलावा क्षत्रिय समाज का कार्य ठाकुर जयवीर सिंह, धनन्जय सिंह तथा बादशाह सिंह और वैश्य समाज को जोड़ने का काम डॉ. अखिलेश दास तथा नरेश अग्रवाल के पास था। जबकि मुस्लिम नेता के तौर पर नसीमुद्दीन सिद्दीकी थे। पर अब संगठन के अंदर सब कुछ बदल गया है। इनमें से अधिकतर नेता अब बसपा में नहीं हैं। जिसके कारण पार्टी को सोशल इंजीनियिरिंग मजबूत करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

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