मकर संक्रांति के दिन इस किले में लगता है ‘आशिकों का मेला‘, मन्नत मांगते हैं प्रेमी जोड़े

Banda News: कहते हैं कि यह जगह प्रेम करने वालों के लिए इबादगाह से कम नहीं है। जहां आकर उन्हें लगता है कि इस जगह मन्नत मांगने से उन्हें उनका मनचाहा प्रेम मिल जाएगा।

Report :  Anwar Raza
Update:2024-01-14 14:56 IST

मकर संक्रांति के दिन भूरागढ़ किले में लगता है ‘आशिकों का मेला‘ (न्यूजट्रैक)

Banda News: मकर संक्रांति से दो दिन पहले भूरागढ़ किले में ‘आशिकों का मेला‘ लगता है। अपने प्रेम को पाने के लिए हज़ारों जोड़े इस दिन यहाँ आकर विधिवत पूजा करते हैं और मन्नत मांगते हैं। हर साल इस किले के नीचे बना नटबाबा के मंदिर में मेला लगाया जाता है। मेले में दूर-दूर से लोग आते हैं। कहते हैं कि यह जगह प्रेम करने वालों के लिए इबादगाह से कम नहीं है। जहां आकर उन्हें लगता है कि इस जगह मन्नत मांगने से उन्हें उनका मनचाहा प्रेम मिल जाएगा। हालांकि, इस मंदिर और नटबाबा के बारे में आपको इतिहास में कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन बुंदेलियों के दिलों में आपको नटबाबा की कहानी ज़रूर मिलेंगी।

क्या है नटबाबा मंदिर की कहानी

माना जाता है कि तकरीबन 600 साल पहले महोबा जिले के सुगिरा के रहने वाले नोने अर्जुन सिंह भूरागढ़ दुर्ग के किलेदार थे। किले से कुछ दूर मध्यप्रदेश के सरबई गाँव में रहने वाला नट जाति का 21 साल का युवक किले में नौकर था जो बहुत बहादुर था। किलेदार की बेटी को नट बीरन से प्यार हो गया। जिसके बाद वह अपने पिता यानी किलेदार से नट से शादी करवाने के लिए ज़िद्द करने लगी। नोने अर्जुन सिंह ने अपनी बेटी के सामने शर्त रखी कि अगर बीरन नदी के उस पार बांबेश्वर पर्वत से किले तक नदी, पार कर सूत की रस्सी (कच्चे धागे की रस्सी) पर चढ़कर चलकर किले तक आएगा तभी उसकी शादी राजकुमारी के साथ करायी जाएगी।

बीरन ने नोने अर्जुन सिंह की शर्त मान ली। ख़ास मकर सक्रांति के दिन वह सूत पर चढ़कर किले तक आने लगा। चलते-चलते उसने नदी पार कर ली। लेकिन जैसे ही वह किले के पास पहुंचा, नोने अर्जुन सिंह ने किले से बंधे सूत के धागे को काट दिया। बीरन ऊंचाई से चट्टानों पर आ गिरा और उसकी मौत हो गयी। जब नोने अर्जुन सिंह की बेटी ने किले की खिड़की से बीरन की मौत देखी तो वह भी किले से कूद गयी और उसी चट्टान पर उसकी भी मौत हो गयी। दोनों प्रेमियों की मौत के बाद, किले के नीचे ही दोनों की समाधि बना दी गयी। जिसे की बाद में मंदिर के रूप में बदल दिया गया।

किले को माना जाता है बलिदान और देशभक्ति का प्रतीक

भूरागढ़ का किला सिर्फ एक इतिहास का पन्ना या टुकड़ा नहीं है। जो की वक़्त के साथ पुराना हो जायेगा या ढह जायेगा। यह बलिदान, देशभक्ति, संप्रभुता और समानता का प्रतीक है। यह किला उस लड़ाई का गवाह है जहां अलगदृअलग संप्रदायों, नस्लों, समुदायों, धर्मों के लोगों ने एक दूसरे का हाथ थाम, विदेशी शासकों के खिलाफ लम्बी जंग लड़ी थी और इसी लड़ाई में ब्रिटिश शासन से आज़ादी प्राप्त करने के लिए बाँदा को भारत का पहला शहर बनाया गया था। बाँदा का इतिहास अभी और आने वाली कई पीढ़ियों को गौरवांवित होने का मौका देता रहेगा।

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