Lucknow News: हिंदी साहित्य में ‘संत परंपरा’ पर हुआ मंथन, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के ऐतिहासिक योगदान पर चर्चा
Lucknow News: आचार्य परशुराम चतुर्वेदी एक संत थे और संत कभी स्वर्गीय नहीं होता।
Lucknow News: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मृति समारोह के अवसर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। हिन्दी भवन में आयोजित ’हिन्दी साहित्य में संत परम्परा’ विषयक इस संगोष्ठी में मंगलवार को कई साहित्यकारों ने हिस्सा लिया और अपने उद्गार व्यक्त किए। बुधवार को भी साहित्य के इस मंथन का दौर जारी रहेगा।
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‘आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का हिंदी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान’
(राष्ट्रीय संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथि। photo source: newstrack media)
राष्ट्रीय संगोष्ठी में विशिष्ट अतिथियों के तौर पर डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, डॉ. हरिशंकर मिश्र, डॉ. सुधाकर अदीब, डॉ. उमापति दीक्षित और असित चतुर्वेदी उपस्थित हुए। जिनका स्वागत उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उत्तरीय के निदेशक आरपी सिंह ने किया। संगोष्ठी में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी के पौत्र असित चतुर्वेदी ने कहा ‘मैंने 1994 में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी स्मारक समिति का गठन किया। जिसके अन्तर्गत लखनऊ व बलिया में वर्ष में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। साहित्य अकादमी, दिल्ली ने आचार्य परशुराम चतुर्वेदी पर पुस्तक का प्रकाशन किया है। मेरा प्रयास है कि आचार्य जी के छूटे साहित्य का प्रकाशन ई-बुक के माध्यम से किया जाए। साथ ही एक ई-लाइब्रेरी तैयार की जाए, जिसके आचार्य जी के साहित्य का प्रदर्शित किया जाए। आचार्य जी के ऋण को न उतार पाया हूं और न उतार पाऊंगा।’ उन्होंने कहा कि ‘इस मंच से मैं आह्वान करता हूं कि पूर्वजों के लिए हमें कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। इस सभागार में लगे चित्रों को देखकर मन में यह विचार आता है कितने लोग उनका स्मरण करते हैं। यह चित्र यहां सिर्फ इसलिए लगे हैं क्योंकि यहां सरस्वती के उपासक हैं। हमारे बाबा एक संत थे और संत कभी स्वर्गीय नहीं होता।’
‘संत का बेबाकीपन नारियल की तरह, ऊपर से कठोर अंदर से निर्मल होता है’
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए डॉ. उमापति दीक्षित ने कहा मैं तुलसी का उपासक हूं। बार-बार हम लोग संत साहित्य को याद करते हैं लेकिन उसके किसी भी वाक्य को जीवन में निर्वहन नहीं करते। रीढ़ की हड्डी की तरह अगर कोई व्यक्ति है तो उसकी कथनी और करनी में फर्क नहीं होता। सतों में जो बेबाकीपन होता है वह एक नारियल की तरह होता है, जो ऊपर कठोर और अंदर से कोमल होता है। इस तरह के वाक्य कबीर की रचनाओं में दिखाई देते हैं। रैदास ने जीव को परमात्मा का अंश माना है। रैदास का मानना है कि बिना अच्छे लोगों का साथ किए उन्हें आचरण को आत्मसात नहीं किया जा सकता। हम किसी भी परीक्षा का त्वरित परिणाम चाहते हैं, कबीर व रैदास दोनों संत अनपढ़ थे लेकिन सत्संग का प्रभाव उनपर पड़ा। कबीर ने गुरु को गोविन्द से भी ऊपर माना है। रैदास और कबीर की तुलना की जाए तो वह कमल की तरह है जो कीचड़ में खिलता है और देवता के सर पर विराजता है। ये दोनों ऐसा समाज चाहते है, जिसमें मेदभाव न हो और सभी एक समान हों।
‘सदियों में कभी होते हैं आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जैसे संत’
(आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की कृति। photo source: newstrack archive)
अपने वक्तव्य के दौरान डॉ. सुधाकर अदीब ने कहा कि आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी जैसे संत सदियों में कहीं दो-चार हुआ करते हैं। संत साहित्य पर जिस तरह उन्होंने कार्य किया, उस प्रकार वह स्वयं संतों की श्रेणी में आ जाते हैं। नीरा जी काफी आत्मस्वाभिमानी थीं। मीरा जी का पहला पति कृष्ण को मानती थीं विवाह के उपरान्त कुल देवी के दर्शन के लिए कहा गया। जहां पर बकरे की बलि होती थी, मीरा ने मंदिर जाने को मना कर दिया। सात वर्ष के दाम्पत्य जीवन के बाद मीरा के प्रति का स्वर्गवास हो गया। इसके उपरान्त उन्हें सति होने के लिए कहा गया, जिसका उन्होंने विरोध किया।
‘पूर्वजों के प्रति जिन लोगों में स्नेह, उन्हें ही होती है यश-कीर्ति की प्राप्ति’
राष्ट्रीय संगोष्ठी में डॉ. हरिशंकर मिश्र ने कहा कि यह सत्य है कि अपने पूर्वजों के प्रति जिन लोगों का स्नेह हैं, उन्हें यश कीर्ति की प्राप्ति होती है। आयु, विद्या, यश व बल चार चीजें मनुष्य को पितरों की वजह से प्राप्त होती हैं। हमें अपने पितरों के अवदान को रेखांकित करने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए। पुस्तक लेखन में डॉ. अमिता दुबे जी ने मुझे बहुत सहयोग किया, उन्हीं के प्रयासों से यह पुस्तक लिखना सफल हो सका। आचार्य जी के जीवन को जानने समझने वाले बहुत लोग हैं, जो उन्हें पढ़ना चाहते हैं। मैंने आचार्य जी के जीवन चरित्र से लेकर उनके अवदान तक को इस पुस्तक में समेटा है। आचार्य जी का व्यक्तित्व बहुत व्यापक है। यही किसी विसंगति को स्वीकार नहीं करते थे यह न तो भ्रमित होते थे और न ही किसी को भ्रमित करते थे। यह इस बात का ध्यान रखते थे कि जो बात कही जाए वह प्रमाण सहित हो। तर्क संगत हो, बिना तर्क के वह कोई बात नहीं करते थे, बलिया से लगभग 8 किमी आगे एक ग्राम में आचार्य जी का जन्म 25 जुलाई, 1894 को हुआ। आचार्य जी एक समृद्ध परिवार से थे। उनके पिता जी चाहते थे कि उनका पुत्र एक पहलवान और संस्कृतज्ञ बने लेकिन आचार्य जी का मन उसमें नहीं लगा और वही पर उन्होंने 11 वर्ष की अवस्था में पहला दोहा लिखा। उनके पिता जी बड़े जमींदार थे। चार बहन और एक भाई में वह सबसे बड़े थे। आचार्य जी को हिन्दी, फारसी, बांग्ला, मराठी, उड़िया, उर्दू व अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था।
‘आचार्य जी ने तुलसीदास को माना था संत’
अपने संबोधन में डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा आचार्य जी की 130वीं जयन्ती के अवसर पर सभी को शुभकामनाएं दी जाती हैं। आचार्य जी की उदारता थी कि उन्होंने तुलसीदास जी को संत माना, जिसको अपने अस्तित्व का बोध हो जाता है वह संत हो जाता है। संत शब्द का पहला प्रयोग सर जार्ज ग्रियसन ने किया। रैदास सगुण व निर्गुण उपासक थे। कबीर कहते हैं कि ईश्वर सूक्ष्म रूप में घट घट में विद्यमान है। संत निरंजन ग्रंथ में आधे में सगुण और आधे में निर्गुण उपासक की बात कही गई है। हर सम्प्रदाय में उपसम्प्रदाय बने हुए हैं। आचार्य जी पर बोध का प्रभाव था। इनके ऊपर नाथपंथ का प्रभाव था, जिससे इन्होंने अलख निरंजन का प्रभाव आया। योग साधना का प्रभाव संतों पर पड़ा है। वर्णाश्रम मोक्ष भक्ति का प्रभाव इन पर पड़ा है। तो यह कहना कि जिन संतों का आचार्य जी ने उल्लेख किया वह सनातन विरोधी थे, यह गलत होगा संत वह जो अक्रोम हो, शील हो, क्षमा देने वाला हो कबीर स्वभाव से अक्खड़ में खुद को शालीन रखने के लिए कहते हैं, यही बात रैदास के बारे में कही जाती है उनके पास ज्ञान की गठरी है। रैदास कहते हैं कि मैं ऐसे देश में रहना चाहता हूं, जहां कोई भूखा न रहे।
राष्ट्रीय संगोष्ठी में इन अतिथियों की रही उपस्थिति
संगोष्ठी में डॉ. अमिता दुबे, प्रधान सम्पादक, उप्र हिन्दी संस्थान ने कार्यक्रम का संचालन किया। उन्होंने संगोष्ठी में उपस्थित समस्त साहित्यकारों, विद्वत्तजनों एवं मीडिया कर्मियों का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी की पुत्रियां आशा पांडेय व शांति तिवारी, पौत्रवधू डॉ. कणिका चतुर्वेदी व चारू चतुर्वेदी, पौत्र डॉ. अजित कुमार चतुर्वेदी, सुधीर चतुर्वेदी, राजीव चतुर्वेदी, पौत्री डॉ. साधना पांडे, अर्चना दुबे, मालती पांडेय व कांति ओझा विशेष रूप से उपस्थित थीं।