उफ्फ: कब सुधरेगी व्यवस्था, सरकारी स्कूलों में फिर किताबों का झमेला ...
यूपी के बेसिक स्कूलों में सत्र शुरू हुए एक महीना हो चुका है, लेकिन अभी किसी भी स्कूल में नौनिहालों के हाथों तक नई किताबें नहीं पहुंच पाई हैं।
लखनऊ: यूपी के बेसिक स्कूलों में सत्र शुरू हुए एक महीना हो चुका है, लेकिन अभी किसी भी स्कूल में नौनिहालों के हाथों तक नई किताबें नहीं पहुंच पाई हैं। कई सरकारी स्कलों में स्थिति यह है कि एक ही किताब से दो या तीन बच्चे पढ़कर काम चला रहे हैं। कई स्कूलों में किताबों के एक पुराने सेट से ही पूरी क्लास पढ़ रही है। यह पहली बार नहीं है जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है, बल्कि पिछले साल तो अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं तक 50 प्रतिशत किताबें ही स्कूलों को उपलब्ध हो पाई थीं। इसके पीछे पिछले साल एक बड़ा घोटाला भी सामने आया था। इस बार फिर से सरकारी स्कूलों में किताबों का झमेला शुरू हो गया है। ' Newstrack.com और अपना भारत ' न्यूजपेपर के संवाददाता सुधांशु सक्सेना ने इस स्थिति की पड़ताल की।
31 दिसंबर को टेंडर, मई तक नहीं शुरू हुई छपाई
यूपी बेसिक एजूकेशनल प्रिंटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि 31 दिसंबर 2016 को साढ़े 12 करोड़ किताबों की छपाई के लिए टेंडर आमंत्रित किए गए थे। अंतिम तिथि 6 फरवरी 2017 थी। करीब 2 दर्जन से ज्यादा फर्मों ने इसमें आवेदन किया। इसकी तकनीकी बिड को 7 मार्च में खोला गया जिसमें 13 लोगों को अर्ह पाया गया। बुधवार (3 मई) तक फाइनेंशियल बिड नहीं खोली जा सकी है। इससे साफ जाहिर है कि अधिकारी अपनी चहेती फर्मों को मनमाने ढंग से काम देने पर आमादा हैं। इसके चलते देर-सवेर अधिकारियों की जेब तो भर जाएगी, लेकिन बच्चों के हाथों में किताबें कब तक पहुंच पाएंगी। इस बात को लेकर संशय है।
90 से 120 दिन में होती है छपाई
पाठ्य पुस्तकों की छपाई की जिम्मेदारी लेने वाले एक पब्लिशर ने बताया कि अमूमन छपाई के काम को आवंटित करने के पीछे चहेतों को प्रक्रिया में पास करके उन्हें काम देकर तगड़ा कमीशन लेने का खेल खेला जाता है। एक बार जब किसी फर्म को छपाई का काम आवंटित होता है तो किताबें छपने में 90 से 120 दिन का समय लग ही जाता है। ऐसे में अगर मई में पब्लिशिंग फर्मों को छपाई का काम आवंटित भी हो जाता है तो भी नए शैक्षिक सत्र में भी सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के हाथ में फटी पुरानी किताबें ही नजर आएंगी।
पब्लिशर का दावा- पिछले साल हुआ था घोटाला
पाठ्य पुस्तकों की छपाई के बारे में जानकारी रखने वाले एक पब्लिशर ने बताया कि पिछले साल 13 करोड़ 21 लाख 86 हजार पांच सौ किताबों की छपाई के लिए निविदा आमंत्रित की गई थी। निजी पब्लिशर को फायदा पहुंचाने की नीयत से एक बार टेंडर आमंत्रित करने के बाद उसमें दो बार संशोधन किया गया। इस पूरे काम की लागत 450 करोड़ थी, जिसमें 250 करोड़ रुपए किताबों की छपाई पर और 200 करोड़ रुपए वाॅटरमार्क पेपर पर व्यय की जानी थीं। पिछले साल 1 रुपए 38 पैसे की दर से छपाई होनी थी। इसमें पेपर एक ऐसी कंपनी से लिया गया जो घाटे के चलते हड़ताल झेल रही थी और वाॅटरमार्क पेपर उत्पादन की क्षमता की शर्त को पूरा भी नहीं कर रही थी। जिस कंपनी को पेपर सप्लाई करना था उसकी प्रतिदिन की वास्तविक उत्पादन क्षमता न्यूनतम 200 मीट्रिक टन दिखाई गई, जबकि उस कंपनी की प्रतिदिन की वाटरमार्क पेपर की वास्तविक उत्पादन क्षमता मात्र 60 मीट्रिक टन ही थी।इसके अलावा एक फर्म को साजिशन ब्लैकलिस्ट भी किया गया था।