हर चुनाव में उठता रहा है हरित प्रदेश का मुद्दा

Update: 2019-03-15 07:44 GMT

लखनऊ: हर चुनाव में पश्चिमी उप्र में हरित प्रदेश की मांग का मुद्दा इस बार ठंडे बस्ते में है। हरित प्रदेश की मांग करने वाला राष्ट्रीय लोकदल इस बार के चुनाव में अब तक चुप्पी साधे हुए है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सपा के साथ चल रही गठबंधन की सौदेबाजी है क्योंकि समाजवादी पार्टी हरित प्रदेश की मांग को लेकर अपना विरोध जताती रही है।

1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग के गठन के बाद एक पृथक राज्य की मांग उठने लगी थी। तब 97 विधायकों के हस्ताक्षर वाले संयुक्त मांग पत्र का समर्थन आयोग के सदस्य एम.पणिक्कर ने किया था। उन्होंने पृथक राज्य के गठन की संस्तुति भी की थी। फिर राजनीतिक कारणों से यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। कई वर्षों बाद 1977 में जनता पार्टी ने सरकार गठन के पूर्व अपने चुनावी वायदों में इसे शामिल किया, लेकिन जनता पार्टी सरकार जल्द ही गिर जाने से मामला सिमटकर रह गया।

मुहिम के लिए पदयात्राएं

इस बीच 1963 में तत्कालीन विधायक मंजूर अहमद व वीरेन्द्र वर्मा आदि ने एक बार फिर इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए पदयात्राएं आदि भी कीं। 70 के दशक में दोआब प्रदेश, पश्चिमी उप्र,गंगा प्रदेश, पश्चिमाचंल जैसे अलग नामों से आंदोलन होते रहे। इसके बाद 1980 में बंटवारे का एक प्रस्ताव सदन में पास नहीं हो सका। 90 के दशक में कांग्रेस के नेता निर्भयपाल शर्मा व इम्तियाज खां ने इसे हरित प्रदेश का नाम देकर आंदोलन शुरू किया। 70 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल इस प्रस्तावित राज्य में मेरठ, सहारनपुर, आगरा, मुरादाबाद तथा बरेली मंडल शामिल हैं।

1991 में विधानपरिषद सदस्य जयदीप सिंह बरार और तथा चौ.अजित सिंह ने एक बार फिर हरित प्रदेश की मांग उठाई। कल्याण सिंह की सरकार में हरित प्रदेश की मांग उठी मगर उन्होंने भी मामले को लटकाए रखा। इसके बाद चौ.अजित सिंह जरूर मामले को संसद तक ले गए, लेकिन किन्ही कारणों से वह आंदोलन को सडक़ों तक नहीं ला सके।

रालोद को नहीं मिला समर्थन

2002 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब चौ.अजित सिंह ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उन्होंने हरित प्रदेश को एक बार फिर प्रमुख मुद्दा बनाया, लेकिन इस दौरान रालोद न तो विधानसभा के अन्दर और न बाहर दूसरे दलों का समर्थन हासिल कर पाया। इसके बाद 2003 में हरित प्रदेश के धुर विरोघी मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में बनी सरकार में चौ.अजित सिंह के शामिल होने से आंदोलन की हवा निकल गयी। विधानसभा में रालोद विधायक केवल संकल्प ही प्रस्तुत करते रहे।

मायावती का चार प्रदेशों का प्रस्ताव

2007 में बसपा सरकार के गठन के बाद जब मुख्यमंत्री मायावती ने अक्टूबर महीने में एक रैली के दौरान प्रदेश के पुनर्गठन की मांग रखी तो लगा कि अब हरित प्रदेश की मांग को बल मिलेगा। तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 15 मार्च 2008 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन कर इसे चार हिस्सों बुंदेलखंड, पूर्वांचल, पश्चिमी उप्र और बचे शेष हिस्सों में बांटने की सिफारिश भी की, लेकिन केन्द्र की ओर से कहा गया कि पहले राज्य सरकार विधानसभा से प्रस्ताव पारित कराकर भेजे तब इस पर विचार किया जाएगा।

भाजपा हरित प्रदेश की विरोधी

हरित प्रदेश की मांग यूपी के 22 जिलों को मिलाकर बनाने की उठती रही है जबकि भाजपा लगातार हरित प्रदेश का विरोध करती रही है। पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि इस राज्य का नाम हरित प्रदेश न होकर बल्कि मुस्लिम प्रदेश होना चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में अधिकतर मुसलमान समाज के लोग ही शामिल है। कांग्रेस फिलहाल बुंदेलखंड और पूर्वाचंल की मांग का तो समर्थन करती है, लेकिन हरित प्रदेश के मामले में वह चुप्पी साध लेती है।

क्षेत्र के विकास पर ध्यान नहीं

उधर, पश्चिमी उप्र के लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र के विकास पर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया। क्षेत्र में हाईकोर्ट की बेंच की मांग लगातार उठती रही है। इसके अलावा उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयों व इंजीनियिरिंग कालेजों का भी अभाव है। अब इसके पीछे राजनीतिक कारण चाहे जो हो, लेकिन पिछले कई चुनावों में राष्ट्रीय लोकदल हरित प्रदेश की मांग को लेकर खूब चुनावी लाभ उठाता रहा है। इस बारे में राष्ट्रीय लोकदल के प्रवक्ता अनिल दुबे का कहना है कि रालोद उप्र पुनर्गठन की मांग तो शुरू से करता रहा है और वह अब भी इस पर कायम है। यह तो हमारे एजेंडे में है।

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