गोंडा के राम शब्द चौधरी 66 साल से सुना रहे आल्हा-ऊदल के वीरता की कहानी
दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमों में आल्हा गा चुके राम शब्द को विशिष्ट गायन शैली और जनजागरुकता में विशेष सहयोग के लिए प्रदेश के अनेक जिलों में अधिकारी और जनप्रतिनिधि सम्मानित कर चुके हैं।
गोंडा: कला किसी की साधन, सुविधा की मोहताज नहीं होती है। इसे महज कक्षा पांच तक शिक्षित प्रसिद्ध आल्हा गायक राम शब्द चौधरी ने साबित कर दिया है। ढोलक, झांझड़ और मंजीरे की संगत में आल्हा गायक राम शब्द तलवार चलाते हुए जब ऊंची आवाज़ में आल्हा गाते हैं, तो माहौल जोश से भर जाता है। एक छोटे से गांव से निकले राम शब्द ने जब आल्हा गायक बनने का सपना देखा तो उन्होंने नहीं सोचा था कि वह दूसरे गायकों के लिए मिसाल बनने वाले हैं। उन्होंने सबसे पहले आल्हा अपने गांव में ही गाया था।
66 साल से लोगों का कर रहे हैं मनोरंजन
इसके बाद उनके कार्यक्रमों में भीड़ जुटने लगी और वे सफलता के पायदान पर चढ़ते चले गए। वे आल इडिया रेडियो द्वारा आयोजित परीक्षा उत्तीर्ण कर साल 1970 में आकाशवाणी केन्द्र गोरखपुर, लखनऊ के पैनल में भी शामिल हो गए। दस हजार से ज्यादा कार्यक्रमों में आल्हा गा चुके राम शब्द को विशिष्ट गायन शैली और जनजागरुकता में विशेष सहयोग के लिए प्रदेश के अनेक जिलों में अधिकारी और जनप्रतिनिधि सम्मानित कर चुके हैं। महज कक्षा पांच तक शिक्षित राम शब्द चौधरी 66 साल से आल्हा गीतों के माध्यम से जहां एक ओर लोगों का स्वस्थ मनोरंजन कर रहे हैं तो वहीं सामाजिक बुराइयों के प्रति भी जागरुक कर रहे हैं।
प्रसंग गाते-गाते राम शब्द बन गए अल्हैत
सदर तहसील क्षेत्र के मलारी गांव निवासी लघु किसान पिता रामराज चौधरी और माता अमरावती के इकलौते पुत्र के रुप में साल 1944 में जन्में आल्हा सम्राट राम शब्द चौधरी को बचपन से ही आल्हा गायन में महारथ हासिल है। जवानी में कदम रखने से पहले ही वह आल्हा का मंच सजाने लगे। वे जब बैरिया बिशुनपुर के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तो सम्राट पृथ्वीराज चौहान और जयचंद पर आधारित प्रसंग का कविता पाठ करने लगे। तब उनका सुर और लय देखकर शिक्षक पं. राम दुलारे पाण्डेय अत्यंत प्रभावित हुए। उन्हें जब भी खाली समय दिखता तो वे राम शब्द को इस प्रसंग को आल्हा के रुप में सुनाने के लिए कहते।
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सिर्फ पांचवी तक की पढ़ाई
हालांकि इसी गायन के कारण कक्षा पांच के बाद उनकी पढ़ाई छूट गई और राम शब्द ने आल्हा गायन को ही अपना व्यवसाय बना लिया। चौधरी कहते हैं कि आल्हा गायक बनने में उनके पिता ने भी उनका पूरा सहयोग किया। वे बताते हैं कि उनके पिता पढ़ाई छोड़कर आल्हा गायन के विरोध में थे लेकिन जब उन्होंने अपना इरादा बताया तो वे मान गए। अच्छी गायन शैली से प्रभावित होकर पिता ने भी शाबासी दी थी। वो आज जब मंच पर तब दांत भींचते हुए तलवार भांजते हैं तब मंच के सामने बैठी भीड़ तालियां बजाती रह जाती है। दस साल पहले भारत नेपाल सीमा पर सेना के जवानों के बीच महिला सशक्तिकरण पर आधारित कार्यक्रम में पांच दिनों तक आल्हा गायन का जबरदस्त प्रदर्शन कर खूब तालियां बटोरी थी।
लोकगीत की एक विधा है आल्हा
प्रसिद्ध आल्हा गायक राम शब्द चौधरी के अनुसार आल्हा वीरत्व की मनोरम गाथा है, जिसमें उत्साह गौरव और मर्यादा की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। आल्हा मूलतः सामान्य लोगों के शौर्य, आत्मत्याग, उत्सर्ग व पौरुष का अद्भुत चित्रण करता है। इन युद्धों में पांच नेगी ब्राह्मण, बारी, नाई, धोबी और माली शौर्य दिखाते हैं। आल्हा प्रेम सौहार्द्र, एकात्म और सद्भावना का संदेश देता है। साम्प्रदायी सौहार्द्र का अनुपम उदाहरण है। इसी कारण शताब्दियों से लोक कंठ और लोक स्मृतियों में अक्षुण्ण है।
उसका कलेवर और कथा बदलती रही फिर भी उसकी लोकप्रियता किसी प्रकार कम नहीं हुई। इसमें निम्नवर्ग का उच्च वर्ग के प्रति विद्रोही चेतना का स्वर गुंजित होता है। वर्षों पहले गोंडा जिले में इस गीत को सिर्फ मर्दनपुरवा के खेमराज सिंह गाया करते थे, लेकिन आज राम शब्द चौधरी भी आल्हा के प्रसिद्ध गायक हैं। राम शब्द चौधरी आल्हा गायन दल के नाम से उनकी टीम यूपी के सूचना एवं जनसंपर्क कार्यालय में पंजीकृत है। छह सदस्यों वाली उनकी टीम में वाद्य यंत्र बजाने वालों में सब एक से बढ़कर एक कलाकार शामिल हैं। वह यूपी के अधिकांश जिलों के अलावा अन्य प्रदेशों में प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हैं। उनका मुख्य उद्देश्य जनजागरण कर सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को लोगों तक आल्हा के माध्यम से पहुंचाना है ताकि जरूरतमंदों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके और मनोरंजन भी हो।
आल्हा-ऊदल दो भाइयों की वीरगाथा
इतिहासकारों के अनुसार, 11वीं सदी में परमालदेव चंदेल राजवंश के राजा थे और महोबा उनकी राजधानी थी। आल्हा-ऊदल उनके वीर सिपाही थे। राजा उन पर बहुत विश्वास करते थे और वो जनता में भी लोकप्रिय थे। आल्हा यह आल्हा और ऊदल दो भाइयों की वीरगाथा है। वीर रस से भरे हुए आल्हा गायन का प्रचलन बुंदेलखंड और अवध क्षेत्र में सदियों से है। ढोलक, झांझड़ और मंजीरे की संगत में आल्हा गायक तलवार चलाते हुए जब ऊंची आवाज़ में आल्हा गाते हैं, तो माहौल जोश से भर जाता है।
ये गीत कई सदियों से बुंदेलखंड की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। आल्हा बुंदेलखंड के दो भाइयों आल्हा और ऊदल की वीरता की कहानियां कहते हैं। यह गीत बुंदेली और अवधी भाषा में लिखे गए हैं और मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, अवध और बिहार व मध्यप्रदेश के कुछ इलाक़ों में गाए जाते हैं। आल्हा और ऊदल बुंदेलखंड के दो वीर भाई थे। 12वीं सदी में राजा पृथ्वीराज चौहान से अपनी मातृभूमि को बचाने के लिए दोनों वीरता से लड़े।
हालांकि इस लड़ाई में आल्हा और ऊदल की हार हुई, लेकिन बुंदेलखंड में इन दोनों की वीरता के किस्से अब भी सुनने को मिल जाते हैं। इन्हीं दोनों भाइयों की कहानियों को कवि जगनिक ने सन 1250 में काव्य के रूप में लिखा, वही काव्य अब लोकगीत आल्हा के नाम से जाना जाता है। इसमें माड़व गढ़ की लड़ाई, नदी बेतवा की लड़ाई, इंदल हरण, मछला हरण, फुलवा हरण, आल्हा का व्याह, संयोगिता स्वयंवर आदि 56 लड़ाइयांे का वर्णन हैं।
आल्हा गायकी की शैलियां
आल्हा गायक राम शब्द चौधरी कहते हैं कि आल्हा गायकी की एकल गायन की शैली है। अन्य साथी केवल वाद्ययंत्रों पर संगत करते हैं। गायन अत्यधिक ओजपूर्ण होता है और गायक शाही वेशभूषा में और कभी-कभी हाथ में तलवार लेकर किसी बहादुर योद्धा की तरह आल्हा गाते हैं। जिले के मशहूर आल्हा गायक खेमराज सिंह इस शैली के लोकप्रिय गायक थे। पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक सामूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर आल्हा गायन होता है।
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आल्हा में प्रमुख संगति वाद्य ढोलक, झांझ, मंजीरा आदि है। विभिन्न क्षेत्रों में संगति-वाद्य बदलते भी हैं। ब्रज क्षेत्र की आल्हा-गायकी में सारंगी के लोक-स्वरूप का प्रयोग किया जाता है, जबकि अवध क्षेत्र के आल्हा गायन में सुशिर वाद्य का प्रयोग भी किया जाता है। आल्हा का मूल छन्द कहरवा ताल में होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। गाने की गति ज्यों-ज्यों तीव्र होती जाती है, ढोल बजने की गति में वैसा ही परिवर्तन होता जाता है। आल्हा वीरत्व की मनोरम गाथा है, जिसमें उत्साह गौरव और मर्यादा की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। आल्हा मूलतः लोगों के शौर्य, आत्मत्याग, उत्सर्ग व पौरुष का अद्भुत चित्रण करता है।
इन युद्धों में पांच नेगी-ब्राह्मण, बारी, नाई, धोबी और माली शौर्य दिखाते हैं। आल्हा प्रेम सौहार्द्र, एकात्म और सद्भावना का संदेश देता है। साम्प्रदायी सौहार्द्र का अनुपम उदाहरण है। आल्हा की सम्प्रेषणीयता का रहस्य इसकी जनभाषा में निहित है। इसी कारण शताब्दियों से लोक कंठ और लोक स्मृतियों में अक्षुण्ण है उसका कलेवर और कथा बदलती रही फिर भी उसकी लोकप्रियता कम नहीं हुई है।
आल्हा में वीरता, अतिश्योक्ति का वर्णन
आल्हा काव्य में महोबा वालों की वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वो अगर एक को मारते थे तो दो लोग मरते थे और तीसरा खौफ खाकर मर जाता था। आल्हा में वीरता का वर्णन करने के लिए जमकर अतिश्योक्ति का इस्तेमाल किया गया है। बात को बढ़ाचढ़ा कर कहना कोई आल्हा से सीखे-
बड़े लड़ैया महुबे वाले जिनकी मार सही न जाए,
एक के मारे दुई मरि जावैं तीसर खौफ खाय मरि जाए।
आल्हा की वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस दिन उनका जन्म हुआ, उस दिन जमीन ढाई हाथ धंस गई थी-
बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में,
पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहां के पानी में।
पन-पन, पन-पन तीर बोलत हैं, रन में दपक-दप बोले तलवार
जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धंसी अढ़ाई हाथ।
क्षत्रियों की वीरता का वर्णन करते हुए बलिदान का महिमा मंडन किया गया है। आल्हा में कहा गया है कि क्षत्रिय तो सिर्फ 18 साल जीता है, उसके आगे उसके जीवन को धिक्कार है। यानी क्षत्रिय को मरने से नहीं डरना चाहिए-
बारह बरस लौ कुकूर जीवै औ तेरा लै जियैं सियार,
बरिस अठारह क्षत्री जीवैं, आगे जीवन को धिक्कार।
इसी तरह कहा गया है कि अगर किसी का दुश्मन जिंदा है तो उसके जीवन को धिक्कार है। यानी जब तक दुश्मन को मार न दिया जाए, चैन से नहीं बैठना चाहिए। हालांकि आज के दौर में ये बातें अजीब लग सकती हैं, लेकिन हमारे मध्यकालीन इतिहास का यही सच है-
जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ, बुड़िहै सात साख को नाम,
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ, होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
लुप्त होता जा रहा आल्हा गायन
मोबाइल और इण्टरनेट और टेलीविजन के इस युग में यद्यपि कि अब आल्हा पहले जितना सुनने को नहीं मिलता है, लेकिन आल्हा की लोकप्रियता का ही परिणाम है कि प्रसिद्ध बालीबुड फिल्म दबंग का गाना ‘हुड़ हुड़ दबंग दबंग दबंग‘ या ओंकारा फिल्म के ‘धम धम धड़म धड़ैया रे‘ की धुन बुंदेलखंड के वीर रस के काव्य आल्हा पर आधारित है। आल्हा काव्य परमाल रासो नाम की किताब का एक हिस्सा है, जो आज उपलब्ध नहीं है। लेकिन आल्हा इतना लोकप्रिय हुआ कि लोगों को जुबानी याद रहा।
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कुछ साल पहले तक अवध क्षेत्र में ऐसी कोई गली नहीं होती थी, जहां सावन के महीने में आल्हा सुनाई न दे। बरसात में खासतौर पर जब लोगों के पास काम नहीं होता था और लगातार बारिश होती थी तब आल्हा गाया जाता था। लोगों का ऐसा भी मानना है कि आल्हा गाने से बारिश हो जाती थी। अगर ज्यादा बारिश हो रही हो तो आल्हा गाने से बारिश बंद हो जाया करती थी। किन्तु देश प्रेम की भावना को जगाने वाले आल्हा गायकों कि स्थिति बहुत दयनीय है। आल्हा गायक राम शब्द चौधरी कहते हैं कि रचना काल से लेकर आज तक सम्पूर्ण भारत के हृदय में त्याग व साहस का संचार कराने वाले आल्हा को आज खुद ही संरक्षण की दरकार है।
- तेज प्रताप सिंह