हाईकोर्ट ने पूछा- काम बौद्ध धर्म से जुड़ी चीजों के अध्ययन का, तो इतनी शानो शौकत क्यों?
लखनऊ: हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने 'इंटरनेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ बौद्ध स्टडीज' में सरकारी खर्च पर तमाम शानो शौकत और संपन्नता वाली चीजें मुहैया कराए जाने पर गंभीर रुख अपनाया है। कोर्ट ने सरकार की इस कार्यप्रणाली पर अपनी असहमति प्रकट की है।
संस्थान के एक सदस्य को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही हटाए जाने के खिलाफ दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने उल्टे राज्य सरकार से जवाब-तलब कर लिया, कि सरकारी खजाने से ऐसे संस्थानों पर होने वाले इस प्रकार के खर्चों को क्यों न रोक दिया जाए? कोर्ट ने राज्य सरकार को इस संबंध में तीन सप्ताह में जवाब दाखिल करने का आदेश दिया है। यह आदेश जस्टिस एपी साही और जस्टिस संजय हरकौली की बेंच ने नंदन सिंह बोरा की याचिका पर सुनवाई करते हुए दी है।
ये है मामला
याचिका में कहा गया कि याची को संस्थान में बतौर मनोनीत सदस्य नियुक्त किया गया था। जिसका कार्यकाल हाल ही में समाप्त कर दिया गया। जबकि उसका कहना था कि वह पांच वर्ष के लिए नियुक्त किया गया था। ऐसे में समय से पूर्व ही उसका कार्यकाल समाप्त किया जाना विधिसम्मत नहीं है। कोर्ट ने याची के मुद्दे के साथ-साथ राज्य सरकार से इस विषय पर विशेष तौर पर जवाब मांगा है। कहा, कि संस्थान के बॉयलॉज के अंतर्गत आने वाले सरकारी कोष के खर्च से संबंधित प्रावधान और वित्तीय निहितार्थों को समाप्त किए जाने की क्या संभावना है।
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बॉयलॉज सिद्धांतों के विपरीत
कोर्ट ने कहा कि संस्थान के प्रकृति को ध्यान में रखना आवश्यक है। जो बौद्ध धर्म को मानने वाले बौद्ध भिक्षुओं से संबंधित है। कोर्ट ने कहा कि 'शानोशौकत की जो व्यवस्थाएं बॉयलॉज के अंतर्गत बनाई गई हैं, वे बौद्ध व्यवस्था के संयम और मितव्ययी जीवन के सिद्धांतों के विपरीत हैं।'
हलफनामे में ये बताएं
कोर्ट ने सरकार को आदेश दिए कि जवाबी हलफनामे में यह भी बताया जाए कि इस प्रकार के खर्च की व्यवस्था को क्यों न रोक दिया जाए। कोर्ट ने आगे कहा, कि बॉयलॉज में बाध्यता के रूप में ये व्यवस्थाएं एक ऐसी सोसायटी के लिए बना दी गई हैं जो मूलतः सारनाथ में है। और विशेष रूप से एक ऐसे महान संत के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करती है, जो बलिदान और त्याग के सिद्धांतों के दम पर विश्व की सभ्यता में एक बदलाव लाया।