Yogi Adityanath Journey: अजय सिंह बिष्ट से योगी आदित्यनाथ तक
Yogi Adityanath Journey: व्यापक हिंदूकरण की कार्यनीतिक रणनीति को कारगर बनाने के लिए पार्टी को जरूरत एक ऐसे चेहरे की थी, ऐसे में गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ सबसे बेहतर विकल्प थे।
Yogi Adityanath Biography in Hindi: योगी आदित्यनाथ को गोरक्षपीठ के मठाधीश से देश के सबसे बड़े राज्य का सत्ताधीश बनाने के लिए भाजपा मजबूर हुई या सब कुछ एक तयशुदा योजना के अनुसार हुआ? लोकसभा चुनाव 2014 और उसके बाद के राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से देखें तो योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री (UP CM) बनाया जाना भाजपा की कार्यनीतिक और रणनीतिक पहलू का ऐसा हिस्सा रहा, जिससे भाजपा ने हाल के कुछ सालों में सामने आई चौंकाऊँ कार्यशैली को उजागर किया। बिहार के विधानसभा चुनावों में पटखनी मिलने के बाद भाजपा ने सियासत का अपना अंदाज काफी बदला है। भाजपा की नजर अब दलित-महादलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा वोटों को जातीय नजरिए से साधने की बजाय उन्हें व्यापक हिंदूकरण के खाँचे में लाकर अपनी सियासत का हथियार बनाने पर है।
इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि अगर जातीय राजनीति के परे व्यापक हिंदूकरण के बरक्स राजनीति होगी तो सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण अवश्यंभावी होगा। और ऐसी किसी स्थिति में भी बाहर भाजपा की ही होगी। यूपी के विधानसभा चुनाव में प्रयोग कुछ ऐसा ही हुआ। यहा दलित और पिछड़ी जाति के नेताओं को चुनाव से पहले लाइमलाइट में लाया गया और उनका इस्तेमाल व्यापक हिंदूकरण के सियासी अभियान में किया गया। इसका असर यह हुआ कि यूपी के चुनाव में काफी हद तक पोलरइजेशन हुआ और नतीजा बंपर तरीके से भाजपा के पक्ष में रहा।
गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ बेहतर विकल्प
व्यापक हिंदूकरण की कार्यनीतिक रणनीति को कारगर बनाने के लिए पार्टी को जरूरत एक ऐसे चेहरे की थी, जिसके बूते इस काम को बखूबी अंजाम दिया जा सके। ऐसे में गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ सबसे बेहतर विकल्प थे। योगी उस गोरक्षपीठ से ताल्लुख रखते हैं जिसके प्रति पूर्वाचल के लोगों की गहरी आस्था है और इसी वजह से वर्ष 1989 से निर्बाध गोरखपुर की संसदीय सीट गोरक्षपीठ के पास ही है। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ का नाम बतौर मुख्यमंत्री पहले ही घोषित नहीं किया तो इसके पीछे एक वाजिब कारण भी था। योगी का नाम पहले घोषित हो जाता तो पार्टी में से कुछ नेताओं के असंतोष का नतीजों पर बुरा असर पड़ता। यूपी के पूरे चुनाव में भाजपा वोटों के ध्रुवीकरण पर खास जोर देती रही।
पार्टी ने इस योजना को परवान चढ़ाने की अहम जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ को दी। चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ होने के शुरुआती दिनों में जब योगी का नाम स्टार प्रचारकों की सूची में नहीं था तो इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गरम हो गया। लेकिन जैसे ही ऐन चुनावी वक्त आया पार्टी ने योगी की फायरब्राड हिन्दुवादी नेता की छवि को भुनाने के लिए उनके ताबड़तोड़ कार्यक्रम तय कर दिये। पश्चिम के उन हिस्सों में जहाँ हिन्दू मुस्लिम समाज में तल्खी का माहौल बना था, योगी के भाषणों ने भाजपा के लिए खाद का काम कर दिया। पहले चरण के मतदान के बाद तो पूरे प्रदेश में योगी के कार्यक्रम की डिमोड बढ़ गयी। पूरे चुनाव में योगी ने जातियों को व्यापक हिंदूकरण के खाचें में फिट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। चुनाव परिणाम आने के बाद सीएम पद की रेस में योगी आदित्यनाथ का नाम आखिरी पायदान पर था। नाम जोरशोर से आगे आया मनोज सिन्हा का। कयासबाजी केशव प्रसाद मौर्य के नाम पर भी रही। देशभर की मीडिया ने एकबारगी मनोज सिन्हा के नाम का ऐलान भी कर दिया। पर, पहले से योगी को प्रकारांतर में प्रोजेक्ट करने वाले शीर्ष नेतृत्व ने आखिरी क्षण में सारी कयासबाजी को धराशाही कर दिया।
योगी के नाम पर संशय संघ प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई वार्ता ने भी दूर कर दिया। कभी अपनी मनमानी न होने पर संगठन से रार ठान लेने वाले योगी आदित्यनाथ 2017 के यूपी विधानसभा में बिलकुल अलहदे अंदाज में दिखे। पूरे चुनाव में कभी भी उन्होंने पार्टी लाइन से इतर कोई नहीं की और न ही अपने चहेतों को टिकट दिलाने के लिए संगठन से दो-दो हाथ करने का इरादा दिखाया । क्योंकि यह योगी हैं जिन्होंने 2002 के चुनाव में गोरखपुर सीट से हिन्दू महासभा का बैनर इस्तेमाल कर पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ प्रत्याशी उतार दिया था। और 2007 में अपने चहेतों को टिकट न मिलने पर उन्हें भी हिन्दू महासभा के बैनर पर चुनाव लड़ाने का खुला एलान कर दिया था। 2007 में पार्टी और योगी के बीच लंबी खींचतान के बाद पार्टी को झुकना पड़ा था। पर, 2017 में लोगों ने ऐसे योगी को देखा, जिन्होंने अपने आप को पार्टी के पैमाने पर फिट बैठाये रखा। यहाँ तक कि जब उन्हें सीएम कैंडीडेट घोषित करने की मांग करते हुए उनके द्वारा ही संरक्षित हिंदू युवा वाहिनी के कुछ पदाधिकारियों ने निजी सियासत शुरू की तो उन्होंने भाजपा हित में उनसे पल्ला झाड़ने में तनिक देर भी नहीं लगाई। पार्टी के अंतिम निर्णय में योगी का यह धैर्य भी बहुत काम आया।
योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक अभ्युदय
योगी आदित्यनाथ का राजनीति अभ्युदय उसी वक्त से हो गया था जब उनके गुरू और तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर और सासद महंत अवेद्यनाथ ने उन्हें गोरक्षपीठ के लिए अपने उत्तराधिकारी के रूप में दीक्षित किया। गोरक्षपीठ में पीठ के उत्तराधिकार के साथ ही राजनीति का उत्तराधिकार मिलना एक परंपरा सी नजर आती है। महंत दिग्विजयनाथ ने पीठ का उत्तराधिकार महंत अवैद्यनाथ को सौंपा था और सियासत में जो जमीन महंत दिग्विजयनाथ ने तैयार की थी, उस पर आगे की फसल महंत अवेद्यनाथ ने बतौर गोरक्षपीठाधीश्वर सन 1996 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होने के बाद महंत अवेद्यनाथ ने चेले को सियासत का उत्तराधिकार सौंप दिया। 1998 के लोकसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ पहली बार चुनाव मैदान में थे । और महज 26 वर्ष की उम्र में चुनाव जीतकर उस समय की लोकसभा (12 वीं) में सबसे कम उम्र के सांसद बने थे। तब से उनकी जीत का सिलसिला 2014 तक के चुनाव तक लगातार पांच बार निर्वाध रहा है।
योगी की कार्यशैली
इस बार के चुनाव 2017 यूपी विधानसभा चुनाव को परे रखकर देखें तो योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली इस तरह की रही है जिसे दबंगई और मनमानी जैसे शब्दों का पर्याय माना जायेगा। गोरक्षनाथ मंदिर में उनका कहा ही कानून है, यह कहना गलत नहीं होगा। अफसरशाही से संवाद का उनका अपना अंदाज भी हनक और ठसक भरा रहा है। उनके हठ का उन्हें खूब राजनीतिक फायदा भी हुआ है। उनके पास समर्थकों की बड़ी फौज होने की एक वजह भी यह है कि समर्थकों को यह पता है कि योगी जिस मुद्दे पर स्टैंड करेंगे तो इस पर समझौता नहीं करेंगे। योगी की ज़िद पर्क कार्यशैली का एक नमुना यह भी रहा कि 2002 में वह भाजपा सरकार में तत्कालीन मंत्री प्रताप शुक्ला से नाराज हुए सो उनके खिलाफ डा. राधामोहन दास अग्रवाल को न केवल हिन्दू महासभा का प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़वाया बल्कि उन्हें जीत दिलाकर अपने जिद की हनक भी दिखायी।
इतना ही नहीं, 2007 के चुनाव में टिकट वितरण पर घोर अंसतोष जाहिर कर उन्होंने तत्कालीन नेतृत्व पर आक्षेप लगाया और करीब दस उम्मीदवारों का नाम हिन्दू महासभा के बैनर पर फाइनल कर दिया था। अपनी कार्यशैली के कारण यह न केवल यूपी बल्कि देश स्तर पर एक कट्टरपंथी हिन्दूवादी नेता के रूप में चर्चित हो चुके हैं। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव शुरू होने के साथ तथा 19 मार्च, 2017 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद उनकी कार्यशैली में जबरदस्त बदलाव देखने को मिला है।
(मूल रूप से 21 मार्च, 2017 को प्रकाशित।)