Lucknow Chowk History: चौक के बिना अधूरा है लखनऊ, रोचक है इसका नवाबी इतिहास
Lucknow Chowk Market: चौक की पिक्चर गैलरी लखनऊ आने वाले सैलानियों के लिए भले ही नवाबी इतिहास से रूबरू होने की जगह हो। इसके पिछवाड़े खड़े होकर नवाबी लखनऊ की पुरानी बुलन्द इमारते निहारी जा सकती हैं।
Lucknow Chowk Market: चौक की पिक्चर गैलरी लखनऊ आने वाले सैलानियों के लिए भले ही नवाबी इतिहास से रूबरू होने की जगह हो। इसके पिछवाड़े खड़े होकर नवाबी लखनऊ की पुरानी बुलन्द इमारते निहारी जा सकती हैं। लेकिन इसी इमारत के एक हिस्से का सन्नाटा सिर्फ हर महीने की एक से सात तारीख के बीच टूटता है। जब खुद को नवाबों के वंशज साबित करने के लिए उनकी औलादें अपने वालिदा के मार्फ़त तय किये गये वसीके( रायस पेंशन) लेने के लिए पहुचते हैं। यह बात दीगर है कि इनमें कईयों के लिए वसीके की यह छोटी सी राशि बड़े काम की चीज बन जाती है । जबकि कईयों के लिए तो यह बादशाही यह बादशाही रवायतों का हिस्सा होने का अहसास भर होता है।
तभी तो अवध बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के प्रधानमंत्री रहे मोतनुमुद्दौला आगामीर के पोते हैदर अली खां के हाथ लगने वाली 569 रूपए 99 पैसे की आज की सबसे अधिक वसीका धनराशि हो या फिर नवाब मोहम्मद अली शाह के वंशज कासिम हुसैन को मिलने वाले 1 रूपये 53 पैसे अथवा सल्तनत बेगम और बेगम जानी नाम की बहनों को मिलने वाला एक रूपया दो पाई का वसीका हो। इन सबके लिए इन रूपयों की अहमियत और इनके मिलने की इन्तजारी का सबब बताता है कि बादशाही रवायतों का हिस्सा होना आज भी इनके लिए कितना महत्वपूर्ण है।
अस्सी साल पूरे कर चुकीं वजीर बेगम साहिबा की नवासी घड़ियाली वाली बेगम कहती है, ''वसीका खानदानी चीज़ है।इसे अच्छा समझा जाता है।'' वाजिद अली शाह की तीसरी पीढ़ी के मिर्जा जैगमुद्दीन हैदर, जो शिया इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य भी रहे हैं, को 50 रूपये 30 पैसे का वसीका उनके लिए इज्जत का ऐसा सबब है जिसे वह हमेशा महफूज रखना चाहते हैं। वहीं, कामदानी का काम करके जीवन बसर कर रही खुर्शीद का क्लर्क से विवाद चल रहा है। उनसे अपनी पहचान प्रमाणित करवाने को कहा जाता है पर दिक्कत है कि आफिस में मौजूदा नवाबों के वंशजों में से कोई भी बेहद मुफलिसी से गुजर रही खुर्शीद को पहचानता नहीं है। इसे देखकर कश्मीरी मोहल्ले के सैय्यद बशारत हुसैन, जो खुद भी 75 रूपये का अमानती वसीका लेने आए, कहते है, ''हम तो नाम के ही वीआईपी हैं।'' विरासतनामे जमा हैं। जो आकर बता दें वहीं वारिस बन जाता है। मरने के बाद किसे वसीका मिल रहा है। पता नहीं चलता।
कई नाम गलत चढ़ गए हैं, '' सलामत बेगम और बीबी रानी को तो महज एक रूपया बतौर वसीका मिलता है। मेंहदीगंज में वेल्डर का काम करने वाले अली नवाब के हिस्से में अमानती वसीके के 31 रूपये 20 पैसे आते हैं । वे कहते हैं, ''रकम भले ही कम हो पर खानदानी पहचान बरकरार रहनी चाहिए। वहीं अमानती वसीके 51 रूपये पाने के लिए फार्म पर दस्तखत कर रही सुलतान जहाँ बेगम कहती हैं'- वक्त -ए- दौर है। अब बात ही नहीं रही। शौकों की वजह से कई बर्बाद हुए पर सयाने लोग आज भी नवाब बने बैठे हैं।
कभी मिलेट्री इंजीनियरिंग सर्विसेज से आटो मोबाइल इंजीनियर रह चुके कैप्टन सैय्यद आलम नवाब 125 रूपए का वसीका बड़े फ़ख़्र से हालिस करते हैं। यह बात दीगर है कि जगत नारायण रोड़ से वसीका आफिस तक आने के लिए वह 100 रूपये रिक्शे का किराया अदा कर देते हैं। खुद को 36 भाषाओं का जानकर बताने वाले आलम नवाब धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए आउटलुक साप्ताहिक से कहते है,''दिक्कते बहुत हैं। जिन्दगी में सब चलता रहता है।'' मेरे सामने यूनियन जैक नीचे उतारा गया था। सलामी परेड में हिस्सा लिया था । पर आज सब कुछ कितना बदल गया है। '' यूपी रोडवेज में कर्मचारी रह चुके शमसुद्दीन हैदर 1986 में सेवा निवृत्त हुए थे। खुद को वाजिद अली शाह के छोटे भाई का वंशज बताने वाले हैदर को अमानती वसीके का 8 रूपया 74 पैसा मिलता है। दो लड़कों और चार लड़कियों के पिता हैदर महंगाई से बुरी तरह टूटे हैं। वे कहते हैं।'' दाद-फरियाद सुनने वाला कोई नहीं है। सौ बरस बाद घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। पर नवाब खानदान के लोगों की दिक्कते दूर नहीं हो रही है। हमारी तादाद कम है। हम सड़क पर नहीं उतरते। लिहाजा हमारे जैसे बेजुबान लोगों के साथ नाइंसाफी हो रही है। पान पराग की मॉडलिंग कर चुके मशहूर एक्टर जलाल आगा का भी नाम वसीका लेने की सूची में शुमार है।
वसीके की शुरूआत अवध की बाअसर बेगम अमतउज्जहरा उर्फ बहू बेगम साहिबा ने की थी। बेगम को पहले से ही अंदाजा हो गया था कि अंग्रेजी हुकूमत नवाबों के लिए दिक्कत का सबब बनी रहेगी। उन्हें अपनी नवाबियत बरकरार रखने के लिए जरूरी पैसों का टोटा न पड़े । इसलिए पहले उन्होंने 1808 में एक वसीयत तैयार की। जिसमें उन्होंने अपनी पूरी सम्पत्ति का वारिस ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बना दिया। वह चाहती थीं कि इस वारिसनामे के एवज में जिन्हें वे चाहें वसीका मिलता रहे। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने इसे मानने से इनकार कर दिया। बाद में 25 जुलाई, 1813 को बहू बेगम साहिबा ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से एक नया करार किया। जिसके तहत वसीके के लिए 70 लाख रूपये जमा हुए। लिखित समझौता हुआ कि बहू बेगम के जिन रिश्तेदारों व कर्मचारियों के नाम उन्हें बताए जाएंगे, उन्हें हर महीने एक निश्चित राशि मिलती रहेगी।
यह लिखित एग्रीमेन्ट वसीका या रायल पेन्शन के नाम से जाना गया। 15 दिसम्बर, 1815 को बहू बेगम साहिबा का जब इन्तकाल हुआ तो वह 99 लाख 48 हजार छोड़ गई थीं। इसी धनराशि में से गाजीउद्दीन हैदर के नाम से जमा किया। गाजीउद्दीन हैदर ने 1815 में एक करोड़ रूपये 6 फीसदी ब्याज पर और 1825 में इतनी ही धनराशि 5 फीसदी ब्याज पर बतौर ऋण और भी दिए। इस धनराशि के ब्याज से गाजीउद्दनी हैदर ने 1815 में एक करोड़ रूपये 6 फीसदी ब्याज पर और 1825 में इतनी ही धनराशि 5 फीसदी ब्याज दर पर बतौर ऋण और भी दिस। इस धनराशि के ब्याज से हैदर के रिश्तेदारों, नौकर, चाकरों और खास लोगों का वसीका तय हुआ। नौकर-चाकरों में कोचवानों, जिसमें कई अंग्रेज भी शामिल थे, के भी नाम थे। लोन-5 के तहत किंग नसीरूद्दीन हैदर ने भी 12 लाख 40 हजार रूपए इसी ब्याज दर पर जमा किये।
मोहम्मद अली शाह बहादुर ने भी 17 लाख रूपये ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पास चार फीसदी ब्याज पर लगाए। जिससे उनके वंशजों को वसीका का प्राविधान किया गया। इमामबाड़ा हुसैनाबाद ट्रस्ट और कई इमारतों के रखरखाव, शाही आजादारी के जुलूस के अखराजात (खर्च) और तवरूक्ख (प्रसाद) के लिए भी वसीके किए गये। इस तरह कई तरह के वसीके चलन में आ गये। मसलन, नवाब मिर्जा अली खां, नवाब कासिम अली खां, नवाब सालारजंग महल, नवाब मोहम्मद अली शाह ने भी अपने वंशजों और चहेतों के लिए वसीका की मुकम्मल व्यवस्था की। जब भारत आजाद हुआ तो उसने ब्रिटिश हुकूमत को दिये गये इस ऋण की देनदारी स्वीकार कर ली गई। नतीजतन ,वसीके का चलन जारी रहा। वीसके अलल-औलाद, नस्लन व वादेनस्लन होने के चलते जैसे-जैसे खानदान बढ़ते गये वैसे-वैसे वसीके का पैसा घटता चला गया। अवध में तकरीबन सात सौ वसीकेदार हैं। इनमें 375 अमानती और 181 जमानती वसीकेदार हैं । ये दोनों वसीके बहू बेगम बहू बेगम साहिबा के समय के ही हैं । यही चल रहे हैं।
वसीके तय करते समय नवाबों ने अवध की गंगा-जमुनी तहजीब का भी ख्याल रखा था। तभी तो नवाबी शान शौकत के उत्तराधिकारियों के अलावा नवाबों के साथ समय गुजारने वाले लोगों के परिजनों को भी इससे वंचित नहीं किया गया। शिया पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के डॉ.बी.एन. शर्घा एवं वरिष्ठ पत्रकार अर्जुन शर्घा को प्रथम अवध लोन का वसीका मिलता है। इसी सूची में मेजर प्रकाश भट्ट, अशोक भट्ट, गीतिका जुत्थी, कृष्ण मोहन टिक्कू व आनन्द मोहन टिक्कू के नाम में भी शुमार हैं। आर्थिक तंगी, घरेलू दिक्कतें, बीमारी और निकाह सरीखी जरूरतों के लिए वसीके को 'कम्यूट' कराने की भी व्यवस्था है। यानी एक रूपया वसीका पाने वाला आदमी वसीके को कंम्यूट कराये तो उसे 240 रूपये एक मुश्त मिल सकते हैं। इसके लिए उसे बीस साल तक वसीके से वंचित रहना पड़ेगा। हालांकि रायल फैमली ऑफ अवध के नवाब जाफर मीर अब्दुल्ला कहते हैं, 'नियमतः' बीस साल बाद वसीका मिलना फिर शुरू हो जाना चाहिए।
लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। कम्यूट कराने का मतलब यह लगाया जाने लगा है कि वसीके को बेच दिया गया। इन दिक्कतों से दो चार हो रहे अपनी रियायतें गवां चुके 25 से 30 हजार नवाबों के वंशज राजनीतिक दबाव बनाने के लिए अब लामबन्द होने को है। रायल फैमिली ऑफ अवध के महासचिव शिकोह आजाद व एडवाइजरी बोर्ड के अध्यक्ष सैय्यद मासूम रजा बताते हैं, 'जून में बैठक कर वसीका बढ़ाये जाने की मांग की जाएगी।' जिस तरह स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सम्मान हो रहा है। उसी तरह नवाबों के वंशजों को भी सम्मान मिलना चाहिए।
नवाब जाफर मीर अब्दुल्ला यह भी कहते हैं, "देखने की चीज यह है कि उस वक्त एक करोड़, दो करोड़ छप्पन लाख, सत्रह लाख जो चांदी और सोने के सिक्कों में दिये गये थे। जिनकी आज कीमत कितनी हो गई है। उनसे मिलने वाली धनराशि या तो इन हीरे-जवाहरात के आज के मूल्य अथवा मंहगाई के हिसाब से ब्याज दर से बढ़ोत्तरी के मार्फत वसीका बढ़ाया जाना चाहिए। "। वह अपनी नाराजगी जताते हुए बताते हैं कि वसीका आफिस हटाकर पुराने लखनऊ से नए लखनऊ के इन्दिरानगर इलाके में ले जाने की कोशिश एक बार फिर जोर पकड़ रही है।
हालांकि जिन दिनों योगेन्द्र नारायण राज्य के मुख्य सचिव थे। उन दिनों भी यह कवायद हुई थी। लेकिन नवाब जाफर की कोशिशों से सरकार को अपने पैर खींचने पड़ें। हाँ मुख्य सचिव ने भी इसमें मदद की थी। पर्दानशी औरतों को वसीके आफिस तक न जाना पड़े। इसके लिए इस दफ्तर में महलदार रखी गई थीं। इन महिला नौकरों का काम बेगम साहिबान को वसीका की रकम पहुंचाना था। लेकिन रायल फैमिली के लोगों को शिकायत है कि अब वे हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं। जून में होने वाली बैठक में यह सवाल उठेगा कि वसीका आफिस कमिश्नर के अधीन से हटाकर अल्पसंख्यक क्ल्याण महकमें को क्यों सौंपाा गया? इस महकमें के अधिकारियों के पास ज्यूडीशियल पावर न होने के नाते कई विवाद वर्षों से लटके हैं।