विक्टोरिया पार्क अग्निकांडः छोटी सी चिंगारी ने की 65 जिंदगियां खत्म, अपनों के गम में आज भी जल रहे लोग

विक्टोरिया पार्क अग्निकांडः मेला परिसर के पास पुलिस लाइन थी, जिसकी दूरी 200 मीटर से ज्यादा नहीं रही होगी। लेकिन वहां से मदद आने में इतना समय लग गया कि कई लोग तड़प-तड़प कर मर गए।

Report :  Sushil Kumar
Update: 2024-04-10 05:28 GMT

विक्टोरिया पार्क अग्निकांडः अपनों के गम में आज भी जल रहे लोग (न्यूजट्रैक)

Meerut News: आज से 18 साल पहले 10 अप्रैल 2006 को विक्टोरिया पार्क, वहां लगे उपभोक्ता मेले से गुलजार था। दिन ढलने लगा था लोग अपना-अपना सामान समेट कर घरों की तरफ निकलने ही वाले थे कि तभी शाम 5ः40 बजे वहां चिंगारी उठने लगी। देखते ही देखते चिंगारी शोलों में बदल गई। लोहे के फ्रेम पर बड़ी-बड़ी चादरों से बने पंडालों में अचानक ही आग लग गई। चारों तरफ अफरा-तफरी मचने लगी। लोग चीखते-चिल्लाते इधर-उधर भागने लगे। इस भीषण अग्निकांड में 65 जिंदगियां चलीं गईं और 161 लोग गंभीर रूप से झुलस गए।

इस हादसे के लिए दोषी कोई भी हो लेकिन सच्चाई यही है कि इस हादसे में 65 लोगों की मौत हुई, जबकि 161 लोग घायल हुए, जिनमें से 81 गंभीर रूप से घायल थे। वैसे, इस प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर न्यायिक आयोग पूर्व जस्टिस एसबी सिन्हा की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक की जा चुकी है। तमाम गवाहों और लंबी जांच के बाद इसका निष्कर्ष सामने आया। आयोग ने इस मेले के आयोजकों को घटना के लिए साठ प्रतिशत और सरकारी तंत्र को चालीस प्रतिशत दोषी माना।


पिघल कर लोगों के ऊपर गिर रहा था प्लास्टिक का पंडाल

वहां मौजूद लोग, जो बच गए, वह बताते हैं कि प्लास्टिक का पंडाल ऊपर से पिघलता जा रहा था और लोगों के ऊपर आग का गोला बन कर गिर रहा था। उसे बुझाने की वहां कोई भी सुविधा मौजूद नहीं थी। लोग अपनी जान बचाने मेन गेट की तरफ भाग रहे थे। कुछ खुशकिस्मती से निकल बाहर आ गए थे, लेकिन कई उस जगह ही फंस गए। जो आग में लिपटे बाहर भाग आए थे, वह खुद को बचाने के लिए जमीन पर गिर गए, कुछ गोबर में घुस गए, कुछ बचने के लिए इधर-उधर गिरते फिर उठते भाग रहे थे। कोई शरीर पर आग की लपटें लिए कराहते हुए बस रेत और मिट्टी ढूंढने के लिए दौड़ रहा था। मेला परिसर के बाहर मौजूद लोग भी वहां इकट्ठा हुए। जिससे जितनी मदद हो सकती थी, सबने की। लेकिन कुछ के लिए बहुत देर हो चुकी थी।

अपनों को ही पहचान पाना था नामुमकिन

बताया जाता है कि मेला परिसर के पास पुलिस लाइन थी, जिसकी दूरी 200 मीटर से ज्यादा नहीं रही होगी। लेकिन वहां से मदद आने में इतना समय लग गया कि कई लोग तड़प-तड़प कर मर गए। जो बच पाए, उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया। लेकिन उन अस्पतालों में भी बर्न मेडिकल सेंटर्स नहीं थे। जिन्हें बर्निंग में स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं दिया जा पा रहा था, उन्हें किसी और तरह से ट्रीट किया गया। मेले की आग पर काबू पाया गया तो अंदर से कई जले हुए शव मिले। हालात ये थे कि अपनों को ही पहचान पाना नामुमकिन था। न जानें कितने परिवार उस दिन बर्बाद हो गए थे। इस वीभत्स आग में 64 लोगों की जान चली गई थी। 161 लोग घायल थे, जिनमें 81 लोगों की हालत बेहद गंभीर थी।

कुछ दिन बाद गंभीर घायलों में से एक और ने दम तोड़ दिया और मौत का आंकड़ा 65 हो गया था। घटना दुर्भाग्यपूर्ण थी, लेकिन सरकार और प्रशासन की मदद से इसे रोका जा सकता था। पूरी तरह से नहीं तो इसे वीभत्स रूप लेने से ही सही, लेकिन रोका जा सकता था। उस समय जनता इतनी आक्रोशित थी कि तत्कालीन सरकार समाजवादी पार्टी, तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और पुलिस के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा था। हर जगह विरोध शुरू हो गए थे। मलवा हटाने आए बुलडोजर से लोगों ने कलक्ट्रेट में तोड़फोड़ कर दी थी। बहरहाल, इस हादसे के शिकार लोग आज भी न्याय की उम्मीद में जख्मों के साथ जीने को मजबूर हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मृतकों के परिजनों और हादसे में घायलों को मलने वाले मुआवजे को तय करने के लिए कोर्ट में सुनवाई जारी है।

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