UP Election 2022: पश्चिमी यूपी में एक बार फिर जोर पकड़ती ध्रुवीकरण की सियासत

UP Election 2022: उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी (Western UP) में एक तरफ जहां बीजेपी (BJP) को ध्रुवीकरण की आस है, सपा-रालोद गठबंधन (SP-RLD alliance) बीजेपी के खेल को बिगाड़ सकता है।

Report :  Sushil Kumar
Published By :  Shashi kant gautam
Update:2021-12-09 22:09 IST

पश्चिमी यूपी में एक बार फिर जोर पकड़ती ध्रुवीकरण की सियासत: Design Photo - Newstrack

Meerut News: किसान आंदोलन (peasant movement) की आंच के बीच पश्चिमी यूपी (Western UP) में एक तरफ जहां बीजेपी (BJP) को ध्रुवीकरण की आस है वहीं दूसरी तरफ बीजेपी से मुख्य मुकाबले में माना जा रहा सपा-रालोद गठबंधन (SP-RLD alliance) ध्रुवीकरण की काट की कोशिश में लगा है।

गैर-बीजेपी दलों के लिए नतीजे तभी बेहतर होंगे जब पश्चिमी यूपी में ध्रुवीकरण न हो सके। उन्हें इसका पूरा अंदाजा भी है इसलिए विपक्षी दलों (opposition parties) की सारी ताकत ध्रुवीकरण को रोकने के इर्द-गिर्द रहेगी। यही वजह है कि चाहे सपा-रालोद गठबंधन हो या फिर बसपा,कांग्रेस सभी ध्रुवीकरण रोकने की रणनीति बनाने में तेजी से जुटे हैं। सपा-रालोद गठबंधन की मेरठ की पहली संयुक्त रैली से यह साफ भी हो गया है कि मिशन 2022 (Mission 2022) में फतह के लिए सपा-रालोद गठबंधन पश्चिमी यूपी में किसानों के मुद्दों को ही धार देगा। इसी रणनीति के तहत 23 दिसंबर को चौधरी चरण सिंह की जयंती पर अलीगढ़ के इगलास में रैली का एलान किया गया है।

कैराना पलायन मुद्दा फिर से गरम होने लगा

दरअसल, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद पश्चिमी यूपी में इसका सिलसिला थमा नही है। यही वजह है कि मुजफ्फरनगर दंगे के जख्मों को कुरेद कर फिर से हरा करने की कोशिशें शुरु हो गई है। यही नही कैराना पलायन मुद्दा फिर से गरम होने लगा है। इसके अलावा मथुरा का मुद्दा गरमाया जा रहा है। जिन्ना के बयान पर अखिलेश पर निशाना साधा जा रहा है। अब शिया सेंट्रल वक्फ  बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वसीम रिजवी के हिंदू धर्म अपनाने के बाद राजनीतिक गलियारे में चर्चा तेज हो गई है। यह कहीं पश्चिमी उप्र में ध्रवीकरण की कोशिश तो नहीं है।

माना जा रहा है कि किसानों के आंदोलन के ताप चलते सत्ताधारी पार्टी पश्चिमी उप्र में थोड़ा असहज स्थिति में है। ऐसे में बीजेपी को ध्रुवीकरण का ही सहारा है। दरअसल,तमाम कवायदों के बावजूद भी बीजेपी के पास सपा-बीएसपी व रालोद की तरह कमिटेड जातीय वोट नही हैं। इसलिए जीतीय गठजोड़ को तोड़ने में ध्रुवीकरण हमेशा रास आता है। 1991 में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार रामलहर में ही बनी थी। अयोध्या कांड के बाद जब जातीय राजनीति के दो धुरंधर माया-मुलायम एक साथ चुनाव लड़े तब भी बीजेपी को 177 सीटों पर विजय हासिल हुई थी। धर्म का ताना-बाना टूटा तो नतीजे भी बदलने लगे।

2012 में मुजफ्फरनगर में बीजेपी को एक भी सीट नही

दिन फिरे तभी बहुरे जब जाति की दीवार टूटी। 2012 में मुजफ्फरनगर जनपद में बीजेपी को एक भी सीट नही मिली थी। वहीं 2014 में शानदार जीत मिली थी। यह सब ध्रुवीकरण का ही कमाल था। क्योंकि 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट मतदाता रालोद से छिटक कर  भाजपा की तरफ हो गया। नतीजन अजित सिंह सिंह की पार्टी को 2014-2017 और 2019 में लगातार असफलता मिलती चली गई। यहां तक कि अजित सिंह और उनके बेटे जयंत दोंनो ही चुनाव हार गये। इससे पहले 2017 के चुनाव में मात्र छपरौली सीट ही अजित सिंह को मिल सकी।

लखीमपुर कांड ने बिगाड़ा बीजेपी का खेल

लेकिन, तीन कृषि कानूनों के बाद हालात भाजपा के लिए पहले जैसे आसान नही रहे हैं। लखीमपुर कांड के बाद तो हालात और बिगड़े हैं।  रालोद के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी तीन कृषि कानूनों को लगातार मुद्दा बना रहे हैं। जयंत चौधरी ने मेरठ की संयुक्त रैली में किसान आंदोलन में जान गंवाने वालों की याद में स्मारक बनाने की घोषणा कर अपने इरादे साफ कर दिए हैं।

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