गोरखपुर: पूर्वांचल की माटी में संस्कार गीतों की जड़ें कितने गहरे तक जमी हुईं हैं, इसका साक्षात्कार गोरखपुर की एक संकरी गली में लोकगायन को लेकर आयोजित कार्यशाला में युवाओं की सहभागिता से हो जाता है। भोजपुरी लोक परंपरा के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए 10 दिनों तक चली कार्यशाला में नवोदित कलाकारों ने जिस मनोयोग से लोकगायकी की ककहरा सीखा, वह उन चिंताओं को खारिज करता है कि हमारी लोक परम्परा खतरे में हैं। कार्यशाला के जरिये सांस्कृतिक विरासत को संजोने की कोशिशों को मिला समर्थन साफ संदेश दे रहा है कि पूर्वांचल की सोधी माटी में परम्परागत संगीत की मिठास घुली हुई है। सिर्फ इसे जिंदा रखने की कोशिशें होनी चाहिए। ऐसा होता है तो अमेरिका से लेकर मारीशस तक में रहने वाला पूर्वांचल के युवा अपनी लोक परम्परा की तरफ खिंचे चले आएंगे।
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उत्तर प्रदेश संस्कृति निदेशालय और भोजपुरी एसोसिएशन ऑफ इंडिया ‘भाई’ के सांझा प्रयास से 15 से 24 जून तक आयोजित हुई कार्यशाला में सिर्फ स्थानीय ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया के जरिए लाखों भोजपुरी प्रेमियों की सहभागिता साफ दिखी। लोकगायक और संगीत नाटक एकेडमी के सदस्य राकेश श्रीवास्तव कहते हैं कि कार्यशाला को जितनी सफलता मिली उसकी उम्मीद नहीं थी। फेसबुक और यू-ट्यूब के जरिये कार्यशाला में प्रस्तुत संस्कार गीतों के वीडियो को महज 3 से 4 दिनों में तीन लाख से अधिक लोगों ने देखा। अमेरिका, कनाडा, थाईलैंड, नेपाल, मारीशस, त्रिनिदाद आदि देशों से लोगों की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। लोग पूछ रहे हैं कि उनके घर में वैवाहिक कार्यक्रम में संस्कार गीत गाने वाले कलाकार मिल जाएंगे क्या? शुभ संकेत यह है कि कार्यशाला से पहली कक्षा से लेकर इंजीनियरिंग और मेडिकल के छात्र-छात्राओं की भी सक्रिय सहभागिता रही। कार्यशाला में पचरा, हल्दी गीत, मटकोर, शगुन, तिलक, सिंदूरदान, पाणीग्रहण, कजरी, चैता, फगुआ के पारंपरिक गीतों की बारीकियों को नवोदित कलाकारों ने संजीदगी से सीखा।
कार्यशाला में संस्कार गीतों का प्रशिक्षण देने वाली सारिका श्रीवास्तव और सारिका राय कहती हैं कि शारदा सिन्हा, मैनावती देवी, कल्पना सरीख लोकगायिकाओं के संस्कार गीतों को लोग यू-ट्यूब पर तो देखते हैं लेकिन घरों के वैवाहिक कार्यक्रमों में डीजे के शोर के आगे इन गीतों की धमक नहीं सुनाई देती। हकीकत यह है कि लोग संस्कार गीतों को सीखना चाहते हैं और गाना भी चाहते हैं, लेकिन उचित प्लेटफार्म नहीं मिलने से उनकी मंशा पूरी नहीं हो पा रही थी।
लोककला संरक्षण में जुटे हैं माटी से जुड़े कलाकार
पूर्वांचल में तमाम ऐसे नाम हैं जो लोककला सरंक्षण में पिछले कई वर्षों से जुटे हुए हैं। ऐसा ही नाम हरिप्रसाद सिंह का है। संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाजे जा चुके हरिप्रसाद सिंह इंद्रासनी, फरुआही, कहरवा जैसे पारंपरिक गीत व नृत्य को जिंदा रखने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। हरिप्रसाद सिंह कहते हैं कि गांव-गांव से लोक कलाकारों को खोजने और उन्हें मंच देने की नतीजा है कि बेनुआ बरमपुर, चौरीचौरा के छेदीलाल फरुआही नृत्य, मुगलहा पिपराइच के रामनयन इंद्रासनी नृत्य और जगतबेला के राममूरत व लालजी यादव कहरवा गायन में देश-विदेश के कई मंच पर प्रस्तुति दे चुके हैं। लोकगायिका अंकिता पंडित यू-ट्यूब और फेसबुक के जरिये लोकगीतों को संजोने में जुटी हैं। अंकिता कहती हैं कि पिछले तीन वर्षों से इस काम में जुटी हूं। विवाह के जितने भी संस्कार गीत हैं, सभी को नये कलेवर में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रही हूं। लोकगायिका चेता सिंह और शिप्रा दयाल भी भोजपुरी की विसंगतियों से दूर परंपरागत गीतों के माध्यम से लोक गायिकी को जिंदा रखने की कोशिशों में जुटी हैं।
‘कहवां के पियर माटी...’
कार्यशाला में सहभागिता निभाने वाली नवोदित कलाकार अनन्या सिंह और सृष्टि दुबे कहती हैं कि संस्कार गीतों को हम दादी, नानी के मुंह से सुनते आ रहे हैं। अब वैवाहिक कार्यक्रमों में हंसी-ठिठोली से ओतप्रोत संस्कार गीतों का गुम होना ऐसे ही है जैसे हम अपने पूर्वजों को बिसार दें। दुल्हन की हल्दी से समय गाया जाने वाला गीत, ‘कहवा के पियर माटी कहां के कुदार हो कहवा के पांच सुहागिन माटी कोड़े जास हो’ की बात करें या फिर शगुन गीत ‘अरे अरे सगुनी अरे अरे सगुनी सगुना ले जा...’, की, इन गीतों से माटी की सुंगध का अहसास सहज ही हो जाता है। कार्यशाला में सहभागिता करने वाली कोमल, हिना, विभा और ऐश्वर्या चन्द्रा ने बताया कि विवाह में गाया जाने वाला द्वार पूजा गीत ‘अइसन बाराती ना देख ली जिया करे धकाधक...’ से लेकर मांग बोहराई गीत ‘सोने के सिंदूरवा ले ले अम्मा बाटी खाड़ हो....’ सीखने का मौका मिला।