राज्यसभा चुनाव: सियासी गठबंधन की अग्निपरीक्षा

Update:2018-03-16 13:11 IST

अनुराग शुक्ला

लखनऊ: सियासत में हर चाल सोच समझकर चली जाती है। हर चाल का मतलब होता है। अपनी हालिया सफलताओं से ओतप्रोत भारतीय जनता पार्टी ने फ्रंटफुट पर खेलने का मन बनाया, लेकिन सूबे की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि वह सियासत में हर गेंद को बाउंड्री के बाहर नहीं पहुंचा सकती। उसे भी संभलकर खेलना होगा। उत्तर प्रदेश की 10 राज्यसभा सीटों के लिए भाजपा ने अपने नौ उम्मीदवार उतार दिए हैं।

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के घोषित 8 उम्मीदवारों की सूची के बाद तीन उम्मीदवारों ने औचक नामांकन कर दिया था । इनमें गाजियाबाद के शिक्षा जगत के उद्योगपति अनिल अग्रवाल के साथ ही पार्टी के पदाधिकारियों विद्यासागर सोनकर और सलिल बिश्नोई के नाम शामिल हैं। यह बात और है कि सोनकर और बिश्नोई ने पहले से तय कार्यक्रम के मुताबिक अपना नाम वापस ले लिया है। इस नाम वापसी के बाद अब राज्यसभा चुनाव होने तय हैं। भाजपा के आठ प्रत्याशियों का जीतना तय है और उसके नौवें उम्मीदवार ने चुनाव को दिलचस्प बना दिया है।

इस राजनीति के क्या हैं मायने

शायद यह पहली बार हुआ हो कि पार्टी की सहमति से 10 राज्यसभा सीटों के लिए पार्टी के सिंबल पर 11 उम्मीदवारों ने नामांकन किए थे पर स्क्रिप्ट पहले से ही तैयार थी और उसी के मुताबिक विद्यासागर सोनकर और सलिल बिश्नोई ने अपने-अपने पर्चे वापस ले लिए। अब भाजपा के नौवें उम्मीदवार के तौर पर अनिल अग्रवाल ही मैदान में हैं। अनिल अग्रवाल को लेकर रणनीति अंतिम कुछ घंटों में ही बन पाई। इसकी बानगी तो अनिल अग्रवाल के नामांकन के दौरान ही देखने को मिली। नामांकन करने पहले अनिल अग्रवाल भाजपा समेत कई दलों के विधायकों के साथ आए। उन्होंने भाजपा समर्थक दलों के समर्थित उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भरा था। इसके करीब 45 मिनट बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य ने आकर उनका नामांकन कराना चाहा। जब उन्हें बताया गया कि वह नामांकन कर शपथ ले चुके हैं तो उनके पक्ष में ए बी फार्म देकर उन्हें भाजपा का अधिकृत नौवां उम्मीदवार बना दिया गया।

दरअसल पार्टी नौवां उम्मीदवार उतारकर अपने 28 वोट जहां छिटकने से रोकना चाह रही है वहीं सहयोगियों को भी साथ रखने की कोशिश कर रही है। अगर 8 उम्मीदवार पर्चा भरते तो भाजपा के 28 वोट खाली रहते। पार्टी के अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय ने कहा कि जिनके पास सात व 19 वोट बच रहे हैं वे उम्मीदवार खड़ा कर रहे हैं तो हम 28 वोट लेकर क्यों ना अपना उम्मीदवार खड़ा करें। हम नौवीं सीट भी जीतेंगे। पार्टी ने पहले दो और उम्मीदवार उतारकर यह साबित करने की कोशिश की कि उसके पास राज्यसभा जाने वालों की कतार है। 15 मार्च को इनमें से सोनकर और बिश्नोई अपना नाम वापस ले लिया।

क्या है नौवीं सीट की संभावना

दरअसल निर्दलीय विधायक और अब तक सपा के हमकदम रहे राजा भइया और उनके एक साथी विधायक को लेकर भाजपा आशान्वित है। राजा भइया मायावती के उम्मीदवार को वोट दें, यह कम ही लगता है। ऐसे में भाजपा के पास विजय मिश्रा के समर्थन के बाद 30 वोट हो जाएंगे। इसके अलावा नरेश अग्रवाल के बेटे नितिन अग्रवाल जो सपा में हैं अब क्रास वोटिंग कर सकते हैं। दरअसल नितिन अग्रवाल को लेकर उनके पिता भाजपा ज्वाइन करते समय ऐलान कर चुके हैं कि उनका बेटा भाजपा को वोट देगा। इस लिहाज से 6 वोटों की कमी को अंतरात्मा की आवाज और विकास के नाम पर वोट से पूरा करने का प्लान है। वहीं बसपा के लिए अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए सपा के समर्थन के बाद भी 8 विधायक चाहिए। ऐसे में भाजपा ज्यादा आशान्वित दिख रही है।

उपचुनाव के नतीजों का क्या होगा असर

उत्तर प्रदेश के लोकसभा के उपचुनाव में आए नतीजे अब राज्यसभा को भी प्रभावित करेंगे। भाजपा जिस गणित से काम कर ही थी उसमें उसे खासी मुश्किल होने वाली है। अब बसपा और सपा के विधायकों की भगदड़ सरीखी स्थिति उसे नहीं मिलने वाली है। उपचुनाव के नतीजे भाजपा की सबसे बड़ी उम्मीद बने शिवपाल यादव के लिए भी झटका हैं। उन्होंने अपनी पार्टी की जीत को कार्यकर्ताओं की जीत बताकर एक संदेश भेजा है। अगर यह संदेश सही समझा गया तो शिवपाल यादव के समर्थक माने जाने वाले पांच विधायकों के साथ आने की उम्मीद को भी पलीता लग सकता है। इस उपचुनाव के बाद अब कांग्रेस के विधायक भी टूट-फूट से बचने की राह ढूंढेंगे क्योंकि मोदी विरोध की बूटी उन्हें दिख रही है और उन्हें अंधेरा नहीं दिख रहा है।

रिटर्न गिफ्ट देने की बारी अखिलेश की

लोकसभा के उपचुनाव में बसपा ने दो सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे और सपा का समर्थन किया था। सपा के इस समर्थन में बसपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं और पाने के लिए बहुत कुछ था। अपने वोटों का बिखराव रोकने के साथ ही मायावती एक बार फिर अपने वोटों की ट्रांसफर कराने की ताकत रखने वाली नेता के तौर पर स्थापित हो गयी हैं। समर्थित उम्मीदवार जिताने के श्रेय ने उनकी राजनीतिक आवाज की ताकत बढ़ा दी है। इसकी बानगी तब मिली जब परिणामों के बाद अपनी प्रेस कांफ्रेंस में अखिलेश यादव ने 15 मिनट में चार बार मायावती का नाम लिया और बाद में उनके घर मिलने पहुंच गए। लोकसभा हो या विधानसभा, दोनों जगहों पर सीटों के लिहाज से सपा बसपा से बड़ी पार्टी है।

ऐसे में मायावती किसी भी गठबंधन में जूनियर पार्टनर बनकर रहें, यह बहुत ही मुश्किल है। अतीत में सपा के साथ 1990 के दशक में हो या फिर भाजपा के साथ जैसे ही मायावती ड्राइविंग सीट से हटीं तो गठबंधन टूट गया था। मायावती की राजनीतिक शैली को जानने वाले यह जानते हैं कि मायावती नंबर दो नहीं बन सकतीं और गठबंधन में बसपा की स्थिति नंबर एक की दिखती नहीं। ऐसे में मायावती को अपना बढ़ा कद रास आएगा। जीत का सेहरा भी मायावती के सर ही बंध रहा है। ऐसे में अब सियासी रिटर्न गिफ्ट देने की बारी अखिलेश की है।

राज्यसभा चुनाव में भाजपा के 8 और सपा के 1 उम्मीदवार का चुना जाना तय है। ऐसे में अखिलेश यादव के बाकी 10 विधायक और कांग्रेस के जरिए ही मायावती अपने प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर को राज्यसभा पहुंचाना चाहती है। कांग्रेस से सपा की दोस्ती जाहिर है और अखिलेश ने जीत के बाद भी कांग्रेस से रिश्ते बनाए रखने की बात की है। ऐसे में अब लोकसभा उपचुनाव जीत चुके अखिलेश यादव के कंधों पर जिम्मेदारी है कि वह अपनी बुआ के नए बने रिश्ते की गर्माहट का अहसास कराएं।

भाजपा के लिए मौका के साथ चुनौती भी

राज्यसभा चुनाव भाजपा के लिए मौका भी है और चुनौती भी कि वह यह दिखा सके कि सपा-बसपा गठबंधन के आगे उसने घुटने नहीं टेके हैं। अगर बसपा का उम्मीदवार हारता है तो गठबंधन की मजबूती पर कुठाराघात होगा और अगर भाजपा यहां भी मात खाती है तो सपा-बसपा का गठबंधन प्रदेश में विकल्प के तौर पर उभरेगा। उपचुनाव के परिणाम को खारिज करने का साहस तो भाजपा में हो सकता है, उसके कारण भी हो सकते हैं, पर 10 दिन में लगातार दो हार पचाना और फिर गढ़ बचाना भाजपा के लिए मुश्किल होगा।

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