ये 3 लड़कियां: किया ऐसा काम, हिला डाला पूरी दुनिया को    

फारूख एक बेटी शमां ने जब ई-रिक्शा चलाना सीख लिया तो काम आसान हो गया । अब वो ई-रिक्शे में गांव की लड़कियों को लेकर निकल पड़ती है स्कूल । फारुख मजदूरी करके अपना घर चलाते हैं, लेकिन अब बेटियों की शिक्षा को लेकर उनके हौसले को क्षेत्र के लोग सलाम कर रहे हैं और लोगों में एक नई जागरूकता आई है ।

Update:2023-07-05 17:00 IST

लखनऊ: तीन बेटियों और एक छोटे बेटे के पिता होने पर फारूख को गर्व है । 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' का सही मतलब उन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझा है । अपनी बेटियों की उच्च शिक्षा की राह में कोई रूकावट नहीं आने देना चाहते हैं। घर से स्कूल दूर होने के कारण आने-जाने में हो रही दिक्कतों को दूर करने के लिए उसने अपनी बेटियों के लिए ई-रिक्शा खरीद दिया, ताकि वे उससे स्कूल जा सकें ।

फारूख एक बेटी शमां ने जब ई-रिक्शा चलाना सीख लिया तो काम आसान हो गया । अब वो ई-रिक्शे में गांव की लड़कियों को लेकर निकल पड़ती है स्कूल । फारुख मजदूरी करके अपना घर चलाते हैं, लेकिन अब बेटियों की शिक्षा को लेकर उनके हौसले को क्षेत्र के लोग सलाम कर रहे हैं और लोगों में एक नई जागरूकता आई है ।

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शमां की मां इस चिंता में रहती है कि स्कूल घर से दूर है

फारुख की पत्नी इस चिंता में रहती थी कि स्कूल घर से दूर है, रास्ते में कोई अनहोनी न हो जाए, बस से आने-जाने का खर्च और बेटियों का दर्द दोनों एक साथ परेशान कर रहे थे। तभी फारुख ने यह तरकीब निकाल ली।

गांवों में खासतौर पर मुस्लिम समुदाय में बेटियों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर जागरूकता कम ही देखने को मिलती है। फारुख से उसकी बेटी शमां कहती रहती थी कि अब्बू पढ़ने-लिखने का वक्त आने-जाने में खर्च हुआ जा रहा है, लेकिन अब यह समस्या हल हो गई है। फारुख की यह कोशिश उन लोगों को एक रास्ता दिखाती है जो कहते हैं कि बेटियों को पढ़ाने से क्या फायदा?

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कौन है फारुख और ई-रिक्शा से स्कूल जाने वाली उसकी बेटियां

फारुख, उत्तर प्रदेश के रामपुर ज़िले में टांडा क्षेत्र में पड़ने वाले सैंताखेड़ा गांव का रहने वाला है। जब एक पत्रकार ने फारुख से बात की तो उन्होंने बताया कि मेरी पांच बेटियां और एक सबसे छोटा बेटा है। मैं कभी खेत में तो कभी बाजार में मजदूरी कर लेता हूं।

बेटियों की पढ़ाई के लिए और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमा सकूं इसके लिए मैं दिल्ली में भी काम करने गया था। लेकिन वहां काम मिला नहीं । अब कुछ दिन से मैं टांडा में ही मजदूरी करके 200 से 250 रुपये रोज कमा रहा हूं । मेरी दो बेटी शमा और मंतशा परवीन हाईस्कूल में पढ़ती हैं तो तीसरे नम्बर की जैबुनिंशा 8वीं क्लास में पढ़ रही है । सबसे छोटी दो बेटियां मदरसे में पढ़ने जाती हैं ।

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रास्ते में अनहोनी होने का डर लगा रहता था

फारुख बताते हैं कि जब बेटियां बड़ी होने लगीं और बड़ी क्लास में पहुंचने लगीं तो मुझे इस बात का इल्म था कि गाँव वाले और भाई लोग यह बात जरूर उठेगी कि बड़ी-बड़ी बेटियों को अकेले इतनी दूर स्कूल में भेजते हो कोई अनहोनी हो गई तो? दूसरा बेटियां भी शिकायत करने लगीं थी कि हमारा आने-जाने में बहुत वक्त लग जाता है । ऊपर से पत्नी भी बस के खर्चे को लेकर फिक्रमंद थीं । जैसे ही यह सब दिमाग में आया तो ई-रिक्शा दिला दिया।

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आईये जानते हैं कि ई-रिक्शा के लिए फारूख ने कैसे जमा किए 76 हजार रुपये

एक बाप अपनी बेटी के लिए स्कूटी खरीदता है, साइिकल खरीदता है तो फिर ऐसे में स्कूल आने-जाने के लिए ई-रिक्शा क्यों । इस सवाल के जवाब में फारुख का कहना है, “गांव से स्कूल की दूरी 9 किमी है ।

बस से जाने के लिए गांव से एक किमी दूर आना पड़ता था । तीनों बेटियों को एक साथ स्कूल आना-जाना था जिससे उनकी सुरक्षा भी बनी रहे । और पैसा भी ज्यादा खर्च नहीं करना था ।

सही बात तो यह थी कि पैसा हमारे पास ज्यादा था भी नहीं। बीवी ने घर में मौजूद एक भैंस का दूध बेचकर कुछ पैसे जमा किए थे वो निकाल लिए । कुछ पैसा बच्चियों ने दिया। इस तरह से जोड़-तोड़कर 76 हजार रुपये का ई-रिक्शा खरीद लाया । स्कूटी इसलिए नहीं खरीदी कि उसके लिए रोजाना पेट्रोल की जरूरत पड़ेगी । आए दिन मैकेनिक के पास ठीक कराने के लिए भी जाना पड़ेगा ।

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फारूख ने ऐसा तरकीब निकाला कि 'एक पंथ दो काज' ऐसे निकलता है -रिक्शा का खर्च

फारुख की बड़ी बेटी शमा बताती है, ई-रिक्शा की बैटरी चॉर्ज करने के लिए बिजली खर्च होती है। कभी-कभी रिक्शा में भी काम कराना होता है, इसलिए हम तीनों बहनों सहित गांव की दूसरी 5 लड़कियां भी स्कूल जाती हैं। वो पांचों मिलकर ई-रिक्शा का खर्च उठा लेती हैं। फिलहाल लड़कियों के संघर्ष को देखते हुए उस सन राइज इंटर कॉलेज ने दो लड़कियों की फीस माफ कर दी है जिसमें वो पढ़ती हैं।

 

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