गोलियों से हो गया था सीना छलनी, जमीन पर रेंगते हुए ऐसे किया मिशन पूरा

Update:2018-07-23 17:54 IST

लखनऊ: 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस मनाया जाएगा। भारतीय सेना न सिर्फ अपने देश को बचाने के लिए जान पर खेलती है, बल्कि शांति दूत बनकर पड़ोसी देशों में बसे नागरिकों की भी रक्षा करती है। ऐसा ही एक उदाहरण था 1988 में हुआ लिट्टे के उग्रवादियों के खिलाफ मिशन। इंडियन आर्मी ने शांति सेना बनाकर श्रीलंका में फंसे भारतीयों को बचाया था।

newstrack.com आज आपको श्रीलंका सिविल वॉर में शहीद हुए कैप्टन सुनील चंद्रा की अनटोल्ड स्टोरी के बारे में बता रहा है।

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सेना में जाने की करते थे बात

कैप्टन सुनील जंग की मां ऊषा सक्सेना लखनऊ के राजाजीपुरम में अकेली रहने को मजबूर हैं। पुराने जख्मों को ताजा करते हुए वो बताती हैं, "सुनील बचपन से बहुत शरारती था। दो बहनों के बीच इकलौता भाई था वो, सभी उसे लाड़ करते थे। पता नहीं उसमें क्या जुनून था, हर वक्त सेना में जाने की बात करता था।

10-12 साल की उम्र से ही वो कहता था, देखना मां एक दिन मैं अपने देश के लिए शहीद हो जाऊंगा। हम हंसकर टाल देते थे। सोचा नहीं था, उसकी बात सच होगी। कैप्टन सुनील चंद्रा का जन्म 14 जुलाई 1962 को फतेहगढ़ में हुआ। उनके पिता नरेश चंद्रा स्टेट बैंक में ऑफिसर थे और मां ऊषा हाउस वाइफ। तीन भाई-बहनों में वो सबसे बड़े थे”।

लिट्टे प्रभावित इलाके में पहली पोस्टिंग

सुनील ने लखनऊ के यूपी सैनिक स्कूल से इंटरमीडिएट किया है। 12th के बाद उन्होंने एनडीए ज्वाइन किया था। ऊषा बताती हैं, "उसने 3 साल पुणे और 1 साल देहरादून में ट्रेनिंग की। वो 21 साल का था, जब उसे श्रीनगर के कुपवाड़ा में पहली पोस्टिंग मिली।

पोस्टिंग के कुछ वक्त बाद उसे भारतीय शांति सेना के तहत श्रीलंका में तैनात कर दिया गया। तब लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल एल्म (LTTE) का काफी आतंक था। भारतीय सेना के हस्तक्षेप से वे काफी गुस्से में थे।"

जंग में दिया अदम्य साहस का परिचय

कैप्टन सुनील पैदल सेना की 5 मद्रास रेजिमेंट में कंपनी कमांडर थे। उनकी यूनिट अनलकोडाल में तैनात थी। उसे उग्रवादियों ने चारों तरफ से घेर लिया था। सेना के पास मात्र दो ग्रेनेड बचे थे। एम्युनिशन पहुंचाना बेहद जरूरी था।

सुनील हर जिम्मेदारी खुद उठाना पसंद करता था। इस बार भी उसने वही किया। कुछ साथियों के साथ पैदल जंगल के रास्ते एम्युनिशन लेकर निकल पड़े। उग्रवादी रास्ते में घात लगाए बैठे थे। उन्होंने छिपकर गोलियां बरसाना शुरू कर दी।

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50 सैनिकों की जान बचाने पर 'वीर चक्र'

इस हमले में सुनील के सीने में कई गोलियां लगी थीं और एक पैर बुरी तरह से जख्मी था। 8 साथी रास्ते में ही शहीद हो चुके थे। कैप्टन सुनील घबराये नहीं। घायल होने के बावजूद वो अकेले जमीन पर रंगते हुए सेना के पास हथियार पहुंचाने में कामयाब हुये।

हथियार मिलने से वहां फंसे 50 सैनिकों की जान बची, लेकिन कैप्टन सुनील शहीद हो गए। कैप्टन सुनील के इस अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत राष्ट्रपति ने वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

 

 

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