साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक थे गोंडा नरेश

Update:2018-09-21 14:22 IST

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: मोहर्रम का ताजिया जब निकलता है तो रास्ते में पडऩे वाले बिजली के तार और पेड़ों की टहनियां काट दी जाती हैं, लेकिन यहां साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक रहे गोंडा नरेश राजा देवी बख्श सिह के सम्मान में दशकों से उनकी ड्योढ़ी पर ताजिया झुकाने की परम्परा चली आ रही है। महाराजा देवी बक्श सिंह उन महान योद्घाओं में शुमार किए जाते हैं, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल फूंका।

गोंडा नरेश देवी बक्श सिंह न्यायप्रिय और बहादुर राजा थे। 1856 में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी तेवर अपना लिए। 1857 में आजादी की पहली क्रांति में महाराजा ने एक अंग्रेज जनरल का सिर कलम कर दिया था। चार मार्च 1857 को अंग्रेज सेनापति रोक्राफ्र्ट के खिलाफ बेलवा शिविर में जब 22 हजार सैनिकों ने विद्रोह किया तो 17 व 25 अप्रैल 1857 को महराजा देवी बक्श सिंह ने इस सेना का नेतृत्व किया। नवबंर में सर हाये ग्रांट के खिलाफ नवाबगंज के ऐतिहासिक मैदान लमती में अंग्रेजी सेना से लोहा लिया। इस युद्घ में करीब 21 हजार सेनानी शहीद हो गए। इसके बाद यहां बचे 800 सैनिकों के साथ महाराजा मुजेहना के बनकसिया कोट पहुंचे और वहां 6 दिसबंर को एक बार फिर अपने बचे हुए सैनिकों के साथ अंग्रेजी सेना से लोहा लिया।

अंग्रेजों के खिलाफ चार लड़ाइयां लड़ीं

महराजा देवी बक्श सिंह ने अपने जीवनकाल में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चार लड़ाइयां लड़ीं जिनमें जरवा, सीतापुर व नवाबगंज की लड़ाई प्रमुख है। उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में अपना 84 कोस का राज्य गंवा दिया, लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ कभी सिर नहीं झुकाया। 1857 की क्रांति के अमर सेनानी राजा देवी बख्श सिंह पूरे जीवन अंग्रेजों से लड़ते रहे और वह कभी ब्रिटिश हुकूमत के हाथ नहीं आ सके।

बिगड़ैल घोड़े को किया काबू में

राजा देवी बख्श का जन्म जिले के जिगना गांव में हुआ था। उनके पिता दलजीत सिंह एक छोटे जमींदार थे। गोंडा के तत्कालीन राजा गुमान सिंह के कोई लडक़ा नहीं था। इसलिए उन्होंने देवी बख्श सिंह को गोद ले लिया। राजगद्दी की जिम्मेदारी संभालने के बाद राजा देवी बख्श सिंह की शोहरत अवा के नवाब तक पहुंची। एक बार वे अवा के दरबार में बैठे थे तभी वहां एक घोड़ा लाया गया।

घोड़ा इतना ताकतवर और बिगड़ैल था कि उस पर बैठने का कोई साहस नहीं कर पा रहा था। देवी बख्श सिंह ने दौडक़र घोड़े का लगाम पकड़ी और इतनी जोर से उसे डांटा कि पूरा दरबार कांप उठा। फिर वह घोड़े की नंगी पीठ पर सवार हो गए और घोड़े को वह लखनऊ की सडक़ों पर दौड़ाते रहे। जब वे वापस दरबार पहुंचे तो घोड़े के मुंह से झाग निकल रहा था। यह दृश्य देखकर बेगम हजरत महल ने देवी बख्श सिंह को बुलाया और बेटा कहकर उन्हें सीने से लगा लिया। देवी बख्श सिह ने भी उन्हें मां शब्द से सम्बोधित किया।

हर जगह होती वीरता की चर्चा

वैसे तो महाराजा देवी बख्श पूरे जीवन अंग्रेजों से लड़ते रहे, लेकिन फैजाबाद से आ रही अंग्रेजी सेना से उनका लमती लोलपुर में आमना-सामना हुआ। 15 दिनों तक यहां युद् चलने के बाद बाद अंग्रेजी सेना गुपचुप तरीके से घाघरा के पार उतर आई। लमती में दोनों के बीच युद्घ हुआ। यहां से राजा को पीछे हटना पड़ा। उन्होंने नेपाल में दांग घाटी के देवखुर नामक स्थान पर शरण ली। बाद में देवखुर में ही बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई। राजा देवी बख्श सिंह की देशभक्ति और वीरता के चर्चे आज भी गांव-गलियों में होते रहते हंै। राजा देवी बख्श सिंह को साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए आज भी उनकी ड्योढ़ी के सामने ताजिया झुका दिया जाता है।

आजादी की लड़ाई में बीता सारा जीवन

राजा देवी बख्श सिंह का पूरा जीवन सदैव देश की आजादी के लिए संघर्ष में बीता। इसीलिए पूरे अवध क्षेत्र और आसपास के जिलों में उनका नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल वीरता की चरम मिसाल पेश की थी बल्कि हिंदू-मुस्लिम सौहार्द को भी बढ़ावा दिया था।

लखनऊ की बेगम उन्हें अपना बेटा मानती थी। कहा जाता है कि उनके दरबार की यह परम्परा थी कि मुहर्रम के अंतिम दिन (अशरे के दिन) ताजिये कर्बला जाते हुए उनके सिंह द्वार पर आदर पाते थे। इसीलिए ताजियादार वहां ताजिया रखने में अपना गौरव समझते थे। यही कारण है कि अब भी नगर के महराजगंज मोहल्ले में पुलिस चौकी के निकट स्थित राजा देवी बख्श सिह की ड्योढ़ी (अब स्मारक) के सामने ताजिया झुका दिया जाता है।

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