‘लखनऊ की सैर’ का मजा, इक्के-तांगों के घोड़ों के टापों की आवाज के साथ ही आता था

पुराना लखनऊ, अब नया लखनऊ हो गया, और जब इसने (लखनऊ)  दुनिया की चाल से चाल मिलाई तो  इक्के-तांगे कहीं पीछे छूट गए। सत्तर के दशक में जहां चार हजार तांगे थे, आज लखनऊ  शहर में गिनकर सिर्फ  30 तांगे बचे हैं, वे भी परिवहन का हिस्सा नहीं हैं। विकास के अंधड़ में इन्हें पर्यटन की प्राणवायु ने बमुश्किल जिंदा रखा हुआ है।

Update: 2019-03-19 07:55 GMT

लखनऊ: वे भी क्या दिन थे! जब लखनऊ कि सड़कों पर घोड़ों के टापों कि आवाजें आती थीं, तांगों पर बैठकर लखनऊ की सैर करना एक अलग ही एहसास कराता था। जिसे लखनऊ के शायरों ने अपनी शायरी में कहा ‘लखनऊ की सैर’ और इसी लखनऊ की सैर से इक्के तांगे वालों की रोजी-रोटी चला करती थी । लेकिन आज के समय ने ऐसा विकास किया कि जहां इक्के-तांगे दौड़ा करते थे, आज उन्ही सड़कों पर इनके चलने के लिए जगह ही नही बची है । एक समय था कि लखनऊ के यातायात कि जिम्मेदारी इन्हीं, इक्के और तांगों पर टिका था। बल्कि कोचवानों की बौद्धिकता, रसप्रियता और शहरी जीवन में प्रत्यक्ष दखल इन्हें अवधी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बनाता था। लेकिन धीरे –धीरे इनकी जगह ऑटो ,बड़ी–बड़ी बसों ने ले लिया समय और भी बदला और मेट्रो ने शहर में दस्तक दी और आलम यह है कि मेट्रो भी अपने रूट पर दौड़ने लगी क्योकि समय ने अपनी रफ़्तार तेज़ कर दिया है।

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पुराना लखनऊ, अब नया लखनऊ हो गया, और जब इसने (लखनऊ) दुनिया की चाल से चाल मिलाई तो इक्के-तांगे कहीं पीछे छूट गए। सत्तर के दशक में जहां चार हजार तांगे थे, आज लखनऊ शहर में गिनकर सिर्फ 30 तांगे बचे हैं, वे भी परिवहन का हिस्सा नहीं हैं। विकास के अंधड़ में इन्हें पर्यटन की प्राणवायु ने बमुश्किल जिंदा रखा हुआ है।

इक्के-तांगे चलने वालों कि दास्तां, उन्हीं कि जुबानी

पप्पू तांगे वाले कहते हैं , ‘आज न तो वे सवारियां हैं और न ही उनमें चलने वाले पुराने लोग।’ वर्तमान समय का तांगा तेज दौड़ती सवारियों एवं रिक्शाओं से मात खा चुका है, भले ही फिल्मों में बसंती की धन्नो ने, मर्द तांगे वाले ने, दिलीप कुमार ने, ओ.पी. नैयर ने अपने घोड़ों और तांगों द्वारा कितनी ही मोटरों को हरा दिया हो। आज की जमीन से जुड़ी सच्चाई यही है कि अब लखनऊ की सड़कों पर तांगे नहीं दिखाई देते।

लखनऊ में बड़े इमामबाड़े के आस–पास ही यदा कदा इक्का गाड़ी दिख जाती है तो दिख जाती नहीं तो लखनऊ के दूसरे हिस्सों में देखना बहुत ही मुस्किल है।

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बड़े इमामबाड़े के ठीक सामने तांगे पर बैठे सवारी की प्रतीक्षा करते चाँद भाई जान कहते हैं, शहर में मेट्रो आ गई साहब, तांगे पर अब कौन चढऩा चाहता है। सवारी तो सवारी, हमारे बच्चे ही इस पेशे में नहीं आना चाहते। उनका भी दोष नहीं, दिन भर में इतनी भी कमाई नहीं हो पाती कि घोड़ी का चारा-पानी हो सके, परिवार कैसे चलेगा। आजादी के बाद भी करीब 30 साल तक तांगे अच्छे खासे चलन में थे।

चारबाग, चिडियाघर, अमीनाबाद, हजरतगंज, डालीगंज और पुराने शहर के अलग-अलग इलाकों के लिए तांगे चला करते थे। इक्के-तांगे वालों की सवारियों से बातचीत भी काफी दिलचस्प हुआ करती थी। इनकी किस्से-कहानियां पूरे अवध में मशहूर थीं।

अवशेष के टूर पर ही अब कई जगह हैं बाख पाए हैं इक्का-तांगा स्टैंड

हम यह कह सकते हैं कि इक्का प्राचीनकाल के रथ का छोटा स्वरूप ही था। इसी तरह से अंग्रेजों के समय साहबों की बग्घी ने बाद में तांगे का रूप लिया था। आज भी अमीनाबाद में झंडे वाला पार्क के पास, डालीगंज, चौक, चारबाग में इक्का-तांगा स्टैंड के अवशेष हैं। और यह अवशेष सिर्फ उन कुछ विदेशी पर्यटकों कि वजह से ही बच पाए हैं जो लखनऊ की सैर करने आते हैं। इक्के वाले जरा इक्के का पर्दा हटा... गीत जब संगीतकार मदन मोहन ने आकाशवाणी पर सुना तो उन्होंने इसकी धुन पर झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में... गीत की धुन बनाई थी। और बरेली का बाजार जितना मशहूर था, उससे कहीं ज्यादा मशहूर, 'मेरा साया' फिल्म का ये गीत मशहूर हुआ।

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