UP Election 2022: कहीं इस चुनाव में मायावती को नजरअंदाज करना भारी न पड़ जाए?

UP Election 2022: इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अभी भी मजबूत स्तंभ है और इस बार भी सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

Written By :  Vikrant Nirmala Singh
Published By :  Shreya
Update: 2022-02-05 08:57 GMT

मायावती (फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

UP Election 2022: बहन मायावती (Mayawati) अब चुनावी मैदान में उतर चुकी हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश की दलित राजधानी के नाम से मशहूर आगरा (Agra) से अपनी चुनावी यात्रा की शुरुआत की है। इधर कुछ महीनों में राजनीतिक चर्चाओं का बाजार गर्म था कि मायावती की चुप्पी कहीं चुनाव में बसपा (BSP) को उत्तर प्रदेश की राजनीति (Uttar Pradesh Politics) में किनारे पर न खड़ा कर दें।

लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि बसपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अभी भी मजबूत स्तंभ है और इस बार भी सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बसपा की राजनीतिक ताकत को समझने का प्रयास करेंगे तो एक पहलू बहुत स्पष्ट हो जाता है कि मायावती को कमजोर आंकना राजनीतिक दलों पर भारी पड़ सकता है।

क्या है बसपा की राजनीतिक ताकत?

शुरुआत 2017 के विधानसभा चुनाव से करते हैं। तब के नतीजों को देखेंगे तो पाएंगे कि सीटों के मामले में बसपा उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी थी लेकिन जब वोट प्रतिशत पर नजर जाएगी तो यह जानकर हैरानी होगी कि बसपा ने सपा से ज्यादा वोट हासिल किए थे और दूसरे नंबर की पार्टी थी। सीटों के मामले में आई कमी का एक कारण भाजपा की गैर जाटव दलित आबादी में सेंधमारी थी। बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें और 22 फ़ीसदी मत हासिल हुए थे।

वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उत्तर प्रदेश में प्रचंड मोदी लहर के बावजूद बसपा 34 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। बसपा ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा और 10 सीटों पर विजय हासिल किया। उत्तर प्रदेश में बसपा को कुल 20 फ़ीसदी वोट और पूरे देश में लगभग 2 फ़ीसदी वोट हासिल हुए थे।

यह मत प्रतिशत का आकलन स्पष्ट बताता है कि बसपा का कोर वोटर विषम और लहर वाली परिस्थितियों में भी बहुतायत उसके पास रहा है। आगरा की रैली (Mayawati Agra Rally) में मायावती ने अपने वोट बैंक (Mayawati Vote Bank) को स्पष्ट कर दिया कि "आपको अपना वोट कांग्रेस, सपा या भाजपा को ना देकर अपनी एकमात्र हितेषी पार्टी बसपा को ही देना है।"

मायावती ने आगरा ही क्यों चुना?

अपनी चुनावी अभियान की शुरुआत के लिए आगरा को चुनने के पीछे मायावती के दो स्पष्ट पहलू हैं। पहला तो यह कि आगरा दलित बाहुल्य इलाका है और मायावती का हमेशा से मजबूत गढ़ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने यहां की सभी सीटें जीत ली थी। इस बार भाजपा यहां से बेबी रानी मौर्य के रूप में जाटव महिला नेता को आगे बढ़ा रही है। भाजपा की नजर कमजोर होते बसपा के जनाधार पर है। इस बात को मायावती और उनकी टीम बखूबी समझ रही है। इसलिए मायावती अपने कोर वोट बैंक को स्पष्ट संदेश देना चाहती थी।

क्यों बसपा को कमजोर नहीं आंकना चाहिए?

बसपा का काडर आज भी हर जिले में मौजूद है। यह काडर पिछले 4 महीनों से हरिजन बस्तियों में छोटी सभाएं कर रहा है। हर जिले में पार्टी ने डिजिटल वार रूम तैयार किया है, जिनको लखनऊ मुख्यालय से जोड़ा गया है। जब अन्य दलों के नेता लखनऊ में टिकट के लिए परिक्रमा कर रहे थे तब मायावती ने अपने विधानसभा प्रभारियों की नियुक्ति कर दी थी। बसपा की राजनीति को अगर बहुत नजदीक से परखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विधानसभा प्रभारी ही अधिकतर प्रत्याशी बनाए जाते हैं। इन प्रभारियों की जिम्मेदारी अपने विधानसभा में कोर वोटर तक पहुंचने की होती है।

पिछले कुछ वर्षों में मायावती के दलित वोट बैंक (Mayawati Dalit Vote Bank) में भाजपा के साथ चंद्रशेखर रावण (Chandrashekhar Azad Ravan) की भी उपस्थिति देखी जा रही थी लेकिन जाटव दलित पूर्ण रूप से मायावती के पीछे गोलबंद है। चंद्रशेखर बनाम अखिलेश (Chandrashekhar Azad Ravan vs Akhilesh Yadav) के प्रकरण में युवा दलित मतदाताओं (Dalit Voters) को वापस बसपा की तरफ मोड़ दिया है। दलित बस्तियों में चंद्रशेखर और मायावती के प्रश्न पर एक बेहद दिलचस्प आकलन दिखाई पड़ता है। दलित मतदाता चंद्रशेखर को अपने मूवमेंट का नया चेहरा तो मानते हैं लेकिन अभी भी नेता के रूप में मायावती को स्वीकार करते हैं।

403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 86 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से 84 एससी समुदाय के लिए और 2 एसटी समुदाय के लिए हैं। एक वक्त में इन विधानसभा सीटों पर बसपा मजबूत रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा ने ही इन सीटों पर चुनौती पेश की थी। इसलिए बसपा की राजनीतिक रणनीति पर संदेह करना अन्य विपक्षी दलों को नुकसान कर सकता है। बसपा सत्ता में आने जा रही है कि नहीं के सवाल के बीच या ध्यान रखा जाना जरूरी है कि अधिकांश सीटों पर जीत और हार बसपा ही तय करने जा रही है।

लेखक- विक्रांत निर्मला सिंह

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